युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन

संगठन के सन्दर्भ में

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यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि युवा संगठन भी युग निर्माण परिवार के ही अंग हैं। संगोष्ठी की मूल इकाइयाँ प्रज्ञा मण्डल, महिला मण्डल आदि हैं। ‘संगठन रीति- नीति’ में जिन अनुशासनों मर्यादाओं का उल्लेख है, वे ही युवा मण्डलों एवं युवा सदस्यों पर लागू होती हैं। आन्दोलन समूहों में चूँकि अनेक अन्य संगठनों- संस्थानों के सदस्य भी शामिल होते हैं, इसलिए ‘दिया’ जैसे आन्दोलनों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार अपनी मर्यादाओं की सीमा में रूप दिया जा सकता है।

आचार्य विनोबा भावे जी और दादा धर्माधिकारी के विचार भी युग निर्माण आन्दोलन के अनुरूप ही रहे हैं। इसलिए ‘राष्ट्रीय युवक संघ’ के सम्बन्ध में उन्होंने जो मर्यादाएँ बनाई- सुझाई हैं, वे भी हम सबके लिए प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकती हैं। युवा संगठन के लिए उन्होंने जो बंधन- पथ्य बताये हैं, संक्षेप में वे इस प्रकार हैं -

- १. संगठन सत्तानिष्ठ और दण्डनिष्ठ न होः- संगठन यदि पारिवारिक आधार पर बनाए, चलाए जायें, तो उनमें इन मर्यादाओं का पालन सहज ही हो सकता है।

२. वे व्यक्तिनिष्ठ एवं घटनानिष्ठ भी न हों यह बात सही है कि हर संगठन के पीछे किन्हीं श्रेष्ठ व्यक्तियों की छवि और प्रेरणा काम करती है। संगठन को उन श्रेष्ठ व्यक्तियों के आदर्शों के प्रति निष्ठावान् होना चाहिए, न कि व्यक्तियों के। सभी आदर्श व्यक्ति स्वयं भी ऐसा ही चाहते भी रहे हैं। व्यक्तिनिष्ठ संस्थाओं में प्रारम्भ में भले ही तत्काल कुछ बेहतर प्रगति दिखे, किंतु कालांतर में उनमें तमाम अवाञ्छनीय दोष पनपने लगते हैं।

इसी प्रकार हर घटना से अनुभव मिलते हैं। उनके हवाले से प्रगति की समीक्षा की जा सकती है। किन्तु व्यक्ति की तरह हर घटना की भी सीमाएँ होती हैं। इसलिए उन पर जरूरत से ज्यादा बल नहीं देना चाहिए। भारतीय संस्कृति के सनातन होने के पीछे उसमें उक्त दोनों विशेषताओं का सहज समावेश होना भी है। अवतारों, इतिहास पुरुषों से सब प्रेरणा लेते हैं, किंतु किसी एक पर उसका आधार टिका नहीं है। इसी प्रकार रामायण, महाभारत, शंकर दिग्विजय, जैन एवं बुद्ध के आन्दोलन जैसी घटनाओं से प्रेरणा सभी लेते हैं, किन्तु किसी एक को जरूरत से ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता।

३. विवाद टाले जायें, व्यक्तिगत प्रसिद्धि का आकर्षण न हो, आत्म- समर्थन के प्रयास न किए जायें। हर व्यक्ति के सोचने का, करने का ढंग अलग- अलग होता है। उनमें समन्वय- संतुलन से ही संगठन का स्वरूप निखरता है और शक्ति- सामर्थ्य बढ़ती है। ‘सलाह लो- सम्मान दो’ की प्रवृत्ति होने से विवाद सहज ही टलते रहते हैं। युगऋषि कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को महत्त्व देगा, वह संगठन की प्रतिष्ठा को कम करेगा। आत्म- समर्थन के नशे में आदर्शों की उपेक्षा या उन्हें तोड़- मरोड़ कर पेश करने की प्रवृत्ति भड़कती है। इन विसंगतियों से बचे रहने में ही भलाई है।

४. आचरण को क्रान्ति एवं आचार- व्यवहार का साधन माना जाय इस सूत्र की अनदेखी होने से सिद्धान्तों को रटकर उनका बखान करने वाले‘पर उपदेश कुशल’ व्यक्तियों को महत्त्व मिलने लगता है तथा आचार निष्ठा की उपेक्षा से तरह- तरह के भटकाव आने लगते हैं।

५.सत्ता की राजनीति से दूर रहा जाय सत्ता अथवा पद पाने की प्रवृत्ति ही लोकेषणा कहलाती है। इसी के नाते अहंकार बढ़ते और टकराते रहते हैं। कौरव सेना में यह दोष था, इसलिए महानतम योद्धाओं के एकजुट होने का लाभ उन्हें नहीं मिल सका। पाण्डव सेना इस दोष से मुक्त थी। सेनानायक के पद पर भले ही कोई भी बना रहे, सब अपनी- अपनी विशेषताओं, समय की जरूरतों के अनुसार ही आगे आते या लाये जाते रहे। इसलिए शक्ति एवं संख्या में कम होते हुए भी वे अजेय रहे। युगऋषि ने ‘लोकसेवियों के लिए दिशाबोध’ पुस्तिका में इन सभी और ऐसी ही अन्य मर्यादाओं का बहुत अच्छा खुलासा किया है। युवा संगठनों को उसका अध्ययन एवं अनुगमन करना चाहिए।

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