गायत्री तीर्थ निर्माण का शुभारंभ

November 1951

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(श्री रामदास विष्णु पाटिल, सावदा)

पिछली गर्मियों में अपनी धर्म पत्नी और पुत्रियों सहित मैं मथुरा गया था। अखंड ज्योति के आरम्भ काल से ही उसका सदस्य हूँ और आचार्य जी के प्रति मेरी असाधारण श्रद्धा है। बहुत दिनों से उनके दर्शनों की इच्छा थी। सुयोग आया। मथुरा पुरी की तीर्थ यात्रा के साथ साथ आचार्य जी के दर्शनों की भी अभिलाषा पूर्ण हुई।

जितने दिनों मथुरा ठहरना हुआ, आचार्य जी से बराबर मिलता रहा। और उनकी विचार धारा, एवं कार्य पद्धति को ध्यान पूर्वक देखता रहा। उनके व्यक्तिगत उज्ज्वल चरित्र, अथाह अध्ययन, सूक्ष्म तत्व ज्ञान, असाधारण व्यक्तित्व एवं आश्चर्यजनक तप को देख कर मैं जितना प्रभावित हुआ, उतना अपने जीवन में बहुत कम अवसरों पर प्रभावित हुआ हूँ। इस युग में किसी पर सहसा विश्वास करना कठिन है। बहुधा दूर से जो लोग बहुत ऊँचे दिखाई पड़ते हैं वे निकट पहुँचने पर बहुत ही छोटे सिद्ध होते हैं। इसलिए मैं भी संदेह में ही था। पर मथुरा पहुँचने पर जो छाप मेरे ऊपर पड़ी वह अमिट है। इतने सरल, सौम्य, सादा फलेवर में इतनी महान आत्मा रहती है यह एक पहेली तो है पर उसने मेरे मन में आश्चर्य का नहीं, श्रद्धा का आविर्भाव किया। कुछ दिनों बाद मैं वापिस घर लौट आया।

घर आकर भी मैं उस सत्य को भूल न सका जो मथुरा में मेरी बुद्धि ने, आँख, कानों ने, आत्मा ने अनुभव किया था। आचार्य जी जहाँ जन साधारण को प्रभावशाली धर्मोपदेश देकर, सद्विचार देकर सन्मार्ग पर लाने के लिए प्रयत्नशील हैं वहाँ वे गायत्री महाशक्ति के अनादि महत्व को पुनर्जीवित करने के लिए भी संलग्न हैं। गायत्री भारतीय धर्म की नींव है, भारतीय संस्कृति की आधार शिला है। जो कुछ हमारा ज्ञान, विज्ञान, आदर्श, धर्म एवं आचार है उसका उद्गम केन्द्र गायत्री है। साधारणतया लोग यही समझते हैं। इस रहस्य को कोई विरले ही समझते हैं कि इन 24 अक्षरों में पूरा धर्मशास्त्र, सम्पूर्ण योग साधनाएं एवं समस्त ज्ञान विद्वानों के बीज छिपे पड़े हैं। जप के अतिरिक्त इस महाशक्ति का मानव जीवन में क्या महत्व है, इस विस्तृत तत्व ज्ञान की जितनी वैज्ञानिक खोज और प्रयोगात्मक साधना आचार्य जी ने की है, यह कहा जा सकता है कि इस युग में और किसी ने नहीं की है। इन बातों पर विचार करते हुए मेरा हृदय बहुधा उल्लासित और उत्साहित होता रहता कि भारत भूमि में ऐसी आत्माओं का अभी अभाव नहीं है जो हमारे सर्वोपरि एवं प्राचीनतम तत्वज्ञान को पुनर्जीवित करने के लिये, प्रकाश में लाने के लिए, ऊँचा उठाने के लिए भागीरथ प्रयत्न कर रही है।

जुलाई में अखंड ज्योति का गायत्री अंक निकला, उसमें गायत्री की ओर श्रद्धा बढ़ाने वाली बड़ी अमूल्य सामग्री थी। उसी में एक लेख ऐसा था जिसमें बताया गया था कि-”मथुरा गायत्री की सिद्धि पीठ है। उस भूमि में अनेक ऋषियों ने गायत्री तप करके सिद्धि प्राप्त की है। आचार्य जी ने भी इन्हीं विशेषताओं के कारण उस क्षेत्र को अपना कार्य क्षेत्र बनाया है।”

