युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन

युवा पराक्रम की दिशाधारा

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युगऋषि ने शक्तिपीठों की स्थापना शुरू करने के साथ ही (१९८० के दशक में) युग निर्माण परिवार के पुनर्गठन के लिए भी मार्गदर्शन दिया था। इसी क्रम में उन्होंने युवा संगठन की जरूरत बताते हुए उसे ‘युगनिर्माता संसद का नाम देते हुए एक आलेख लिखा था। दिशाबद्ध और गतिशील बनाने के लिए शुरू किये गये प्रयास की कड़ी के रूप में ‘प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप और कार्यक्रम’ पुस्तक का वह आलेख यहाँ दिया जा रहा है।

उठती उम्र के तकाजे- उठती उम्र अपने साथ सौंदर्य, आशा, उमंग, जोश, उत्साह ही लेकर नहीं आती, मनुष्य के भाग्य व भविष्य का निर्माण भी इन्हीं दिनों होता है। गीली मिट्टी से ही खिलौने बनते हैं। लकड़ी को मोड़ने की स्थिति उसके गीले रहने तक ही बनती है। सूखी मिट्टी, पकी लकड़ी तो जैसी की तैसी ही बनी रहती है। किशोरावस्था और नव यौवन के दिन ही ऐसे हैं, जिनमें व्यक्तित्व उभरता- ढलता भी है। कुसंग से इन्हीं दिनों बर्बादी होती है। सुसंग से व्यक्ति श्रेष्ठ, सुसंस्कारी बनते हैं। लड़के हों या लड़कियाँ, इन दिनों विशेष संरक्षण की अपेक्षा रखते हैं। अनुशासन पालनार्थ उन्हें इन्हीं दिनों विशेष रूप से सहमत करना पड़ता है।

उपेक्षा अभिभावकों की ओर से बरती जाय या किशोर युवकों की ओर से, उसकी परिणति उच्छृंखलता के रूप में ही होती है। यही है व्यक्तित्व को अस्त- व्यस्त करके रख देने वाली और भविष्य को अंधकारमय बनाने वाली विभीषिका, जिसकी ओर से समय रहते सतर्कता न बरती गयी, तो फिर जीवन भर के लिए पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता है।

उठती आयु में शालीनता की दिशा में अग्रसर करने के लिए स्कूली शिक्षा तो इसलिए प्रमुख है कि उसके बिना व्यावहारिक ज्ञान और आजीविका उपार्जन का सुयोग ही नहीं बनता। इस अनिवार्यता को शिरोधार्य तो करना ही चाहिए; पर इतने तक ही सीमित नहीं रह जाना चाहिए। वर्तमान विद्यालयों की शिक्षा के अलावा व्यायाम, स्वावलम्बन, कला कौशल और स्वाध्याय; यह चार प्रयास और भी साथ- साथ चलने चाहिए।

व्यायामः

ब्रह्मचर्य पालन में भी ढील पड़ने से काया खोखली हो जाती है, आत्महीनता घेर लेती है और स्मरण शक्ति जवाब देने लगती है। अचिंत्य- चिंतन और कुसंग से यह छूत की बीमारी लगती है। इससे बचने के सुनिश्चित उपायों में- व्यायाम में, खेलकूद में, ड्रिल- कवायद में रुचि लेनी चाहिए। इससे प्रगतिशील साथियों कासहचरत्व प्राप्त होता है और स्वास्थ्य संपदा का भण्डार समय रहते संचित करने का अवसर मिलता है। व्यायामशाला में, खेल मण्डली से संबंध सूत्र जोड़ना चाहिए। इस प्रयास में लाठी चलाना भी संयुक्त रखने से आत्मविश्वास और शौर्य- साहस बढ़ने का, स्वास्थ्य संरक्षण के अतिरिक्त दुहरा- तिहरा लाभ मिलता है। इस प्रकार के अभियान के साथी तलाश करके एक छोटी- सी मण्डली स्वयं भी बनाई जा सकती है। व्यायाम की ओर जिनका ध्यान पहुँचेगा, वे ब्रह्मचर्य का महत्त्व समझने और उसकी मर्यादा पालने के लिए कटिबद्ध रहेंगे। जीवन भर काम आने वाली स्वास्थ्य सम्पदा का भण्डार तो जमा कर ही लेंगे।

