गायत्री के द्वारा आन्तरिक काया कल्प

November 1951

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गायत्री का चौथा पद (धियो यो नः प्रचोदयात्) अपनी आन्तरिक सद्बुद्धि को प्रेरित करने की शिक्षा देती है। हम अपनी कठिनाइयों एवं कष्टों का कारण बाहर ढूँढ़ते हैं और दूसरों पर दोषारोपण करते है। पर अधिकाँश उलझन ऐसी होती है जो हमारी अपनी भूलों, कमियों, भ्रान्तियों एवं अयोग्यताओं के कारण होती है। यदि अपनी मनोभूमि परिमार्जित हो जाये तो संसार में अनेक दोष रहते हुए हम सुख पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं।

सन्त इमर्सन कहा करते थे कि “यदि मुझे नरक में रखा जाये तो मैं वहाँ भी अपने लिए स्वर्ग का निर्माण कर लूंगा” वस्तुतः बात ऐसी ही है। यदि हम अपने भीतर पर्याप्त मात्रा में समझदारी और सद्गुण पैदा कर लें तो सहज ही अनेक कठिनाइयों से बच सकते है। दुनिया दर्पण के समान है जिसमें अपनी ही सूरत दिखाई पड़ती है। जो व्यक्ति क्रोधी है उसे प्रतीत होगा कि सारी दुनिया उससे लड़ती है, झगड़ती है। जो व्यक्ति झूठा है उसे सब लोग अविश्वासी दिखाई देते है। जो स्वयं नीच है वह सारी दुनिया को नीच समझता है। जो निकम्मा और आलसी है उसे सर्वत्र बेकारी फैली मालूम देती है। इसी प्रकार व्यभिचारी, लम्पट, मूर्ख, कंजूस, गँवार, सनकी, पागल, भिखारी, चोर या अन्यान्य मनोविकारों वाले लोग अपने गज से सबको नापते हैं और दूसरों को अपने ही जैसा बुरा मानकर उन पर दोषारोपण करते रहते है। यदि हम समझदारी से अपनी भूल पहचान लें और दूसरों के साथ नम्रता, मधुरता, सहनशीलता उदारता एवं संजीदगी से काम ले तो अधिकाँश झगड़े उत्पन्न ही न हो, यदि हो भी तो बड़ी आसानी से बात की बात में सुलझ जावें।

पात्रता के अनुसार वस्तुएँ मिलती हैं। हम यदि अपनी योग्यताएं बढ़ाते चलें संसार को हमारे लिए वे सभी वस्तुऐ देनी पड़ेगी जिनके कि हम वस्तुतः अधिकारी हैं। संसार में बुरे आदमी हैं पर उनकी बुराई तभी सफल हो सकती है जब हममें भी कुछ दोष हों। यदि अपना रक्त पूर्ण शुद्ध हो तो विषैले रोग कीटाणुओं से भी कुछ हानि नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि हम समझदारी और सद्भावना से काम लें तो न केवल स्वयं सुखी रहें बल्कि बुरे आदमियों की बुराई में भी बहुत हद तक सुधार कर सकते हैं।

जब हम दोषारोपण की दृष्टि से दुनिया को देखते हैं। तो हर एक में ढेरों बुराइयाँ मालूम पड़ती हैं, लगता है कि सभी लोग अपने शत्रु हैं पर जब दूसरे प्रकार सोचना प्रारम्भ करते हैं और देखें कि किस ने कब कब, कितना कितना, उपकार हमारे ऊपर किया है तो मालूम पड़ता है कि अपने ऊपर दूसरों की सेवा सहायता का इतना भार लदा हुआ है कि उससे सिर उठाना मुश्किल है। पत्नी में कोई एक दोष हो तो लोग उसकी सारी सेवाओं को धूलि में मिलाकर केवल उसे पापों की पुतली ही समझने लगते हैं माता पिता कोई कटु बात कह दें तो उनकी सारी सेवाओं को भुलाकर लड़के उन पर आग बबूला हो जाते है। इसी प्रकार अन्य स्वजन सम्बन्धियों मित्रों, या सत्पुरुषों की एक बुराई को लोग बहुत बढ़ा चढ़ा कर अपने मन में दुर्भाव बढ़ाते रहते हैं। और उनकी अनेकों अच्छाइयों को भुला देते हैं। जितने ध्यानपूर्वक हम दूसरों की बुराइयों को देखते रहते हैं उनकी भूल से दुखी होते हैं उसकी अपेक्षा यदि उतने ही ध्यानपूर्वक उनकी अच्छाइयों को देखें तो प्रतीत होगा कि चारों ओर से हमारे ऊपर प्रेम, वात्सल्य, सहयोग, सद्भावना एवं कृपा की वर्षा हो रही है।

