आत्मशक्ति का उचित उपयोग

February 1944

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एकाग्रता में दिव्य शक्तियों के भण्डार भरे हुए हैं। साँसारिक जीवन में मन की शक्ति से बड़े बड़े अद्भुत कर्मों को मनुष्य पूरा करता है। इसी मनः शक्ति को जब बाहर से समेट कर अन्तर्मुखी किया जाता है और असाधारण कठिन परिश्रम द्वारा इसको सुव्यवस्थित रूप से आत्म-साधना में लगाया जाता है तो और भी अद्भुत, आश्चर्यजनक, परिणाम उपस्थित होते हैं, जिन्हें ऋद्धि सिद्धि के नाम से पुकारते हैं। निःसंदेह आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप कुछ ऐसी विशेष योग्यताएं प्राप्त होती हैं जो सर्व साधारण में नहीं देखी जाती। यदि इस प्रकार का विशेष लाभ न होता तो मनुष्य प्राणी जो स्वभावतः वैभव और आनन्द की तलाश करता रहता है। इन्द्रिय भोग को त्याग कर योग की कठोर साधनाओं की ओर आकर्षित न होता। रूखी, नीरस, कठोर, अरुचिकर कष्ट साध्य, साधनाएं करने को कोई कदापि तैयार न होता यदि उसके फल स्वरूप कोई ऊंचे दर्जे की वस्तु प्राप्त न होती।

मूर्ख, अपढ़, नशेबाज, हरामी और अधपगले भिखमंगों के लिए यह कहा जा सकता है कि यह लोग बिना मेहनत पेट भरने के लिए जटा रखाये फिरते हैं। परन्तु सब के लिये ऐसा नहीं कहा जा सकता। विद्या, वैभव, बुद्धि, प्रतिभा और योग्यताओं से सम्पन्न व्यक्ति जब विवेकपूर्वक साँसारिक भोग विलास से विरत होकर आत्म साधना में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं तो उसमें कुछ विशेष लाभ होना ही साबित होता है। प्राचीन काल में जितने भी तपस्वी हुए हैं और आज भी जो सच्चे तपस्वी हैं वे विवेक प्रेरित होकर इस मार्ग में आते हैं। उनकी व्यापार बुद्धि ने गंभीरतापूर्वक निर्णय किया है कि भोग की अपेक्षा आत्म साधना में अधिक लाभ है। लाभ का लोभ ही उन्हें स्थूल वस्तुओं में रस लेने की अपेक्षा सूक्ष्म संपदाओं का संचय करने की ओर ले जाता है।

जो लोग सच्ची लगन और निष्ठा के साथ आध्यात्मिक साधना में प्रवृत्त हैं उनका उत्पादन कार्य अच्छी फसल उत्पन्न करता है। उनमें एक खास तौर की शक्ति बढ़ती है जिसे आत्मबल कहते है। यह बल साँसारिक अन्य बातों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। प्राचीन काल में राजा विश्वामित्र की समस्त सेना और संपदा, तपस्वी वशिष्ठ के आत्मबल के सामने पराजित हो गई तो “धिक्बलं क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलं बलम्।” कहते हुए विश्वामित्र राजपाट छोड़कर आत्म साधना के मार्ग पर चल पड़े। राजा की अपेक्षा ऋषि को उन्होंने अधिक बलवान पाया। साँसारिक बल की अपेक्षा आत्मबल को उन्होंने महान अनुभव किया। छोटी चीज को छोड़कर लोग बड़ी की ओर बढ़ते हैं। राज त्याग कर विश्वामित्र का योगी होना इसका ज्वलंत प्रमाण है। गौतम बुद्ध का चरित्र भी इसी की पुष्टि करता है। जो आत्म साधना में लीन हैं वे ऊंचे दर्जे के व्यापारी हैं। छोटा रोजगार छोड़ करके बड़ी कमाई में लगे हुए हैं। यह कमाई पूर्णतः प्रत्यक्ष है यदि वह लाभ सच्चा और ऊंचा न होता तो एक भी विवेकवान व्यक्ति उस झंझट भरे, कठिन मार्ग में प्रवृत्त न होता।

