प्रवृत्तियों के सदुपयोग की समस्या

November 1951

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(श्री स्व. आचार्य गिजुभई)

कुछ विद्वान मनुष्यों की वृत्तियों को नीचे लिखे तीनों भागों में विभाजित करते हैं। -

(1) क्रियात्मक वृत्ति, (2) ज्ञानात्मक वृत्ति और (3) आवेशात्मक ( भावना-प्रधान ) वृत्ति।

यह क्रियात्मक वृत्ति हमारे जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं में से जन्म पाती है। जन्म लेकर पृथ्वी पर आने के पश्चात् मनुष्य की सबसे पहली वृत्ति, पेट भरने, सर्दी-गर्मी से अपने शरीर की रक्षा करने और अन्य भयों से बचने के उपाय खोजने की जान पड़ती है। इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य जमीन में हल चलाता है, वस्त्र बुनता और अन्य अनेक प्रकार से शरीर रक्षा के लिये प्राकृतिक शक्तियों पर विजय-अधिकार प्राप्त करता है। यह मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ हैं। इन्हीं शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य शरीर की शक्तियों को शिक्षित बनाता है और उनका उचित उपयोग करना सीखता है। ये आवश्यकताएँ ही अर्थशास्त्र की जननी है। इन आवश्यकताओं के ही फलस्वरूप आज पृथ्वी पर रेल और जल पर विशालकाय पोत दौड़ लगाते दीख पड़ते हैं। इन्हीं आवश्यकताओं ने हमें आकाश के साथ बातें करना सिखाया है और अपने दुर्गन्धमय धूम्र से मनुष्य का दम घोटने वाली मिलों की बड़ी बड़ी चिमनियाँ भेट की हैं। ये आवश्यकताएं अंग्रेजों को हिन्दुस्तान में लाती हैं और हिन्दुस्तानियों को अफ्रीका पहुँचाती हैं। ये आवश्यकताएं क्रिया प्रधान होते हुए भी बुद्धि प्रयोग से खाली नहीं है। इस क्रियात्मक वृत्ति के साथ मनुष्य की ज्ञानात्मक वृत्ति और भावनाप्रधान वृत्ति भी कुछ न कुछ अवश्य रहती है।

क्रियात्मक वृत्ति और ज्ञानात्मक वृत्ति के सहयोग से ईश्वर की बुद्धि को भी चक्कर में डालने वाले और अद्भुत शक्ति सम्पन्न यंत्र बल वाली मनुष्य शक्ति का नूतन रूप प्रकट हुआ है। इन वृत्तियों के इसी सहयोग में से वन ग्राम, देश बसे हैं और कुटुम्ब, जाति तथा समाज का प्रादुर्भाव हुआ है। फिर भी मनुष्य में रहने वाली अतुल शक्ति इस वृत्ति के पोषण में व्यय नहीं हो पायी है।

अब तक मनुष्य इस संसार में जीवित रहने के लिये ज्ञान प्राप्त कर रहा था और वह जीवन के प्रति भी मूक बना हुआ था, परन्तु अब जीवन का प्रश्न हल हो जाने के बाद क्रियात्मक वृत्ति का थोड़ा विश्राम मिलते ही मनुष्य की दृष्टि ऊपर प्रकाश की ओर जाती है। इतना विशाल अग्निपुँज सूर्यमंडल, शीतलता प्रदान करने और प्रतिदिन नये नये रूप धरने वाला चन्द्र तथा असंख्य तारा समूह क्या है और कहाँ से आये हैं? ये विचार उनके हृदय को आन्दोलित करने लगते है वह इन समस्याओं को सुलझाने की ओर प्रवृत्त हो जाता है। अपने पैरों के नीचे रहने वाली पृथ्वी के विविध परतों की ओर जब वह ध्यान देता है तो उसके अनेक आश्चर्यों का भंडार अमूल्य रत्नों से भरपूर प्रतीत होता है। अपने ही उदर पोषण के लिए उपयोग में आने वाले पशु और वनस्पतियों की तरफ वह एक विचित्र नूतन दृष्टि से देखने लगता है और अपने मन से पूछने लगता है कि यह सब क्या है और कहाँ से आया? मन की दृष्टि पल पल में विशाल होती जाती है। इस दुनिया में होने वाले स्थूल दृश्यों का कार्य कारण सम्बन्ध खोजने की ओर उत्सुक-प्रवृत्त होता है। हमारे पूर्वज कौन थे? कब और कहाँ से आये? यह जानने के लिए वह कटिबद्ध हो जाता है। हमारे शरीर का ढांचा कैसा है और उसमें क्या करामात है? इसका पता लगाने के लिए वह उतावला हो उठता है। उसके मन की ज्ञान पिपासा यहाँ शान्ति नहीं हो जाती। मन अपने ही गुण धर्मों की खोज में निकल पड़ता है मनुष्य स्वयं कहाँ से आया और अब फिर कहाँ जायेगा, इसकी खोज का वह दृढ़ निश्चय कर लेता है। और इस शरीर तथा विश्व मात्र की रचना किसने और कैसे की, इन अनुत्तर प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए बेचैन हो उठता है।