स्वावलम्बनः

एक बात हर युवक को ध्यान में रखनी चाहिये कि अच्छी नौकरियाँ मिलना दिन- दिन कठिन होता जा रहा है। अगले दिनों तो इस आशा के सपने देखने वालों को निराश ही होना पड़ेगा। अतः शिक्षा के साथ स्वावलम्बन की बात भी सोचनी चाहिए। कृषि, पशुपालन, उद्योग आदि की कोई पारिवारिक परम्परा हो, तो उस ओर ध्यान देना चाहिए और घर के बड़ों का हाथ बँटाकर धीरे- धीरे प्रवीणता संचित करनी चाहिए। नये उद्योग तभी ढूँढ़े, जब पुराना उद्योग खर्च निकलने जैसा न हो।

गृह उद्योगों में अनेकों ऐसे हैं जो हर जगह, हर क्षण काम दे सकते हैं। लुहारी, बढ़ई गीरी, दर्जी गीरी का अब मशीनों के आधार पर सर्वाधिक आजीविका वाला स्वरूप भी विकसित हो गया है। स्थानीय प्रचलन को देखते हुए अन्य छोटे- बड़े उद्योग भी ढूँढ़ें जा सकते हैं। यह बात गाँठ बाँध कर रखनी चाहिए कि नौकरी मिलने में अवरोध उत्पन्न होने पर बिना किसी असमंजस के निर्वाह का आधार तुरन्त पकड़ा जा सके, ऐसी पूर्व तैयारी रखनी चाहिए। इसके लिए अध्ययन काल में ही अवकाश के समय ऐसे अभ्यास जारी रखने चाहिए, जो स्वावलम्बन का आधार बन सकें।

स्वाध्यायः

स्वास्थ्य, स्वावलम्बन की भाँति भावना, बुद्धि और प्रतिभा की भी जीवन विकास में जरूरत पड़ती है। उदासी, निराशा, जिसे घेरे रहेगी वह थका- माँदा और उदास, उपेक्षित रहकर मौत के दिन पूरे करेगा। इससे बचने का एक उपाय है- स्वाध्यायशील होना और दूसरा उपाय है कला कौशल में रस लेना। सम्पर्क क्षेत्र बढ़ाना, यशस्वी होना और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने की प्रवीणता पाना, इन दोनों ही प्रयोजनों को समान महत्त्व देना चाहिए और उन्हें अपनाने का अवसर नहीं चूकना चाहिए।

प्रज्ञा साहित्य से बढ़कर इन दिनों सरलता पूर्वक उपलब्ध कराने और रुचिपूर्वक हृदयंगम करने योग्य स्वाध्याय सामग्री अन्यत्र मिलना कठिन है। इसे अपने आस- पास से माँग- जाँच कर नियमित पढ़ते रहने का प्रयास करना चाहिए और सफलता पाकर ही चैन लेना चाहिए। यह एक प्रत्यक्ष सच्चाई है कि इस साहित्य से बढ़कर युवावर्ग का सच्चा साथी, सहायक और मार्गदर्शक कदाचित ही और कोई मिल सके। अध्यापकों, अभिभावकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने छात्रों के लिए यह सुविधा किसी न किसी प्रकार उत्पन्न कर ही दें कि वे नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ें और चिन्तन में उत्कृष्टता एवं चरित्र में आदर्शवादिता का समावेश करते हुए उज्ज्वल भविष्य का निर्णय करने में सफल हो सकें।