किसी एक वस्तु का अभाव रहता है तो लोग ईश्वर को कोसते हैं। पर उसकी उन अनन्त कृपाओं को नहीं गिनते जो पग पग उपलब्ध होती रहती हैं। कोई आपत्ति आती है तो उसके दुःख को तो देखते हैं पर यह नहीं देखते कि इसके कारण हमें कितनी बहुमूल्य नसीहत मिलेगी तथा प्रारब्ध का कितना बोझ हलका हो जायेगा। ईश्वर अत्यन्त दयालु है वह द्वेषवश या निष्ठुर होकर हमें कोई कष्ट नहीं देता वरन् जिस प्रकारी हमारा अत्यन्त हित और दूरवर्ती लाभ देखता है वैसा ही आयोजन करता है भले ही वह कष्टप्रद एवं असुविधाजनक हो। अध्यापक के पीटने में, माता के धमकाने में, डॉक्टर के आपरेशन में, जिस प्रकार बालक का हित ही हित भरा होता है उसी प्रकार अनेक कष्टों के पीछे प्रभु की करुणापूर्ण कृपाऐं ही छिपी रहती हैं।

अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का स्वाभाविक कर्त्तव्य है इसलिये प्रत्येक अपराध से बचने के लिए और उत्तम स्थिति प्राप्त करने के लिये उसे उत्साह और परिश्रम पूर्वक प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता, भाग्य भरोसे बैठ रहा है तो कर्त्तव्य घात का दोषी बनकर अपनी ड्यूटी न करने के पाप का दण्ड पाता है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि पूरी समझदारी, योग्यता और तत्परता से अपनी कठिनाइयों का हल करने के लिए जी जान से कोशिश करे। परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि फल देना परमात्मा के हाथ में है। जो हम चाहते हैं प्रयत्न द्वारा वह अवश्य ही प्राप्त हो जाये यह आवश्यक नहीं।

अनेक अज्ञात कारण ऐसे हैं जो सत्प्रयत्नों को भी निष्फल कर देते हैं और वैसी परिस्थिति में रहना पड़ता है। जो कष्टकारक एवं असुविधाजनक होती हैं। ऐसी दशा में खिन्न होने की कोई बात नहीं। हमारे लिए यह प्रसन्नता की, सन्तोष की, गौरव की, बात है कि शक्ति भर अपना कर्त्तव्य पालन किया गया मनुष्य के हाथ में केवल कर्त्तव्य पालन ही है फल ईश्वर के हाथ है। जो वस्तु अपने हाथ की नहीं उसके लिए चिन्तित या परेशान होने का कोई कारण नहीं है।

इसी प्रकार की उत्तेजित मनोदशा आत्मिक अज्ञान का फल है। गायत्री का साधक अपनी आत्मिक महानता को भली प्रकार से समझ लेता है और जानता है संसार में जो आये दिन रंग-बिरंगी घटनाएं घटित होती रहती हैं वे धूप छाँव की तरह क्षण क्षण में बदलने वाली होती हैं उनका महत्व बहुत कम है। इसलिए इन तुच्छ सी बातों को अनावश्यक महत्व क्यों दिया जाये? जीवन शान्ति, स्थिरता और हल्के दृष्टिकोण से जीने की वस्तु है। इसे एक क्रीड़ा कल्लोल विनोद विलास ही समझना चाहिए। इस तत्व ज्ञान को अपना कर वह अनावश्यक शोक, मोह, चिन्ता भय और क्रोध, आवेश से बचा रहता है। शान्तिपूर्वक कर्त्तव्य मार्ग में प्रवृत्त रहने से उनका मस्तिष्क स्वस्थ रहता है। और अगणित मानसिक पीड़ाओं से उसे छुटकारा मिल जाता है। जो मानसिक शान्ति उसे विशाल फौज, राज पाट, धन भंडार मिलने पर भी नहीं मिल सकती थी वह जीवन को हल्के दृष्टिकोण से जीने की नीति समझ में आ जाने पर सहज ही मिल जाती है। गायत्री का चौथा पद हमें आत्मज्ञान और आत्मबल देता है। जिसके कारण अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले कष्टों का विनाश बढ़ी सरलतापूर्वक हो जाता है। असफलता और सफलता में उसे कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं मालूम देता। उसका ध्यान केवल कर्त्तव्य पर रहता है हानि लाभ या असफलता सफलता पर नहीं।