मनुष्य की इस ज्ञानात्मक वृत्ति में से अनेक विज्ञान प्रकट हुए हैं। तत्व ज्ञान भी इसी वृत्ति का पुण्य प्रसाद है। क्रियात्मक वृत्ति वाला मनुष्य प्रकृति को अपने उपयोग के लिए जितना चाहता था, उसके ऊपर अधिकार पाने में आनन्द मानता था, परन्तु इस ज्ञान वृत्ति का मनुष्य प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। यद्यपि इस ज्ञान के कारण प्रकृति के ऊपर इसके अधिकार की वृद्धि ही होती जा रही है, फिर भी अभी तक मनुष्य की अन्तः शक्ति का अंत नहीं आ पाया है। एवं अपने लिए सुख चैन का संचय करता है, अपने आस पास की दुनिया में सर्वत्र कार्य कारण का सम्बन्ध खोज निकालता है, परन्तु फिर भी यह ऊँचा अनन्त नील नभ, वह चिरपुरातन योगी सदृश, वन वृक्षों की जटा धारण किये पर्वत और वह दूर दूर तक रजत-सम-श्वेत चादर ओढ़े शयन करता हुआ अति विस्तीर्ण सागर ये सब उसकी हृदयगत भावनाओं को आन्दोलित किये बिना नहीं रहते। खगोल विज्ञान का जो प्रत्यक्षदर्शी पंडित है ऐसे मनुष्य के लिए भी अभी सूर्योदय, पूर्णिमा की चन्द्रिका और अँधेरी रात्रि के तारों का समूह अपनी मूक ध्वनि में कोई न कोई नूतन कहानी प्रति दिन कहते चले जा रहे हैं। पेट के लिए वनस्पति जगत को हँसिये से काटने वाले कृषक अथवा आरे से लकड़ी चीरने वाले बढ़ई और औषध के लिए वनस्पतियों के अंगों पगों के टुकड़े करने वाले वैद्य को भी यही वनस्पति कभी-कभी सौंदर्य का अपूर्व उपदेश दे सकती है। नील नदी के समीपवर्ती सुन्दर प्रदेश की मन मोहक हवा में उड़ने वाले कीट पतंगों को अपने आहार के लिए चबाने वाले जंगली लोगों से लेकर शोरबे के लिए तीतर बटेर, कोयल अथवा मैना को उबालने वाले राजा महाराजाओं को अथवा जन्तु जगत के जीवन रहस्य और उनकी शरीर रचना के ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी प्रयोगशाला की मेज पर जीव जन्तु को बिना कम्पन के काटने वाले या गर्म पानी में उबालने वाले प्राणी शास्त्री को भी कभी-कभी पतंगों की अपूर्व प्राकृतिक रचना किसी न किसी विचार धारा में प्रवाहित कर ही देती है।

क्षुधातृप्त और ज्ञान तृप्त मनुष्य जब ऊपर आकाश में और नीचे पृथ्वी पर दृष्टि डालता है तो विविध भावना पूर्ण उसकी अन्तरात्मा कह उठती है कि अहो! यह सृष्टि सौंदर्य अद्भुत है। वह ब्रह्मांड का दर्शन करता है। जब इस दर्शन के समय उसका स्थूल और बौद्धिक स्वार्थ नष्ट हो जाता है, तो उसके हृदय में से उपनिषद् का स्त्रोत प्रवाहित हो जाता है। उसके गले में से अश्रत पूर्व संगीत ध्वनि निकल पड़ती है और उसके हाथों में से किसी सशक्त कला कृति का जन्म होता है। ये उपनिषद् बुद्धिप्रधान और शुष्क वेदान्त की सीमाओं को तोड़कर एक मात्र हृदय की अप्रतिम स्रोतस्विनी के रूप में वह निकलती है। ये काव्य केवल इतिहास भूगोल न रहकर इतिहास भूगोल की जड़ वस्तु को चेतनता प्रदान करते हैं। ये सब जिस वृत्ति में से जन्म लेते हैं उसी को आवेशात्मक (भावना प्रधान) वृत्ति कहते हैं। पेट भरने के बाद, अनन्त ज्ञान कोष संचित करने के पश्चात मनुष्य कुछ कहना, व्यक्त करना चाहता है। अपनी आत्मा को व्यक्त करने की इस वृत्ति में से कला मात्र की सम्पूर्ण कलाओं की उत्पत्ति है। इसी वृत्ति का अतिरेक होने पर मनुष्य के हृदय में परम गूढ़ नैतिक तथा आत्मिक तत्वों का दर्शन होता है।

जैसे क्रियात्मक वृत्ति के हम अनेक रूप देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञानात्मक वृत्ति के और आवेशात्मक (भावनाप्रधान) वृत्ति भी बहु रूप धारी है। पेट के लिए की जाने वाली भिन्न प्रवृत्तियाँ सभी विज्ञान कलाएँ इन्हीं उपर्युक्त तीन वृत्तियों के फल है। मनुष्य ने अपनी ज्ञान वृत्ति से जैसे अनेक प्रकार के विज्ञान और उपयोग कलाएँ प्रकट की हैं। उसी प्रकार उसने भिन्न भिन्न ललित कलाओं को जन्म देकर अपनी कलावृत्ति का परिचय दिया है। आवेशात्मक कलावृत्ति के भेद तीन प्रकार है। (1) रूप विषयक भावना (2) ध्वनि विषयक भावना और (3) शब्द विषयक भावना। इस रूप विषयक भावना को प्रकट करते करते मनुष्य में से चित्र, शिला स्थापत्य तथा ऐसी ही अन्य कलाओं की सृष्टि हुई है। जब मनुष्य ध्वनि विषयक भावना को व्यक्त करने लगा तो उसमें से गायन वादन कला का जन्म हुआ और जब उसने शब्द विषयक भावना को प्रकट करने का प्रयत्न किया तो उसमें से साहित्य के नूतन नवनीति का अभिर्भाव हुआ है।


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