कला कौशलः

कला कौशल में भाषण, संभाषण, गायन, वादन के अभ्यास को अधिक महत्त्व दिया और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए अध्यापक, अभिभावक भी प्रयत्नशील रहें और किशोर ऐसा सुयोग स्वयं भी बिठायें, जिससे ऐसी मण्डली में सम्मिलित होने और मिलजुल कर आगे बढ़ने का सुयोग बैठ सके। प्रतिभा निखारने की दृष्टि से इस स्तर की कुशलता को सर्वथा सराहा जाता है।

गायन- वादन सिखाने वाले संगीत विद्यालय छोटे- बड़े रूप में जहाँ कहीं चलते हैं। न चलते हों तो कुछ साथी ढूँढ़ कर किसी गुरु की सहायता से स्वयं भी कुछ प्रबंध किया जा सकता है। नवसृजन अभियान में इस प्रवीणता की सर्वत्र जरूरत पड़ती है। आये दिन होने वाले समारोहों में युग संगीत की माँग रहती है। उसकी पूर्ति में लोकसेवा का अवसर तो मिलता ही है, अपनी प्रतिभा भी कम नहीं चमकती। सराहना और प्रतिष्ठा से आदमी का हौसला बढ़ता है, प्रतिभा में निखार आता है और व्यक्तित्त्व उभरता है। स्वयं के अंतराल में विचार और भाव संवेदना के बीजांकुर पनपते हैं। ऐसे लोग रसासिक्त रहते और साथियों को भाव विभोर बनाये रहते हैं। जिन्हें इस उपलब्धि का सुयोग मिलें, उन्हें उसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए।

सृजनात्मक कार्यों में भागीदारी

युवा मण्डल सामूहिक श्रमदान से लोकसेवा के अनेक सृजनात्मक कार्य हाथ में ले सकता है और पूरे जोश के साथ उन्हें आगे बढ़ा सकता है।

हरीतिमा संवर्धनः

घर- घर में हरीतिमा की स्थापना एक अति सरल, किन्तु महत्त्वपूर्ण कार्य है। आँगन में तुलसी के पौधे लगाने चाहिए। यह प्रकारांतर से खुले देव मन्दिर की स्थापना है। प्रतिमा पूजन का यह बहुत ही उपयुक्त और अनेकानेक लाभों से भरा- पूरा उपासनात्मक धर्मकृत्य है। सूर्य को अर्घ्य चढ़ाने, प्रातः अगरबत्ती, शाम को दीपक जलाने, परिक्रमा करने भर से छोटी पूजा- उपासना बन पड़ती है। वातावरण संशोधन, चिकित्सा उपचार जैसे अनेकानेक लाभ तो प्रत्यक्ष ही हैं। युवा मण्डली तुलसी की पौध उगाकर उनका आग्रहपूर्वक वितरण और थाँवला स्थापन का कार्य देखते- देखते सारे गाँव, नगर में सुविस्तृत कर सकती है।

इसी संदर्भ में शाक वाटिका, पुष्प वाटिका लगाना भी देखने में छोटा, परिणाम में बहुत ही महत्त्व का काम है। आँगनवाड़ी, घरवाड़ी में मौसमी शाक उगायें जा सकते हैं। चटनी के लिए पोदीना, धनिया, हरी मिर्च, अदरक, प्याज आदि तो गमलों में टोकरियों, पेटियों में ही इतने लग सकते हैं कि कुपोषण की समस्या हल करने वाला, भोजन को स्वादिष्ट बनाने वाला, आर्थिक बचत करने वाला सुयोग हर घर- परिवार को मिलने लगे। हरीतिमा संवर्धन का कितना महत्त्व है, इसे बताना इन पंक्तियों में तो सम्भव नहीं, पर एक शब्द में इतना तो समझा ही जा सकता है कि प्रदूषण निवारण, आँखों की शीतलता, मस्तिष्क की शांति एवं घर की शोभा- सज्जा प्रदान करने जैसे कितने ही लाभ घरों, आँगनों में लगाई जाने वाली शाक वाटिका, पुष्प वाटिका में हर किसी को उपलब्ध हो सकते हैं।

