युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन

चाहिए जीवन समग्र दृष्टि

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युवाओं के लिए आज वैसा वातावरण कहाँ से लायें? इस प्रश्न का समाधान बहुत कठिन नहीं है। आज संचार संसाधनों (इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी) के संतुलित उपयोग से कहीं भी इच्छित वातावरण बनाना संभव है।

समाधान क्या? युवाओं को जीवन को आध्यात्मिक अनुशासनों से जोड़ा जाना चाहिए, यह बात स्वीकार कर लेने पर उसे लागू करने के मार्ग में कठिनाइयाँ अनुभव होने लगती हैं। कई प्रश्न उठते हैं। क- पहल कौन करे? ख- प्रेरणा कहाँ से मिले, ग- परिस्थितियाँ अनुकूल कैसे बनें? आदि।

क- पहल- समझदार अभिभावकों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। शिक्षक गण भी इस क्रम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। संवेदनशील लोकसेवी कार्यकर्त्ताओं- संगठनों को इस कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिए। वे युवाओं के प्रौढ़ मित्र, बुजुर्ग दोस्त बनकर प्रयास करें, तो बहुत अच्छे परिणाम पाये जा सकते हैं।

ख- प्रेरणा के अभाव की बात तो एक तरह से बहानेबाज़ी है। धार्मिक, आध्यात्मिक संगठनों संस्थानों की संख्या पर्याप्त है। स्वामी विवेकानन्द, योगी श्री अरविन्द, संत विनोबा, युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य आदि द्वारा विकसित मार्गदर्शक साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। फिर आजकल तो संचार तकनीक (इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी) के संतुलित उपयोग से भी प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पाने के अनेक स्रोत खोले जा सकते हैं? जब गाँधी जी हरिश्चन्द्र के नाटक से ही पर्याप्त प्रेरणा ले सकते हैं तो आज के युवाओं के लिए इस दिशा में विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

ग- परिस्थितियों की अनुकूलता की शिकायत दुर्बल मनोभूमि वाले लोग ही किया करते हैं? बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर, मीरा, लक्ष्मीबाई से लेकर स्वतंत्रता संग्राम के सत्याग्रहियों, क्रान्तिकारियों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में ही अपनी प्रखर मनोभूमि के आधार पर राहें बनाई और कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इसलिए वर्तमान समय में युवाओं को आध्यात्मिक अनुशासनों को जाग्रत् करने में विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

अध्यात्म कितना? प्रश्न उठता है, युवा पीढ़ी को कितने और कैसे अध्यात्म की जरूरत है? वे आध्यात्मिक साधनाओं में लग जायें, तो उनके कैरियर का क्या होगा? उनके सांसारिक जीवन क्रम के उत्तरदायित्वों का, व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं का क्या होगा?

इसका उत्तर सहज है। इस प्रकार के संदेह इसलिए उभरते हैं कि जीवन की समग्रता की दृष्टि तथा व्यावहारिक अध्यात्म का स्वरूप साफ नहीं है। इस बात को कुछ लौकिक उदाहरणों से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए खेल या संगीत को लें-

कुछ खिलाड़ी या संगीत- साधक ऐसे होते हैं, जो उन्हें अपने जीवन का मुख्य कैरियर बना लेते हैं। उन्हें खेल या संगीत के लिए अपना अधिकांश समय, शक्ति, साधन लगाने पड़ते हैं। इससे कम में उनका काम नहीं चलता। ऐसे व्यक्ति या साधक बहुत थोड़े होते हैं। उन तक ही खेल या संगीत सीमित नहीं रहता। बड़ी संख्या में आम जीवन जीने वाले नर- नारी अपने स्वास्थ्य संतुलन, मनोरंजन एवं मन की शांति के अपनी आवश्यकता एवं रुचि के अनुसार खेल या संगीत को अपनाते हैं। इससे उनके लौकिक जीवन की कार्य क्षमता घटती नहीं, बढ़ती ही है।

इसी प्रकार कुछ साधक ऐसे होते हैं, जो अध्यात्म को ही कैरियर बना लेते हैं। वे उस क्षेत्र के विशेषज्ञ भले कहे जाते हैं, किन्तु अध्यात्म उन्हीं तक सीमित नहीं रहता। सामान्य सांसारिक जिम्मेदारियाँ सँभालने वाले नर- नारी भी अपने जीवन में उत्कृष्टता, संतुलन लाने के लिए अपनी- अपनी आवश्यकता एवं रुचि के अनुरूप अध्यात्म का उपयोग करते हैं। उन्हें गुफा या आरण्यक- आश्रमों वाला अध्यात्म नहीं, गृहस्थाश्रम वाले अध्यात्म की जरूरत होती है। उसके संयोग से उनकी कार्यक्षमता घटती नहीं, बढ़ती ही है। उन्हें लौकिक कौशल के साथ जीवन में संतोष, शांति के समावेश का कौशल भी मिलता है।

युवा वर्ग को इसी व्यावहारिक अध्यात्म की जरूरत है। उसकी इतनी मात्रा तो चाहिए ही, जो उनके अंदर मानवीय या दैवी क्षमताओं को उभार सके, उनकी जाग्रत् या संचित शक्तियों को भटकाव से रोककर उन्हें सही उद्देश्यों में लगा सके। वे लौकिक सम्पन्नता एवं समृद्धि के साथ आन्तरिक शान्ति, संतोष एवं आनन्द का भी लाभ प्राप्त कर सकें। युगऋषि ने उसके लिए बड़े सहज तथा व्यावहारिक सूत्र सुझाये हैं। उन्हें प्रतिदिन घण्टे- दो घण्टे समय तथा थोड़े से संसाधन लगाकर अपनाया और साधा जा सकता है। उनके प्रभाव से शक्तियों को आतंक, व्यसन तथा कुचक्रों में भटकने से रोककर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए हितकारी धाराओं में नियोजित किया जा सकता है।

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