बहिनें सेवा पथ पर अग्रसर हो

November 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्रीमती लक्ष्मी देवी जी बम्बई )

स्त्री स्वयं ही सेवा की मूर्ति है। सच देखा जाए तो स्त्री समाज की सेवा जाने अनजाने साधती ही रहती है वह पत्नी, गृहणी, और माता रूप में समाज के मुख्य कार्य को अपने सिर उठा लेती है। जो स्त्री पत्नी के रूप में रह कर पति को प्रेरणा देकर उसकी सलाहकार बन कर संसार की नाव को सलामती से चलाती है जो स्त्री गृहणी रूप में अपने निजी स्वार्थ को पुरुष के स्वार्थ के साथ संयुक्त कर सुन्दर व्यवस्था शक्ति के स्वभाव से घर के द्रव्यों-पार्जन (द्रव्य पैदा करने ) को शोभित करती है, जो स्त्री माता रूप में जगत को अमोल पुरुष और स्त्री की भेंट देती है, वह पत्नी वह गृहणी और वह माता बनने वाली स्त्री में किसी शक्ति की कमी है, यह तलाश करना बेकार है उसका जन्म ही सेवा के लिये है और वह सेवा के लिए ही दान में दी जाती है। ऐसा शास्त्रों का कहना हैं चाहे यह घड़ी भर मान ले कि स्त्री में सत्ता फैलाने की या लड़ाइयां लड़ने की शक्ति नहीं है तो भी सेवा करने की शक्ति लगन और स्नेह जो स्त्री में है वह पुरुष में नहीं पाई जाती यह तो स्पष्ट कहना ही होगा। पुरुष में स्वभावतः कठोरता मुख्य होती है। अतएव वह अपने स्वार्थ के लिए दया और माया को एक ओर भी रख सकता है। किन्तु स्त्री के स्वभाव से विपरित ऐसी कठोरता उसके आगे हार मानती है। अपने पुत्रों के मर जाने पर भी द्रौपदी ने अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया था। इस प्रकार दया से पूर्ण स्त्री हृदय यदि विचार ले तो कौन सी सेवा नहीं कर सकती ?आज भी दुःख दर्द और गरीब को देख कर कठोर हृदय पुरुष खड़ा रह जाता है जब कि स्त्री हृदय को पिघलता हुआ किसने नहीं देखा होगा? यह सब बाते सिद्ध करती हैं कि जिसमें दया, माया और प्रेम के गुण प्रधान हैं उसकी सेवा की योग्यता के सम्बन्ध में तो कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता।

माता के रूप में उसकी समाज सेवा के बारे में तो कहना ही क्या? जितना इस सेवा में उसका अधूरापन है उतनी ही समाज की निर्बलता है। भारत वर्ष के वीर वीराँगनाओं व निर्माण करने वाली माताओं ने समाज, देश और राष्ट्र की कितनी सेवा की है कितने माताओं ने महान पुत्र और पुत्रियों की भेट प्रदान की है? सारा संसार उसका कितना कृतज्ञ है, इन सब का विचार करते हुए स्त्री को माता रूप में सेवा के लिए क्या कहा जाए और क्या नहीं यह प्रश्न जिसका अब तक निर्णय नहीं हो सका, सृष्टि की अन्तिम घड़ी तक विद्यमान रहेगी।

यह बात हमको स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि जब तक स्त्री का जीवन केवल मजदूरी से भरा हुआ है। जब तक उसको घर की व्यवस्था करने का ही भान है, जब तक स्त्री को उसमें रहने की शक्ति के विकास करने का सुयोग प्राप्त नहीं हुआ है, जब तक घर की और कुटुम्ब की बात में उसका दिमाग फँसा हुआ है, जब तक उसका स्वार्थ केवल घर के ही लिए रहेगा तब तक सारे समाज की सारे भारतवर्ष की उन्नति के प्रश्न स्वप्न ही है।