अपने आंतरिक क्षेत्र का, मनोभूमि का संशोधन करना, समस्या की जड़ अपने अन्दर खोजना, यही अध्यात्म है। यही गायत्री के तृतीय चरण का सन्देश है। इसे हृदयंगम करने वाला कभी भी, किसी भी स्थिति में दुखी एवं असंतुष्ट नहीं रह सकता, उसे हर स्थिति में प्रसन्नतादायक अवसर ही दृष्टिगोचर होते है। वह हर घड़ी हँसता मुस्कराता है, आनन्दित और उल्लासित रहता है।

गायत्री की शिक्षा है कि हम हर घड़ी हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें। क्योंकि प्रसन्नता हमारी आध्यात्मिकता का प्रमुख लक्षण है। आत्मा आनन्दमयी है, उसकी वाह्य आवरण की दिनचर्या भी आनन्दमयी होनी चाहिए। हर घड़ी प्रसन्न रहने की आदत डालने के लिए हर गायत्री प्रेमी को जी जान से कोशिश करनी चाहिए। मुँह फुलाये रहना, निराश, उदास और चिन्तित बैठे रहना किसी व्यक्ति की दीनता हीनता का ही परिचायक हो सकता है जिसे अपने स्वरूप का थोड़ा सा भी ज्ञान होगा वह अपनी महानता पर प्रभु की आनन्दमयी रचना को देखकर सदा हँसता मुस्कुराता ही रह सकता है।

गीता के अध्याय 2 श्लोक 65 में बताया गया है कि प्रसन्न रहने से मनुष्य के सब दुखों का नाश होता है और बुद्धि की स्थिरता बढ़ती है। हँसोड़े आदमी बहुधा स्वस्थ और मोटे ताजे पाये जाते हैं। कारण यह है कि हँसने से नस नाड़ियों में खून का दौरा भली प्रकार होता है। माँस पेशियों में फुर्ती और चैतन्यता रहती है। क्योंकि कंठ, श्वांस, नाड़ियों, फेफड़े और पेट का अच्छा व्यायाम होता रहता है। आँख, कान नाक सभी पर ऐसा असर पड़ता है जिससे यह इन्द्रियाँ भली प्रकार अपना काम करती रहती है। इसके विपरित अप्रसन्न, निराश, दुखी, शोक त्रस्त, क्रोधी, ईर्ष्यालु स्वभाव के मनुष्य अपने स्वास्थ्य को भट्टी में पड़ी हुई लकड़ी की तरह जलाते रहते हैं।

मन का, मस्तिष्क का नाश करने में अप्रसन्नता से बढ़कर और कोई घातक शत्रु नहीं। जिसका चित्त किसी न किसी कारण दुखी बना ही रहता है। जो आशंका, भय, असफलता से चिन्तित रहता है, जिसे द्वेष, कुढ़न, शोक, आवेश, उद्वेग घेरे रहते हैं, जो अहंकार से गर्दन फुलाये रहता है सीधे मुँह किसी से बात करना जिसे सुहाता नहीं ऐसे बद मिज़ाज आदमी अपनी मानसिक शक्तियों का सत्यानाश करते रहते हैं। ऐसे लोग अकसर अनिद्रा, मधुमेह, बवासीर, कब्ज, जिगर बढ़ जाना, मुँह से बदबू आना, दाँतों से मवाद आना, रक्त की कमी, दिल की धड़कन, मुँह में छाले, सनक, पागलपन जैसे रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। और कितना ही इलाज करने पर भी रोग जड़ से नहीं जाते। मानसिक अप्रसन्नता और उद्विग्नता के कारण रक्त के श्वेत कीटाणु अशक्त हो जाते हैं फलस्वरूप शरीर की रोग निरोधक शक्ति में शिथिलता आ जाती है। हड्डियों के भीतर की मज्जा सूख जाती है, नसें सख्त पड़ जाने से हडफूटन होती रहती है। चिन्ता से रज वीर्य निस्वत्व हो जाते है। फलतः ऐसे लोगों को सुसन्तति से वंचित रहना पड़ता है।

प्रसन्न रहने से मानसिक शक्तियां बढ़ती है। और बुद्धिमता बढ़ने से मनुष्य अनेक प्रकार की सफलताएँ प्राप्त करता है। हँसता हुआ चहरा एक प्रकार का खिलता हुआ फूल है। जिसे देखकर दर्शक का मन अनायास ही उस ओर खिंच जाता है। कुरूप से कुरूप मनुष्य भी जब प्रसन्न मुद्रा में होता है। तो अधिक सुन्दर, अधिक स्वस्थ एवं अधिक सुखी दिखाई देता है। हँसने वाले के अनेक मित्र बन जाते हैं। प्रसन्नता का मधु पीने के लिए अनेक व्यक्ति उसके इर्द गिर्द जमा हो जाते हैं।