इस बात को जानने वाले अनेक व्यक्ति मथुरा जाकर आचार्य जी के संरक्षण में गायत्री साधना करना चाहते हैं पर ठहरने की कोई व्यवस्था न होने से उन्हें मन मार कर वापिस लौटना पड़ता है। अखंड ज्योति प्रेस और आचार्य जी का निवास एक छोटे से घर में है, उसमें अन्य व्यक्यों को ठहरने की गुंजाइश नहीं। धर्मशाला वाले तीन दिन से अधिक ठहरने नहीं देते। मकान किराये पर मिलना सरकार की आज्ञा पर ही निर्भर है। इन कारणों से दसियों साधक हर महीने निराश होकर वापिस लौटते रहते हैं।”

उसी लेख के लेखक ने यह भी सुझाया था कि “मथुरा में एक गायत्री तपोभूमि की स्थापना होनी चाहिए। जहाँ गायत्री विद्यालय, प्रचार केन्द्र, अखंड जप, पुरश्चरण, यज्ञ, औषधालय, पुस्तकालय आदि का आयोजन रहे, ऐसा तीर्थ भारतवर्ष भर के गायत्री उपासकों का एक मात्र केन्द्र होने तथा अपनी उपयोगिता के कारण देश भर में प्रख्यात होगा और उससे अनेक आत्माएं शान्ति, उन्नति एवं सद्गति प्राप्त करेंगी”

उस सुझाव की आवश्यकता और उपयोगिता मुझे अत्यधिक प्रतीत हुई क्योंकि मथुरा जाकर मैं स्वयं यह भली प्रकार अनुभव कर चुका हूँ कि ऐसा आश्रय न होने के कारण कितनी भारी सार्वजनिक, धार्मिक क्षति हो रही है। इसमें दोष आचार्य जी का भी है कि वे इस सम्बन्ध में किसी को कभी कोई प्रेरणा नहीं देते और अपने शरीर से जितना हो सके उतना करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। मैं ऐसे स्थान की बड़ी भारी आवश्यकता अनुभव करता हूँ परन्तु विवशता यह है कि ईश्वर ने मुझे धनी नहीं बनाया अन्यथा यदि थोड़ी भी सुविधा मुझे होती तो मैं अकेला ही इस तीर्थ को बनवाने में अपना सौभाग्य मानता। अपनी साधारण आर्थिक स्थिति होते हुए भी “एक हजार एक रुपया 1001/- रु” इस लेख के साथ आचार्य जी के पास भेज रहा हूँ। मेरे परम मित्र भी रंगनाथ नाना जी वारडे ने भी 126/- रु दिये हैं। यह तुच्छ भेंट उपस्थित करते हुए हम लोग विवशता अनुभव करते हैं कि यदि सामर्थ्य रही होती तो इस मंदिर का श्रेय हमें ही मिला होता।

आज की मंहगाई बहुत अधिक है। दस वर्ष पर्व जो छोटा सा मकान ढाई तीन हजार का बन जाता था उसके लिए अब पन्द्रह बीस हजार चाहिए। विशाल मन्दिरों के लिए तो बहुत धन चाहिए। पर छोटा सा काम चलाऊ स्थान जहाँ साधकों की आवश्यकता पूरी हो सके, गायत्री का अखंड ज्योतिर्लिंग जहाँ निशदिन प्रज्वलित होता रहे, जहाँ अखंड गायत्री पुरश्चरण जारी रहे, प्रतिदिन यज्ञ होते रहे, गायत्री विद्या का अध्ययन जारी रहे, उसके लिए काम चलाऊ बहुत छोटा स्थान बनाने पर भी पन्द्रह बीस हजार रुपये सहज लग जायेंगे। धनी लोगों के लिए यह रकम बहुत छोटी है। कोई एक सम्पन्न व्यक्ति इतना कार्य अकेला कर सकता है या अपने कई साथियों को शामिल करके उसे पूरा करा सकता है। यह भी न हो सके तो मेरे जैसे मध्यम वर्ग के लोग अपनी सामर्थ्यानुसार थोड़ा थोड़ा देकर यह छोटी सी राशि जमा कर सकते हैं। जिनमें सामर्थ्य और श्रद्धा है, उनके सामने इस आवश्यकता को अच्छे प्रभावशाली ढंग से रखने का कार्य यदि कोई प्रतिभावान पुरुष करे तो स्वयं कुछ न देते हुए भी दूसरे सामर्थ्यवानों से इस कार्य को पूरा करा सकता है।

