युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन

विवेकपूर्ण-हल

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यों तो युग निर्माण आन्दोलन के सर्वमान्य सूत्र काफी प्रचलित हैं- मनुष्य में देवत्व का उदय- धरती पर स्वर्ग का अवतरण। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रांतियाँ हैं। इस हेतु व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण के चरण हैं। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन के साथ ही सभ्य समाज की अवधारणा है। व्यक्तित्व विकास के लिए साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों का नियमित अभ्यास आदि है।

किन्तु प्रश्न वहीं आकर टिकता है कि आम युवक- युवतियों के गले इन्हें सीधे उतारा कैसे जाये? युवाओं को तो जोशीले कार्यक्रम अच्छे लगते हैं। अतः शुरू करने के लिए ऐसे सूत्र निर्धारित किए गये हैं, जिनके आधार पर युवाओं को आकर्षित भी किया जा सके तथा उनमें युग निर्माण के मूल उद्देश्यों को जोड़ना संभव हो सके। वे इस प्रकार हैं-

चार तेजस्वी नारे -

१. स्वस्थ युवा -सबल राष्ट्र

२. शालीन युवा- श्रेष्ठ राष्ट्र

३. स्वावलम्बी युवा- सम्पन्न राष्ट्र तथा

४. सेवाभावी युवा- सुखी राष्ट्र।

इन नारों में उत्साह के साथ ऐसा दिशा- बोध भी है, जिसके आधार पर नई पीढ़ी को वांछित व्यक्तित्व- सम्पन्न बनाया जा सकता है। अभीष्ट है कि युवक- युवतियाँ स्वस्थ, शालीन, स्वावलम्बी तथा सेवाभावी बनें तथा अपने विकास को ईश्वरोन्मुखी न बना पाएँ, तो राष्ट्रोन्मुख तो बना ही लें। चारों सूत्रों की विभिन्न सम्भावनाओं को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है।

१. स्वस्थ युवा-

कहा जाता है पहला सुख निरोगी काया। काया को धर्म साधना का आधार (शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं) कहा गया है। युग निर्माण के सूत्रों में भी पहला चरण स्वस्थ शरीर है। इसलिए अपने संगठन में युवाओं को स्वास्थ्य साधना से जुड़ने की प्रेरणा दी जाती है। निश्चित रूप से जिस देश के युवा शरीर- मन से स्वस्थ होंगे, वह राष्ट्र सबल- मजबूत राष्ट्र बनकर उभरेगा।

स्वास्थ्य के लिए पहले हलका योग- व्यायाम करने- कराने की प्रेरणा दी जाय। यह प्रत्यक्ष आकर्षक कार्यक्रम बन जायेगा। फिर व्यायाम के क्रम को ड्रिल- कवायद जैसी बनाकर उन्हें अनुशासन में कार्य करने का संस्कार दिया जा सकता है। इसी के साथ आहार- विहार के संयमों को जोड़ने तथा हानिकारक आदतों को छोड़ने का क्रम भी चल पड़ता है। क्रमशः युवकों- युवतियों को सधे हुए स्काउट जैसा संस्कार दिया जा सकता है।

स्वास्थ्य का सीधा और अटूट सम्बन्ध श्रमशीलता से है। आजकल शरीर श्रम को छोटा, ओछा मानने की भ्रान्त धारणा जन मन में घुस पड़ी है। संतुलित श्रम शरीर के लिए स्वाभाविक व्यायाम बन जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार श्रम की कमी और उसके असन्तुलन से ही, डायबिटीज, ब्लड कैंसर, स्पॉण्डलाइटिस, स्लीप डिस्क, मोटापा, दिल की दुर्बलता जैसे रोग उभरते और पनपते रहते हैं। इसलिए युवाओं में श्रम के प्रति सम्मान का भाव जगाते हुए उन्हें श्रमशील अवश्य बनाना चाहिए।

