मन से हर एक को सदैव अपरिग्रही होना चाहिए। आदर्श यही सामने रहना चाहिए कि सच्ची जरूरतें पूरी करने के लिए ही कमायें, जोड़ने जमा करने या ऐश उड़ाने के लिए नहीं। यदि गरीब आदमी लखपती बनने के मनसूबे बाँधता है तो वह परिग्रही है। धन वैभव के बारे में यही आदर्श निश्चित किया होना चाहिए कि सच्ची जरूरतों की पूर्ति के लिए कमायेंगे, उतनी ही इच्छा करेंगे, उससे अधिक संग्रह न करेंगे। धन को जीवन का उद्देश्य नहीं वरन् एक साधन बनाना चाहिए। “आत्मोन्नति और परमार्थ” जीवनोद्देश्य तो यही होना चाहिए। जीवन धारण करने योग्य पैसा कमाने के अतिरिक्त शेष समय इन्हीं कार्यों में लगाना चाहिए। पैसे की आज जो सर्वभक्षी तृष्णा हर एक के मन में दावानल की तरह धधक रही है यह सर्वथा त्याज्य है। सादगी और अपरिग्रह में सच्चा आनन्द है। मनुष्य उतना ही आनन्दित रह सकता है जितना अपरिग्रही होगा। परिग्रही के सिर पर तो अशान्ति और अनीति सवार रहती है। इसी मर्म को समझते हुए योग शास्त्र के आचार्यों ने आध्यात्म पथ के पथिक को अपरिग्रही बनने का आदेश किया है।
‘कर्मयोग-गुरुकुल’ की स्थापना का हर्ष समाचार
यह प्रयत्न मानव जीवन का कायाकल्प कर सकता है।