आज धार्मिक भावना की कमी नहीं है, धन की भी कमी नहीं है। कमी केवल दूरदर्शिता और सूक्ष्म दृष्टि की है। यदि हम समझ लें कि यह छोटा सा मन्दिर कितना महान कार्य सम्पन्न करेगा, इसके द्वारा कितनी धर्म वृद्धि होगी और उस धर्म वृद्धि में उसे बनवाने वाले को कितना अक्षय पुण्य मिलेगा, तो यह स्थान बनते देर न लगेगी। दिल्ली और मथुरा के “विडला मन्दिर” देश भर में प्रसिद्ध हैं क्योंकि वे अन्य मंदिरों की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं। यह गायत्री मंदिर छोटे स्थान में होते हुए भी, कम पूँजी का बने होते हुए भी, विडला मंदिरों से अधिक उपयोगी होगा। क्योंकि देश भर के गायत्री साधकों, तपस्वियों, श्रद्धालुओं एवं सिद्ध पुरुषों का यहाँ सदा ही सम्मेलन होता रहेगा। और नवरात्रियों में तो स्वभावतः यहाँ एक सतयुगी तपोभूमि के दृश्य दिखाई पड़ा करेंगे। ऐसे स्थान बनाने वाले की कीर्ति, एवं प्रशंसा का देश भर में विस्तार होगा, और उसे जो पुण्य लाभ होगा उसकी तुलना तो साधारण शुभ कर्मों से की ही नहीं जा सकती। ईश्वर की लीला विचित्र है। चंदन में सुगंध तो है पर सोने जैसी चमक नहीं। सोने में आभा तो है पर चन्दन जैसा सुगन्ध नहीं। काश, चन्दन सोने जैसा चमकता या सोने में चन्दन जैसी सुगंध होती तो कितना अच्छा होता। जिनके पास भावना है उसके पास धन नहीं, जिनके पास धन है उनके पास वह भावना और दूरदर्शिता नहीं दिखाई देती कि ऐसी उपयोगी आवश्यकता को पूर्ण करने में अपनी कमाई को धन्य बनावें।

मैंने एक हजार रुपये की छोटी सी रकम इस शुभ कार्य के लिए अर्पण की है यह धन थोड़ा सा ही है इतने में तो भूमि भी नहीं खरीदी जा सकती, फिर भी यह तुच्छ भेंट उन लोगों के लिए एक चुनौती है जिन्हें ईश्वर ने धन, दूरदर्शिता, भावना, सद्बुद्धि, और प्रतिभा प्रदान की है। मैं स्वल्प साधन सम्पन्न इतना करता हूँ तो क्या वे लोग जो अनेकों बातों में मुझसे बढ़े चढ़े हैं, इस पुण्य कार्य को पूरा करने में अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग न करेंगे?

यह निश्चित है कि यह पुण्य स्थल बन कर रहेगा। माता ऐसे आवश्यक कार्य को कदापि अपूर्ण न रहने देगी। अब केवल यही देखना शेष है कि इसका श्रेय किन सौभाग्यशाली सज्जनों को माता प्रदान करती है।

मन्दिर तो तपश्चर्या और साधना का पवित्र स्थान रहेगा। उसमें ठहरने पर मल, मूत्र, थूक, झूठन आदि की अपवित्रता फैलाना उचित नहीं इसलिए उसके समीप ही साधकों के ठहरने के लिए अलग से छोटे छोटे कुटीर होने चाहिए। ऐसे कुटीर लगभग पाँच पाँच सौ की लागत में बन सकते हैं। अपने नाम से, अपने स्मारक स्वरूप एक एक कुटीर तो बहुत साधारण स्थिति के व्यक्ति भी बनवा सकते हैं। उनमें ठहरने वालों के पुण्य का श्रेय उस बनाने वाले को भी मिलेगा।


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