स्वर-विज्ञान

February 1944

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(राजकुमार श्री हरभगतसिंह जी, भण्डार -स्टेट)

हमारी भाषा, संसार की समस्त भाषाओं में अपना विशेष ऊंचा एवं महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लिखने और पढ़ने में कोई जरा सी भी गड़बड़ी न पड़ना ऐसी विशेषता है जो अन्य किसी भाषा में नहीं है। खोज करने पर और भी अनेक असाधारण विशेषताएं प्रकट होती जाती हैं। हमारे पूर्वजों ने वर्णमाला की रचना इस प्रकार की है जिससे पढ़ाई के साथ-साथ शारीरिक एवं मानसिक उन्नति भी होती है। नीचे की पंक्तियों में यह बताने का प्रयास किया गया है कि स्वरों के उच्चारण से भीतरी अंगों में क्या प्रतिक्रिया होती है और उसका शरीर एवं मन पर क्या प्रभाव पड़ता है! विज्ञान पाठक इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे तो वे इस निश्चय पर पहुँचेंगे कि हिन्दी भाषा का पढ़ना न केवल अपनी साँस्कृतिक उन्नति करना है वरन् शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को भी सुधारना है।

‘अ’ का उच्चारण कंठ द्वारा होने से हृदय पर प्रभाव पड़ता है जितनी बार ‘अ’ का उच्चारण किया जाएगा, उतनी ही बार हृदय का संचालन शीघ्रता के साथ होगा। शरीर में रुधिर की शुद्ध अशुद्ध की क्रिया हृदय में ही होती है “अ” स्वर प्रत्येक अक्षर में वर्तमान है, यह हृदय को संचालित और तीव्र करता है तथा बलवान बनाता है। शरीर में शुद्ध रक्त संचार करता है। मंत्र शास्त्र में “अ” स्वर रचनात्मक शक्ति संपन्न माना गया है।

“आ” स्वर के उच्चारण से फेफड़ों के ऊपरी भाग तथा सीने पर प्रभाव पड़ता है। यह ऊपर की तीन पसलियों को बलवान बनाता है। भोजन ले जाने वाली नली को शुद्ध दिमाग को संचालित आलस्य को दूर तथा फेफड़ों को उत्तेजित करके उनके ऊपरी भाग को शुद्ध करता है, इसके अभ्यास से दमा और खाँसी के रोग अच्छे होते हैं, इस स्वर का अभ्यास उन लोगों को अवश्य करना चाहिए जिन्हें क्षयी रोग होने की संभावना हो।

‘इ-ई’ लंबे उच्चारण का प्रभाव गले तथा मस्तिष्क पर पड़ता है, इसके उच्चारण से गले, तालू, नाक और दिल के ऊपरी भाग की क्रिया विशेष रूप से उत्तेजित होती है स्वासेन्द्रिय का कफ, बलगम एवं आंतों में जमा हुआ मल निकलकर इन अंगों की सफाई होती है, इसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है और सिर दर्द तथा दिल के रोगों के लाभदायक है। ऐसे लोगों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है, जो उदास वृत्ति और क्रोधी स्वभाव के हैं।

“उ-ऊ” का प्रभाव जिगर, पेट और अन्तड़ियों पर पड़ता है और पेडू को कम करता है। जो स्त्रियाँ सदा पेडू के निम्न भाग के रोग से पीड़ित रहती हैं, उन्हें ‘उ-ऊ’ के उच्चारणों से बड़ा लाभ होगा। कितने ही दिनों का कठिन कब्ज क्यों न हो, इसके द्वारा दूर हो सकता है। यह स्त्रियों की कोख के लिये भी बहुत उपयोगी है।

“ए-ऐ” के उच्चारण का प्रभाव गले और श्वांस-नलिका के उद्भव स्थान पर पड़ता है और गुर्दे को उत्तेजित करता है, इसका बार बार उच्चारण मूत्र सम्बन्धी यावत् रोगों को दूर करने तथा पेशाब उतारने की औषधि का काम करता है। इस स्वर के प्रयोग का लाभ विशेष रूप से गाने वाली अध्यापकों तथा देर तक बोलने वालों को होता है और नलियों के अन्दर की तिल्ली को स्वस्थ बनाता है।

“ओ-औ” का प्रयोग उपस्थेन्द्रिय और जननेन्द्रिय पर होता है और उसको स्वाभाविक रूप से काम करने में सहायता देता है। जब इसके उच्चारण का अच्छा अभ्यास हो जाता है तब यह अनुभव होता है कि जो आँतें तथा नसें सुस्त थी वह खुलकर स्वाभाविक कार्य करने लगी हैं, यह सीने के मध्य भाग को उत्तेजित करता है। निमोनिया तथा प्लुरेसी के लिये बहुत लाभदायक हैं।

‘य’ के उच्चारण से नासिका की शुद्धि होती है। नासिका द्वारा ली हुई साँस के साथ जो प्राण वायु शरीर के भीतर जाता है वह दूषित रुधिर को शुद्ध तथा लाल बनाता है। नासिका द्वारा श्वांस लेने में नासिका और श्वांस नलिका काम में आती है। इसलिए इन अंगों का विकार रहित रहना आवश्यक है और इसी अभिप्राय से हमारे महर्षियों ने प्रत्येक बीज मंत्र के अन्त में ‘म’ तथा अनुस्वार को रखा है तथा उसका देर तक लम्बा उच्चारण करना बतलाया है। स्वरों के उच्चारण से मुँह खुलता है, और अनुस्वार या ‘म’ के उच्चारण से ओष्ठ बन्द हो जाते हैं मानो प्रथम स्वरों के उच्चारण द्वारा शरीर के समस्त विकारों को दूर कर ‘म’ द्वारा ओष्ठ रूपी किवाड़ बन्द कर लिये जाते है जिसके वह विकार पुनः प्रविष्ट न हो सके।

‘अः’ का उच्चारण जिह्वा तथा तालू के अग्र भाग को छूता है जिसका प्रभाव यह होता है, कि मस्तिष्क में संचालन उत्पन्न होने से एक प्रकार का रस स्रवित होता हैं जो कि कंठ द्वारा भीतर जाकर शरीर के सब विकार दूर करता है सीने और गले में उत्तेजना होती है और वह सबल और पुष्ट बनते हैं।

इस प्रकार यह स्वर शरीर के हृदयादिक मुख्य अंगों को संचालित और उत्तेजित तथा रुधिर को शुद्ध कर समस्त विकारों को दूर कर देते हैं। जब सब अंग और इन्द्रियाँ स्वस्थ रुधिर के तीव्र संचार के कारण अपना अपना काम स्वाभाविक रूप से करने लग जाती हैं तब यह केवल बाह्य रूप से रूप स्वरूप आकार-प्रकार तथा बल में ही उन्नति को प्राप्त नहीं होती, बल्कि आन्तरिक गुणों में सहिष्णुता तथा रोग नाशक शक्ति में भी उन्नति करती हैं और साथ-साथ आध्यात्मिक विषय में भी प्रवृत्ति होती है।


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