अभियाचन

February 1944

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(रचियता- श्री जनार्दन पाँडेय शास्त्री)

हे भगवान! महान बनूँ मैं।

दुःख आकर मुझ से टकरावें।

गिर कर चूर-चूर हो जावें॥

अविचल अटल रहूँ दृढ़ होकर-

प्रभु ऐसा चट्टान बनूँ मैं।

हे भगवान! महान बनूँ मैं ॥1॥

उन्नत हो नभ में लहराऊं।

मानव के जग में फहराऊं॥

शुचिता अरु मानवता का-

ऐसा अमिट निशान बनूँ मैं॥

हे भगवान! महान बनूँ मैं ॥ 2॥

जगमग ज्योति-अखण्ड जगा लूँ।

भूले पथ के पथिक बुला लूँ॥

हो जाऊं मार्ग-दर्शक जग का-

ऋषियों की सन्तान बनूँ मैं।

हे भगवान! महान बनूँ मैं ॥3॥

मैं सत्य सुधा का पान करूं।

मैं प्रेमी बन सम्मान करूं॥

मैं न्यायी न्याय विधान करूं-

फिर जीवन का अभिमान बनूँ मैं।

हे भगवान! महान बनूँ मैं ॥4॥

तेरी करुणा का ध्यान करूं।

प्रतिक्षण तेरा आह्वान करूं॥

हो जाऊं तन्मय तुझ में-तब-

तेरे कर का वरदान बनूँ मैं।

हे भगवान! महान बनूँ मैं ॥5॥


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