स्वच्छताः

गंदगी बढ़ाना और सहना अपने स्वभाव- समाज में घुसा हुआ बहुत बड़ा अभिशाप है। इसे सभ्यता और सुरुचि के लिए प्रस्तुत चुनौती ही समझा जाना चाहिए। श्रमदान से गली- कूचों की, नालियों की, पोखरी की, टूटे- फूटे रास्ते गड्ढों की मरम्मत करने के लिए युवकों की स्वयंसेवक मण्डली चला करें, तो फैलाने और सहने वालों को भी शर्म आएगी और इस मार्गदर्शन से सभ्यता का पहला पाठ- स्वच्छ रहना सीखेंगे।

शिक्षा- अपने देश में ७० प्रतिशत निरक्षर हैं। (यह आँकड़े सन् १९८० के हैं) उनके लिए प्रौढ़ पाठशालाओं का होना आवश्यक है। शिक्षितों के लिए चल पुस्तकालयों द्वारा सत्साहित्य पहुँचाने का प्रबंध होना चाहिए। यह ऐसे रचनात्मक कार्य हैं, जिन्हें हाथ में लेने वालों के सिर पर मुकुट रखे जाने या फोटो छपने जैसी लिप्सा तो नहीं सधती, पर वैसे सेवा में कोई कमी भी नहीं रहती। अपना देश, समाज यदि उठता- बनता है, तो उसके मूल में ऐसी ही सृजनात्मक प्रवृत्तियों का योगदान होगा।

सुधारात्मक पराक्रमः

युवकों में शौर्य, साहस और पराक्रम का जोश होता है। उनके एक कोने में योद्धा भी छिपा रहता है, जो अवांछनीयता से जूझने के समय उभरता रहता है। इस पौरुष को सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध लोहा लेने के लिए आमंत्रण देना चाहिए और इन सर्वनाशी दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा खड़ा करने और उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध करना चाहिए। कुरीतियों में छुआछूत, जाति- पाती, मृत्युभोज, शिक्षा व्यवसाय, भाग्यवाद, टोना- टोटका, बाल विवाह आदि अनेकों को मिटाया जा सकता है। इनके कारण अपने देश- समाज की नैतिक, बौद्धिक और आर्थिक कितनी क्षति हुई है, प्रगति कितनी रुकी है और भ्रांतियों की तमिस्रा किस कदर फैली है, इसका लेखा- जोखा लेने से रोंगटे खड़े होते हैं।

दुष्ट प्रचलनों में सर्वनाशी है- विवाहोन्माद। खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। दहेज के लेने- देने में कितने घर- परिवार बर्बाद हुए और दर- दर के भिखारी बने हैं, इसका बड़ा मर्मभेदी इतिहास है। बरात की धूमधाम, आतिशबाजी, गाजे−बाजे, दावतें, दिखावे, प्रदर्शन में इतना अपव्यय होता है कि एक सामान्य गृहस्थ की आर्थिक कमर ही टूट जाती है। लड़की का माँस बेचने वाले, दहेज के व्यवसायी अपने मन में भले ही प्रसन्न होते और नाक ऊँची देखते हों, पर यदि विवेक से पूछा जाय तो इन अदूरदर्शी के ऊपर दसों दिशाओं से धिक्कार ही बरसती दिखेगी।

युवकों का कर्तव्य है कि दहेज न लेने, धूमधाम की शादी न स्वीकारने की प्रतिज्ञा का आन्दोलन चलायें और उस व्रत को अभिभावकों की नाराजगी लेकर भी निभायें ।। भावुक लड़कियाँ भी इस विरोधी संघर्ष में सम्मिलित हो सकती हैं और आजीवन कुमारी रहने का खतरा उठाकर भी इन लड़के, लड़की बेचने वालों के घर जाने से मना कर सकती हैं। ऐसी शादियों में शामिल न होने का असहयोग हर विवेकशील को करना ही चाहिए। युवा पीढ़ी का कर्तव्य है कि वह इन सत्प्रवृत्तियों को अपनाकर अपना तथा समाज का भविष्य उज्ज्वल बनाने हेतु आगे आये।

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