अखण्ड सुख शान्ति का मार्ग

November 1951

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(श्री धर्मपाल सिंह जी कासिमपुर)

मनुष्य तथा प्राणी मात्र सुख चाहते हैं। और सुख भी कैसा अखंड, अपरिसीम, अनन्त अर्थात् जो कभी भी समाप्त न हो। परन्तु उसे खोजते कहाँ हैं, विषय भोगों में तथा जीवन का कुल भाग इन्हीं की प्राप्ति के साधन धन, स्त्री, पुत्र, पद, प्रतिष्ठा की पूर्ति एवं वृद्धि में समाप्त कर देते हैं। सारा बल, बुद्धि, प्रयास इन्हीं वस्तुओं के अधिकाधिक संग्रह करने में लगाया जाता है। परन्तु जिस प्रकार ज्येष्ठ की दोपहरी में प्यास से व्याकुल हिरण चमचमाते सूर्य के प्रकाश से चमकती हुई श्वेत वीलुका को स्वच्छ जल से भरा हुआ सरोवर जान शीतल जल से प्यास बुझाने के लिए अति वेग से भागे हुए जाते हैं। और वहाँ पहुँच कर अतृप्त, निराश और दुखी होते हैं ठीक यही दशा विषय भोगो में सुख शान्ति के लिए मुँह बांये भागते हुए प्राणियों की है। प्रभु की त्रिगुणात्मक सत, रज, तममयि माया से मोहित प्राणी संसार की असारता, अनित्य क्षण भंगुरता तथा इन्द्रियों के अति भोगों के परिणाम दुःख को भूला हुआ है। अनुभवी यथार्थ दृष्टा इन्द्रियों के भोगो के परिणाम दुख को देख अपने मन को इनमें नहीं फँसाते।

अखंड सुख का आकाँक्षी भक्त प्रभु से प्रार्थना करता है। प्रभो मैं आपसे क्या माँगू। सब कुछ तो यहाँ अनित्य, असार, अस्थिर है। इस क्षण भंगुर नाशवान साँसारिक वस्तुओं के लिए यदि मैं आप से माँग करता हूँ तो ये वस्तुऐ संसार के अनित्य स्वभाव वश एक दिन अचानक मुझ से जुदा हो जाएगी। उस समय मैं और अधिक मोह दुख से दुखित हूँगा? अतएव हे स्वामी मुझे वही वस्तु दीजिए जिस के प्राप्त करने पर मेरा सुख अक्षुण्य बना रहें। ऐसा अक्षुण्य सुख क्या है। वह किस को, किस प्रकार प्राप्त होता है। इस का उत्तर भगवान देते है। विहाय कामोनयः सर्वान् पुँमाश्चरति निःस्पृह।

निर्ममो निरहंकार स शान्ति मधिगच्छति

॥ गीता - 2-71 ॥

जो सब प्रकार की इच्छाओं को त्याग देता है और बिना लालसा इच्छा के जो आगे कर्तव्य कर्म आते हैं, उन्हें करता है। जो योग्य वस्तुऐ पास नहीं, उनकी इच्छा नहीं करता जो पास है, उन्हें अनित्य अस्थिर जान उनमें अनुचित ममता को नहीं बढ़ाता। अपने शरीर में अहम् बुद्धि न रख आत्मा को अपना स्वरूप जानता है। शरीर के हानि लाभ में अपनी हानि लाभ न जान दुःखी सुखी नहीं होता है। शरीर को प्रारब्ध वश मिल जाना प्रारब्ध से मिले हुए भोगों को संयम पूर्वक भोगता हुआ आनन्दपूर्वक व्यवहार करता है। वही पुरुष अखंड सुख शान्ति को प्राप्त होता है। ऐसी निरहंकार इच्छा रहित स्थिति प्राप्त हो जाना कोई एक दिन का कार्य नहीं है इसके लिए प्राणियों को अनेक जन्म धारण करने पड़ते हैं और साधन पथ पर सतत प्रयत्नपूर्वक चलना पड़ता है।