अब यह देखना है कि इस सेवा-मार्ग और सेवा क्षेत्र में स्त्रियाँ कहाँ-कहाँ और किस प्रकार काम कर सकती हैं? हमारी स्त्रियों की अवनति के अनेक कारणों में अज्ञानता मुख्य कारण है। वे 90 फीसदी अशिक्षित हैं और इस प्रकार शिक्षा और विकास के अभाव में इन्हें संसार की उन्नति का ध्यान तक नहीं होता, उन्हें अपनी स्थिति का भी भान नहीं होता और अपने पर आगे वाली अनेक आफतों एवं दुःखों की उत्पादक वे स्वयं ही होने से उसकी रोक नहीं कर सकती, और अनेक प्रकार से कष्ट उठाती हैं। दुख के कारण आसानी से दूर हो सकते हैं किन्तु अपनी अज्ञानता से वे सब सहे चली जाती हैं और इस प्रकार उत्तरोत्तर हमारे स्त्री-समाज ने आज की स्थिति अपने सिर ले ली है। इस अज्ञान और अशिक्षा को दूर करने के लिए प्रथम प्रयत्न स्त्री उन्नति के साधनों का करना जरूरी है।

इस बुझने वाले दीपक को प्रकाशित रखने और उस प्रकाश को बलवान बनाने के लिए मोहल्ले-मोहल्ले में शिक्षा देने की कक्षायें स्थापित करने की प्रवृत्ति अनेक स्त्री संस्थाएं कर रही हैं। किन्तु मुझे कहना चाहिए कि शिक्षित और विकसित कितनी ही सेवा-भावी बहिनों के ये प्रयत्न जनता की सहायता के बिना अधूरे ही रहते हैं और उनका काम कठिन हो जाता है। इसको स्वयं अनुभव करने वाला ही समझ सकता है। इन शिक्षा के वर्गों को धीरे धीरे अक्षर ज्ञान से बड़ा कर विविध कला उद्योग कक्षाओं में बदलना चाहिये। स्त्रियोपयोगी अनेक प्रवृत्तियों को लेकर काम करने की आवश्यकता है।

हमारे समाज में कितनी ही ऐसी रूढ़ियां गहरी जड़ कर गई हैं कि जिनके अस्तित्व से और जिनका पोषण करने से बुराई को उत्तेजना सी मिलती है। ऐसी गन्दगी को निर्मूल करने का कार्य पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ विचार लें तो मेरी समझ से बहुत आसानी से कर सकती हैं। विवाह काल की कितनी ही कुरीतियाँ, (कुरुढ़ियाँ,) अनिच्छनीय रोने पीटने का अशास्त्रीय रिवाज, मृत्यु के बाद असमर्थता में भी प्रतिष्ठा निभाने के लिए होने वाले शाँति-भोज, साँसारिक कलह, क्लेश, निन्दा, वहम, सन्देह और ऐसी अनेक बुराइयों को दूर करने का कार्य सेवा भावी बहिनें विचार करें तो अवश्य पूरा कर सकती हैं।

स्त्रियों को शिक्षा कला, उद्योग, सिखला कर उन्हीं के द्वारा कुरिवाज, वहम और क्लेश एवं कलुषित मनोवृत्ति को दूर करा कर अपने व्यक्तित्व को समझने के ज्ञान का प्रचार होना चाहिए। ऐसा करने के लिए ऐसी सेवावृत्ति रखने वाली बहिनों को स्त्रियों का विश्वास-पात्र बनने की सरलता और सफलता किस प्रकार साध्य करनी चाहिए, किस प्रकार सेवा करनी चाहिए, भावनाओं को किस प्रकार प्रकट करना चाहिए, इन सब बातों के ज्ञान देने की संस्थाओं में ही शिक्षा देकर तैयार कर, बाद में उन पर कार्य का भार रखना उचित है।

देश की उन्नति की इच्छा करने वाले के लिए प्रथम स्त्री समाज की उन्नति करने की हमारे यहाँ खास आवश्यकता है। स्त्री जीवन आज सामाजिक गन्दगी के कारण सड़ा पड़ा है। उसके उद्धार के लिए जैसा कि ऊपर कहा है, तदनुसार अज्ञानता का बादल हटा कर और उनको स्थिति का मान करावें तो आज जिस प्रकार कितनी ही स्त्रियाँ सेवा के लिए भोग दे रही हैं, वैसे ही देना सीख सकती है। इसलिए स्त्री जीवन को पहिले मजबूत करना आवश्यक है। सुनिश्चित स्त्रियों का कर्तव्य है कि अपनी अशिक्षित बहिनों के जीवन किस प्रकार उन्नत बनायें, इसकी लगन उनको रखनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118