२. शालीन युवा-

युवा पीढ़ी शरीर से स्वस्थ- बलिष्ठ बने यह अच्छा है, किन्तु शरीर से बलिष्ठ तो गुण्डे और आतंकवादी भी होते हैं। इसलिए स्वस्थ होने के साथ उन्हें शालीन बनाने की भी साधना करानी होगी। पूज्य गुरुदेव का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘शालीनता बिना मोल मिलती है, किन्तु उससे सब कुछ खरीदा जा सकता है।’ शालीन व्यक्ति के प्रति समाज में विश्वास और सम्मान का भाव उभरता है। जिसके प्रति यह दो भाव होते हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप से हर प्रकार का जन सहयोग मिलने लगता है। इसीलिए शालीनता के द्वारा सब कुछ खरीदे जाने की बात कही गई है।

शालीनता के अन्तर्गत पहले वाणी- व्यवहार की शिष्टता तथा बाद में स्वच्छ मन के सूत्रों का अभ्यास कराया जा सकता है। जिस देश के युवा स्वस्थ और शालीन बनेंगे, वह राष्ट्र, श्रेष्ठ राष्ट्र कहलायेगा। अतः युग निर्माणी नारा है- युवा बनें सज्जन- शालीन, दें समाज को दिशा नवीन।

३. स्वावलम्बी युवा-

सच कहा जाय, तो युवाओं को सहज ही स्वावलम्बी होना चाहिए, बच्चे और बूढ़े परावलम्बी भी रहें, तो क्षम्य है। यहाँ स्वावलम्बन को केवल आर्थिक स्वावलम्बन तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। वह तो एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, आर्थिक स्वावलम्बन भी उसका अंग है।

लम्बे समय तक गुलामी झेलने के कारण देखा जाता है कि आज भी युवाओं में स्वावलम्बी प्रवृत्ति की बहुत कमी है। वे अपने बूते अपना भविष्य बनाने के युवोचित पुरुषार्थ के स्थान पर समाज की अनगढ़ धारा में निरीह की तरह बहते देखे जाते हैं।

आत्म गौरव के बोध का उनमें भारी अभाव है। वे अपने अन्दर मनुष्य होने, युवा होने, विश्व की सर्वश्रेष्ठ और सबसे पुरातन संस्कृति के वारिस होने, विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के नागरिक होने का गौरव कहाँ अनुभव कर पाते हैं? उन्हें अपने अन्दर भरी अद्भुत दिव्य सम्पदा तथा उसके उपयोग का बोध कहाँ है? इसीलिए पश्चिम की अनगढ़ नकल करके जीवन में तमाम समस्याएँ मोल लेते रहते हैं।

विवेक बुद्धि-

हमारे लिए क्या उपयोगी और क्या अनुपयोगी है, इसका निर्णय लेने की क्षमता आज कितने युवाओं में है? वे तो अनगढ़ समाज की वाहवाही के आधार पर या प्रचलित ढर्रे के आधार पर अपने लिए मार्ग बनाना चाहते हैं। स्वयं अपना हित न समझ पाते, न साध पाते हैं। अर्थ व्यवस्था-

धन के उपार्जन एवं उपयोग की दिशा में अधिकांश नई पीढ़ी परावलम्बी है। मैनेजमेण्ट के उच्च स्तरीय कोर्स कर लेने पर भी वे नौकरी ही ढूँढ़ना चाहते हैं। अपनी व्यवस्था बुद्धि और मेहनत से बड़ी कम्पनियों को भारी लाभ कराते हैं और उसका एक छोटा अंश ही वेतन के रूप में पाते हैं। पूर्व राष्ट्रपति, देशरत्न डॉ. कलाम साहब कहते रहे हैं कि हमारे युवा नौकरी खोजने वाले नहीं, नौकरी देने वाले होने चाहिए।

विचारकों ने आर्थिक स्वावलम्बन के लिए मनुष्य में उद्यमिता होने पर बल दिया है। सूत्र है- पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी अर्थात् उद्यमी नर श्रेष्ठों को लक्ष्मी की प्राप्ति अवश्य होती है। युगऋषि ने उद्यमी प्रवृत्ति वालों के लिए संसाधनों एवं तकनीक के साथ ५ प्रवृत्तियों की आवश्यकता बतलाई है।