किसी भी वस्तु के मूल स्थान की खोज के लिए प्रथम कुछ परोक्ष ज्ञान की आवश्यकता है। अतएव यह जानना आवश्यक हैं कि इच्छा का मूल स्थान कहाँ है अर्थात् इच्छा किस का धर्म है। लंगड़े, टोटे, अंधे, बहरे मनुष्य भी इच्छा रखते हैं। इससे यह प्रगट हुआ कि इच्छा इन्द्रियों का धर्म नहीं है यदि इन्द्री का धर्म इच्छा होती तो यह लंगड़े आदि इन्द्रिय हीन व्यक्ति इच्छा रहित होते, पर ऐसा नहीं है। सुषुप्ति अवस्था गहरी निद्रा में अंतःकरण (मन) और इन्द्रियों की कोई चेष्टा नहीं रहती क्योंकि यह अपने कारण चेतन आत्मा में लीन हो जाती है केवल दृष्टा चेतन आत्मा ही जागती है। पर उस समय भी मनुष्य में कोई इच्छा प्रतीत नहीं होती। इससे सिद्ध हुई इच्छा आत्मा का भी धर्म नहीं है। स्वप्नावस्था में इन्द्रियों की कोई चेष्टा नहीं होती है क्योंकि वे अपने कारण मन में लीन हो जाती हैं। परन्तु मनुष्य स्वप्नावस्था में नाना प्रकार की इच्छा और भोग भोगता है कभी राजा का सुख भोगता है, कभी घोर मृत्यु भय से दुखित हो जाता है, सुन्दर वस्तुओं को ग्रहण करता भयावनी को देख काँप जाता है। यह स्वप्नावस्था में अन्तःकरण की जागृत अवस्था के हेतु हैं। जागते में तो मन सब कुछ करता ही है। इससे यहां भली भाँति प्रकट हो गया कि इच्छा न आत्मा का धर्म है न इन्द्रियों का धर्म है। इच्छा अन्तः करण (मन) को धर्म है इस मन को परिमार्जित करके वश में करना ही इच्छा रहित शान्त अवस्था प्राप्त करना है। कहा भी है ‘मन एवं मनुष्याणाम्कारणं बन्ध मोक्षयो’ यह मन अभ्यास और वैराग्य से वश में हो जाता ऐसा भगवान ने कहा है।

असंशयं महा बाहो मनों दुनिग्रह चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते॥

अर्थ- हे महाबाहो निःसंदेह यह मन चंचल और दुर्निग्रह है पर अभ्यास वैराग्य से वश हो जाता है।

मनुष्य जैसे समाज संगति, आचार, व्यवहार में निरन्तर लगा रहा है। उस का मन वैसी ही बातों में अधिक चाव और एकाग्र होता है। यही कारण है कि कृषक लोग कृषि सम्बन्धी वार्ता में, व्यापारी व्यापार के मामलों में, शराबी जुआरी पार्टी की गप्पाष्टक में अपने मन को देर तक लगाये रहते है नित प्रति वैसी ही बातों के अभ्यास से उनका मन देर तक उनमें लगता और आनन्द लेता है इस समय उनका मन और सब बातों से वैराग्य को प्राप्त होता है। अपरिसीम अखंड सुख के आकाँक्षी को इसी प्रकार आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी वार्ता में अपने मन को एकाग्र करने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए और संसार से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त सुखों को अनित्य जान उनसे वैराग्य कर शरीर इन्द्रियों के भोगों की प्राप्ति के अति साधनों को कम करना चाहिए। शरीर मन इन्द्रियों को स्वस्थ रखने के लिए उन्हें सतोगुणी आहार विहार देकर अति भोग शक्ति से बचकर मन की रुचि सत्संग स्वाध्याय गायत्री जप आदि में लगनी चाहिए।

गीता, रामायण, श्रीमद भागवत् उपनिषद् आदि अध्यात्म सम्बन्धी ग्रन्थों का श्रवण पाठ मनन करते हुए उनकी शिक्षाओं को आचरण में उतारना चाहिए एवं जिस प्रकार कृषि में विशेष उन्नति का इच्छुक कृषक विशेष जानकारी के हेतु बड़े उन्नत कृषि फार्मों से खाद बीज जुताई, सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के लिए उनके अनुभवी कृषि विशेषज्ञों से परामर्श लेता है और उनके रचित साहित्य का अवलोकन करके ज्ञान बढ़ाता है इसी प्रकार अध्यात्म विषय के विशेषज्ञ जो साधु, संत महात्मा, आचार्य, विद्वान हैं, उनसे प्रेमपूर्वक अति विनम्र भाव से इस विषय में परामर्श लेना चाहिए। और छल छोड़ कर मन कर्म वचन से उनके होकर उनके आदेशों और शिक्षाओं का पालन करना चाहिए। हमारे तीर्थ स्थान अब भी ऐसे अध्यात्म विशेषज्ञों से खाली नहीं है।

इस प्रकार के नित प्रति के अभ्यास से हमारा मन आगे आने वाली अध्यात्म सम्बन्धी ऊँची भूमिकाओं में एकाग्र होने लगेगा और गुरु कृपा से जो साक्षात नर रूप से श्री हरि कृपा है, अन्त में अखण्ड सुख शान्ति को प्राप्त कर सकेगा।


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