अणिमा लघिमा आदि सिद्धियों का पातंजलि योग दर्शन में वर्णन है। तान्त्रिक साधनाओं द्वारा “मारण” -आत्मविद्युत के प्रहार से किसी को मार डालना, “मोहन”-बुद्धि का मोहित करके इच्छानुसार कार्य कराना, “उच्चाटन”-किसी स्थान कार्य या व्यक्ति से मन उचटा देना, द्वेष करा देना, “वशीकरण” - वश में कर लेना आज्ञानुवर्ती बना लेना, “आकर्षण”- किसी को आकर्षित करना, “स्तम्भन”- किसी कार्य की अधूरी अवस्था में छुड़ा देना, रोक देना, जरूरत उत्पन्न कर देना, आदि भयंकर सफलताएं मिलती हैं। देवी देवता तथा प्रेत पिशाचों की सहायता भी किन्हीं को प्राप्त होती है। इन सब योग्यताओं द्वारा दूसरे व्यक्ति को भौतिक वस्तुओं का हानि लाभ भी पहुँचाया जाता है। अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन करके चमत्कार दिखाने पूजा और कीर्ति भी प्राप्त की जाती है। बदले में धन और भोग लिए जाते हैं। यह सब होता है या हो सकता है, परन्तु याद रखना चाहिए कि यह निषिद्ध मार्ग हैं। इस क्षण कुछ लाभ भले ही मालूम पड़े पर अन्त में इसका परिणाम अत्यन्त घातक, भयंकर और करने कराने वाले दोनों के लिए दुःखदायक होता है। इस खतरे से हर एक आत्म साधक को सावधान रहना चाहिए।

विगत अंक में मैस्मरेजम की साधना का एक आरंभिक अंग प्रकाशित किया गया है। सर्व साधारण के सम्मुख जितना प्रकट किया जा सकता है उतना ही उसमें छप गया है। वह आरंभिक अभ्यास है। विभिन्न मार्गों से साधक गहरी आत्म साधना में जब प्रवेश करता है तो उसे असाधारण लाभ और बलों का अपने अंदर बोध होता है उसकी योग्यताएँ दिन दिन निखरती आती हैं। खतरे का यही समय है। यदि उन शक्तियों का उपयोग ठीक न हुआ तो वैसा ही अनिष्ट उत्पन्न होता है जैसा कि मूर्ख बालक दियासलाई की डिब्बी हाथ में लेकर भयंकर अग्निकाण्ड उपस्थित कर सकता है। योग शास्त्र में स्थान स्थान पर ऋषि सिद्धियों के प्रलोभन में न फंसने का कठोर आदेश है। कारण यह है कि यदि साधक चमत्कार दिखाने में लग गया तो वाहवाही के लोभ तथा शक्तिमत्ता के अभिमान में नष्ट भ्रष्ट होकर नष्ट हो जाएगा।

ईश्वर की सृष्टि में सब कार्य सुव्यवस्था पूर्वक चल रहे हैं। कर्म का चक्र ठीक प्रकार से चल रहा है। बोओ और काटो, की अविचल नीति इस सृष्टि से संचालित है। यदि उसमें विघ्न उपस्थित किया जाए तो यह ईश्वरीय शासन में विद्रोह है। ‘परिश्रम करो और धन कमाओ’। “जितना कमाओ उससे कम खर्च करो”। इन दो सत्य सिद्धों पर जो आरुढ़ है उसे धन के अभाव का कष्ट नहीं हो सकता। किन्तु बहुत से लोग चाहते हैं कि परिश्रम न हो और लाभ बहुत अधिक हो, खर्च मनमाने बढ़ावें और उनको पूरा करने के लिए अंधाधुन्ध रुपया पावें। ऐसे लोग जुआ, दड़ा, सट्टा, फीचर, लाटरी, गड़ा धन, आदि की फिक्र में रहते हैं और ऐसी ही इच्छाओं से प्रेरित होकर योगियों के आस-पास चक्कर काटते हैं। उन्हें तरह-तरह से फुसला कर अपना मतलब गाँठना चाहते हैं। यदि कोई मूर्ख साधक इनके बहकावे में आकर अपनी आत्म शक्ति इधर लगाता है तो वह भारी अनर्थ करता है। बिना परिश्रम के आया हुआ धन अनाचार, पाप और पतन का ही कारण बनेगा। बीस उंगलियों की कमाई से ही मनुष्य का चरित्र ठीक रह सकता है। यदि मुफ्त का माल मिले तो उसका चरित्र और प्रयत्न गिर जाएगा। जिस योगी ने किसी को इस प्रकार धन दिलाया उसने उसको नीचे गिराया उसके साथ में भारी पापपूर्ण अनाचार किया। आरोग्य, धन, पद, कीर्ति, विद्या, आदि संपदायें मनुष्य अपने बाहुबल से प्राप्त कर सकता है। भौतिक संपदाओं के बढ़ाने में आत्म शक्ति जैसे उच्च तत्व का व्यय न करना चाहिए। किसी को आधपाव चने दिलाने हों तो उसको दो पैसे दे देना पर्याप्त है रक्त दान देने की क्या जरूरत ? जिसके प्राणों पर बन रही हो उसके लिए अपने शरीर का रक्त भी दिया जा सकता है। पैसे के जरूरतमंद को पैसे से, बीमार को दवा दारु से, भूखे को भोजन से, सहायता की जा सकती है इसके लिए आत्म शक्ति का खर्च करना उचित नहीं। शरीर की सहायता के लिए शरीर से या उसके द्वारा उपजाई हुई संपदा दी जा सकती है। आत्म बल का उसमें प्रयोग करना निष्प्रयोजन है।