१. श्रम के प्रति गौरव का भाव

२. श्रम करने की सामर्थ्य

३. श्रम की रचनात्मकता

४. सहकारिता

५. प्रामाणिकता

यह सूत्र व्यक्ति को अर्थ सम्पन्न बनाने में समर्थ होते हैं।

इसके साथ ही जो धन कमाते हैं, उसे भी विचार पूर्वक खर्च कहाँ कर पाते हैं। अधिकांश धन परम्परागत अनगढ़ प्रदर्शन में खर्च हो जाता है। अर्थात् धन की कमाई और खर्च दोनों ही मामलों में स्वावलम्बन की प्रवृत्ति दिखाई नहीं देती। यदि यह प्रवृत्ति उभारी जा सके, तो हमारी युवा प्रतिभा सारे विश्व को नया प्रकाश देने में समर्थ है।

इसी प्रकार मनोरंजन में स्वावलम्बी हों, तो मन को खराब करने वाले मनोरंजनों के स्थान पर साहित्य, संगीत, कला परक ऐसे मनोरंजन किए जा सकते हैं, जो मनुष्य की गरिमा भी बढ़ाएँ और सुख भी।

कहने का तात्पर्य यही है कि स्वावलम्बन एक श्रेष्ठ प्रवृत्ति है, जो युवा चेतना के लिए सहज पाने योग्य है। यह सुनिश्चित है कि जहाँ ऐसे स्वावलम्बी युवा होंगे, वह राष्ट्र हर दृष्टि से सम्पन्न बनेगा।

४. सेवाभावी युवा-

युवावस्था ऊर्जा का भंडार लेकर आती है। प्रत्येक युवक- युवती में अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करने की तुलना में कई गुनी कार्य क्षमता- ऊर्जा होती है। यदि ऊर्जा को दिशा न दी जाय, तो वह अवांछनीय दिशा में बह जाती है। युवाओं की अतिरिक्त ऊर्जा को यदि राष्ट्रहित, समाजहित जैसे सेवाकार्यों में न लगाया जायेगा, तो वह समस्याएँ पैदा करने में ही लग जायेगी। समस्याएँ पैदा होती हैं, तो उससे न समाज अछूता रहता है, न व्यक्ति।

युवाओं को सेवा कार्यों के लिए प्रेरित करना कठिन नहीं होता। उनमें संवेदना जगाई जाय, कार्य का श्रेय उन्हें भी दिया जाय, तो कुछ नया करने का उत्साह तो उनमें होता ही है। अधिकांश युवक किसी न किसी धार्मिक, सामाजिक संगठन से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं। उन्हें श्रमपरक कार्यों को अपने हाथ में प्रसन्नतापूर्वक ले लेना चाहिए। विशेष उत्साही युवागण शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, व्यसन एवं कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण सुधार जैसे आन्दोलनों को भी हाथ में ले सकते हैं। इससे उनके व्यक्तित्व का स्तर भी उन्नत होगा और श्रेय सम्मान भी प्राप्त होगा।

इसलिए हर युवा को जहाँ शालीनता, स्वावलम्बन के नाते अपनी ऊर्जा, क्षमता, साधनों को बढ़ाने- बचाने का अभ्यास कराया जाना चाहिए, वहीं अतिरिक्त क्षमता को सेवाकार्यों में लगा देने का संस्कार भी दिया जाना चाहिए। जहाँ ऐसा नहीं होगा, वहाँ की युवा शक्ति नई- नई समस्याएँ पैदा करके समाज एवं राष्ट्र को दुःखी करती रहेगी। जहाँ सेवाभावी युवापीढ़ी होगी, वहीं ‘सुख बाँटो, दुःख बँटाओ’ का क्रम चलेगा। राष्ट्र सुखी बनेगा। अस्तु अपने युवा आन्दोलन को इन नारों के अनुरूप विकसित करने- कराने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।

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