कर्तव्य पालन ही ईश्वर भक्ति है।

November 1951

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(श्री मूलचन्द जी गट्टानी, शोभापुर)

विष्णु पुराण में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि केवल मेरे नाम उच्चारण से कुछ नहीं होता क्योंकि मेरा जन्म कर्म करने के लिये हुआ है। अतएव मेरे अनुयायियों को विवेकपूर्वक, भक्ति सहित अपने व समाज हित के लिए नित्य कर्म करते रहना चाहिए और फल के परिणाम की कोई इच्छा नहीं रखनी चाहिए और फल के परिणाम की कोई इच्छा नहीं रखनी चाहिए। भगवान ने निष्काम भावना पर जोर दिया है। सत्कर्म का परिणाम निकलना स्वाभाविक है। फिर उसके लिए इच्छा की आवश्यकता ही क्या है? उसका फल तो होगा ही। परन्तु आज हम लोगों ने परिणाम को मुख्य मान लिया इसका कारण यह है कि हमारा उद्देश्य छोटा हो गया है हमारा लक्ष्य महान नहीं रहा। हम स्वार्थी हो गये हैं। समाज व मानव कल्याण के बजाय आप ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं। इसके लिए हमने सत्य, न्याय, प्रेम तथा धर्म की तिलाँज्जलि दे दी है। यही संसार में सारे असन्तोष की जड़ है।

भगवान ने पांडवों को विशेषकर अर्जुन को अपने कुटुम्बियों से युद्ध करने के लिए इसलिए आदेश किया था कि स्वार्थियों का समाज से विध्वंस होना आवश्यक है क्योंकि स्वार्थ, समाज में अनाचार व अत्याचार फैलाता है। कौरवों ने पाँडवों की न्याय संगत माँग को ठुकराया था और अन्याय पर तुले हुए थे। अन्यायी से बाजी लेना प्रत्येक न्याय प्रिय व साहसी पुरुष का कर्त्तव्य है। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन को बार-बार समझाया परन्तु उसकी बुद्धि तो विपरीत हो गई थी। जो स्वार्थी हो जाते हैं। उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। स्वार्थ उन्हें अन्धा बना देता है। दुर्योधन ने एक भी न्याय संगत बात नहीं मानी तब मोह ग्रसित अर्जुन को भगवान ने आदेश किया कि दुराग्रही, अत्याचारियों से युद्ध करना एक ज्ञान युक्त कर्म है। उसके परिणामों को विचारने की जरूरत नहीं है।

अन्याय का विरोध और न्याय का साथ देना यही भगवान कृष्ण के जीवन का सन्देश रहा है। हम नित्य हर तरह के अन्यायों को देखने वाले, सहने वाले बल्कि उसमें शरीक होने वाले सोचे, कि हमारी सामाजिक व धार्मिक अवस्था इतनी क्यों गिर गयी? आज समाज गायों, विधवाओं, अनाथों के प्रति क्यों इतना उदासीन हो गया? आज तुच्छ चीजों के लिए आपस में क्यों लड़ाई झगड़े वैमनस्य फैल रहा है? हमारे धर्म स्थान अपनी पवित्रता खो, ठग बाजी के स्थान क्यों बन रहे हैं?

जब हम भगवान कृष्ण के कर्मयोग सन्देश को समझेंगे तो निश्चय ही क्षण भंगुर शरीर की परवाह न करते हुए कर्तव्य धर्म पर आरुढ़ होगे। कर्तव्य धर्म का पालन करने में बड़ी से बड़ी कठिनाई को सहना और बड़े से बड़े प्रलोभन को त्यागना यही गीताकार की शिक्षा है। जो प्रभु की शिक्षा को जीवन में उतारता है, असल में वही मनुष्य सच्चा भक्त कहलाने का अधिकारी है।


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