आत्म शक्ति अपने दुर्गुणों को हटाने और सात्विकता की ओर बढ़ाने में, ईश्वर के प्राप्त होने में, उपयोग होनी चाहिए। दूसरों के मानसिक परिवर्तन में उसका उपयोग किया जा सकता है। यही उचित भी है। “शक्तिपात” की प्रथा पुरानी है। प्राचीन काल में सद्गुरु अपने शिष्यों पर ‘शक्तिपात’ किया करते थे। गोविन्द से गुरु को बड़ा बताया गया है। इतना महत्व इसलिए दिया गया है कि गुरु अपनी निजी कमाई को शिष्य के अंदर इस प्रकार प्रवेश कर देता था कि अज्ञात रूप से उसका मानसिक परिवर्तन हो जाता था। शिष्य का सारा मानसिक तंत्र एक भारी झटके के कारण चलायमान हो जाता था उसमें एक कँपकँपी-हलचल मच जाती थी। सारा मानसिक तंत्र उलट पलट हो जाता था। दीक्षा का यही असली तात्पर्य था।

दूसरों पर आत्म शक्ति के उपयोग करने का उचित मार्ग यही है। जिन्हें आत्मबल प्राप्त है उन्हें दूसरों की सेवा करने के लिए वह करना चाहिए जिससे अन्य व्यक्तियों की आन्तरिक प्रगति में परिवर्तन उपस्थित हो जाए। भ्रान्त और अशुद्ध मार्ग का परित्याग करने और सद्मार्ग को अपनाने की इच्छा और आकाँक्षा जागृत हो जावे। यह इच्छा आकाँक्षा जितनी दृढ़ एवं श्रद्धान्वित होगी उतनी वह अधिक उन्नति करेगा। इसलिए शक्तिपात द्वारा सत्य को प्राप्त करने की तीव्र लालसा सद्गुरु अपने शिष्यों में जागृत किया करते हैं। एक मनुष्य जो दूसरे को दे सकता है उन सब में यही दान सबसे बड़ा है। सद्गुरु अपने शिष्य को यही चीज दे डालता है इसलिए उसका दर्जा सब से ऊंचा-गोविन्द की बराबर-माना गया है।

मैस्मरेजम की आरम्भिक सीढ़ी पर चढ़ने के पश्चात् अथवा अन्य प्रकार की साधनाओं के पश्चात् जिन्हें कुछ आत्मबल प्राप्त हो, उनके लिए हमारी शास्त्र सम्मत सलाह है कि उस शक्ति को वाहवाही लूटने में किसी को भौतिक वस्तुएं दिलाने में खर्च न करें। वाहवाही लूटने में इस कष्ट साध्य शक्ति का व्यय करना ऐसा है जैसा नोट जला कर आग तापना। भौतिक वस्तुएं तो पुरुषार्थ से कमाई जाती हैं। वस्तुओं का अभाव होने पर मनुष्य अधिक पुरुषार्थ और जागरुकता सीखता है, यदि मुफ्त का माल मिले तो उसकी आत्मिक प्रगति रुक जाती है इसलिये इस झंझट में भी नहीं पड़ना चाहिए। अभाव ग्रस्तों को पुरुषार्थ के लिए उत्साहित करना चाहिए और भौतिक वस्तुओं से सहायता करनी-करानी चाहिए। आत्म शक्ति का दूसरों के लिए एक मात्र उपयोग यही है कि उन्हें पाप के, पतन के, अकर्मण्यता के, मार्ग से हटाकर सत्मार्ग की आकुलता उत्पन्न करानी चाहिए। अनुयायियों को हमारी यही सलाह है कि वे मैस्मरेजम अथवा अन्य मार्गों से जो शक्ति उत्पन्न करें उसे आत्म कल्याण में तथा दूसरों को ठीक रास्ते पर लाने में खर्च करें। अन्य दिशा में एक भी कदम न उठाएं।


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