प्रसन्न मुख मुद्रा प्रमाणिकता की साक्षी देती है जो स्थिर चित्त है, सुखी है, सफल है, सन्तुष्ट है, वह प्रसन्न रहेगा अथवा यों कहिए कि जो प्रसन्न रहता है जिसके पास यह चारों संपदाएं है वह निश्चय ही बुद्धिमान, गम्भीर, विश्वसनीय, साहसी, कुशल एवं सुयोग्य समझा जाता है। प्रसन्न रहना देखने में मामूली बात है पर उसके पीछे अनेक आशाजनक रहस्य छिपे हुए हैं। प्रसन्नता का हर जगह स्वागत होता है।

परमात्मा के इस पुनीत उद्यान में, संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिए जिस आत्मा का अवतरण हुआ है उसे हर घड़ी प्रसन्न रहना चाहिए। काले सफेद,भले बुरे, प्रिय अप्रिय तथ्यों से भरा हुआ यह संसार कितना सुन्दर है इसे देखकर उसका हृदय कमल खिल जाता है। अच्छाइयों का मधुर स्पर्श करना और बुराइयों से लड़ना यह उभय पक्षीय कार्य कर सामने रखकर मानो भगवान ने मीठे और तीखे षट् रस व्यंजन हमारे जीवन काल में परोसे हैं। हानि लाभ के विविध स्वादों को विविध प्रकार का अनुभव करते हुए हमें उसी प्रकार आनंदित रहना चाहिए जैसे स्वादिष्ट षट् रस भोजन का आस्वादन करते हुए हम प्रसन्न होते हैं। सुख दुख, अमीरी गरीबी, हानि लाभ अपने अपने ढंग के व्यंजन हैं। यह सभी अपने अपने ढंग से स्वादिष्ट हैं। एक से दूसरे का महत्व है। विरोधी भाव न हो तो हर वस्तु नीरस हो जाय। दिन का महत्व रात के कारण होता है। यदि रात न हो तो दिन के आनन्द का अनुभव ही न हो। इसी प्रकार सुख का आनन्द तभी है जब दुख का अस्तित्व भी हो। दुख न हो तो जिन बातों को आज सुख समझा जाता है। उनमें तनिक भी आनन्द एवं आकर्षण प्रतीत न होगा।

गायत्री के चौथे पद का संदेश यह है कि अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों को हम बुद्धिमत्ता पूर्ण उपयोग करें। अच्छे से अच्छे भविष्य की आशा करें और बुरे से बुरे परिणाम का मुकाबला करने की तैयारी में रहें। यदि कठिनाइयों को अपने प्रयत्न को बढ़ाने की चुनौती मात्र समझा जाए, उनसे भयभीत न हुआ जाए तो निश्चय ही कोई अप्रिय परिस्थिति हमें दुखी नहीं कर सकती अपनी प्रसन्नता में बाधक नहीं हो सकती। प्रसन्न रहना अपना स्वभाव बना लेने की सद्बुद्धि को अपना लिया जाय तो जरा से तुच्छ कारणों से दुखी होने की कुबुद्धि से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। जीवन खिलाड़ी की भावना से खेलने के लिए है। खिलाड़ी पूरे उत्साह से खेलते हैं। पर जीत हार की विशेष परवाह नहीं करते। रंग मंच पर पार्ट करने वाले नट अनेक प्रकार के अभिनय करते हैं। पर स्वयं उनसे प्रभावित नहीं होते। इस खिलाड़ी और नट की भावना के साथ जीवन का खेल, खेलना चाहिए। किसी भी घटना को किसी भी परिस्थिति को, बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। जो कष्ट या अभाव हमें बहुत परेशान करते हैं। उन्हें यदि हल्की दृष्टि से देखें तो वे बहुत ही तुच्छ प्रतीत होते हैं। इन अभावों के होते हुए भी अनेकों से अपनी स्थिति बहुत अच्छी है, जितनी सुविधाएं प्राप्त है उनकी तुलना में दुख तो नाम मात्र का है ऐसी सुविधाओं पर प्रसन्न होकर छोटे-मोटे अभावों की सहज ही उपेक्षा कर सकते हैं।

आनन्द भीतर है। उसे बाहर की वस्तुओं में नहीं ढूँढ़ना चाहिए। सद्बुद्धि रूपी प्रसन्नता हमारे अन्तर में छिपी पड़ी है। उसे प्रेरित, समुन्नत करते ही कष्टों की निशा समाप्त हो जाती है और आनन्द रूपी सूर्य की किरणें अपने चारों ओर बिखरी हुई दिखाई पड़ती है।


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