युग निर्माण में युवा शक्ति का सुनियोजन

आदर्श युवा बनें

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भारतीय ऋषि- मनीषियों ने अनुभवी प्रौढ़ों के साथ युवा शक्ति को सदैव बराबरी का महत्त्व दिया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में युवाओं के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। प्रतिष्ठित क्रांतिकारी गाँधीवादी दादा धर्माधिकारी ने युवाओं के लिए युवा कांग्रेस से भिन्न एक संगठन ‘राष्ट्रीय युवा संघ’ स्थापित किया था। उसके अधिवेशन में उन्होंने युवाओं के लिए उपनिषद् के एक सूत्र की व्याख्या करते हुए युवकों को प्रेरित किया था।

सूत्र है :- युवा स्यात्। साधुयुवा, अध्यायिकः। आशिष्ठो, द्रढिष्ठो, बलिष्ठः।

अर्थ ऋषि कहते हैं- युवा बनो। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों? उत्तर है- युवा साधु स्वभाव वाले हों, अध्ययनशील हों, आशावादी हों, दृढ़निश्चय वाले हों और बलिष्ठ हों।

१. साधु का अर्थ यहाँ सज्जन- शालीन है। इसका सामान्य अर्थ होता है, वाणी और व्यवहार में सदाशयता और विनम्रता का होना।

एक मनीषी का वाक्य है- ‘‘शालीनता के अभाव में भूल बन जाता है अपराध। शौर्य बन जाता है उद्दण्डता और सत्य बन जाता है बदतमीजी।’’ हमारी संस्कृति में शील- सदाचार को जीवन का आभूषण कहा गया है। इसलिए ऋषि चाहते हैं कि उत्साह, शौर्य के धनी युवक साधु हों, शालीनता एवं सज्जनता से विभूषित हों।

युगऋषि की एक पुस्तिका है- सभ्यता का शुभारम्भ, उसमें उन्होंने यह तथ्य स्पष्ट किया है कि आजकल साधुता सज्जनता, सभ्यता को केवल बाह्य शिष्टाचार तक ही सीमित कर दिया गया है। इसे शिष्टाचार से आगे सदाचार और संस्कार के स्तर तक ले जाया जाना चाहिए, तभी बात बनेगी।

२. अध्ययनशील - युवक को अध्ययनशील होना चाहिए। युवकों को कुछ नया पाने, नया बनने का उत्साह होता है। ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं- अचित्तब्रह्म जुजुषुः युवानः। अर्थात्- युवाओं को अचित्त ब्रह्म चाहिए। ऐसा ब्रह्म, जिसका चिन्तन पहले हुआ नहीं। युवक को ब्रह्म भी युवा चाहिए। ज्ञान को भी ब्रह्म कहा गया है। ज्ञान का नया स्वरूप जानने हेतु सतत अध्ययनशील होना जरूरी है। इससे युवाओं में गुण- ग्राहकता बढ़ती है।

शालीनता और गुण- ग्राहकता का परस्पर घना सम्बन्ध है। संत तुलसीदास जी ने लिखा है- ‘सिमिट- सिमिट जल भरहिं तलावा। जिमि सद्गुण सज्जन पहिं आवा॥’

अर्थात्- जैसे सब ओर का जल इकठ्ठा होकर तालाब में भर जाता है, उसी प्रकार सज्जन- शालीन के पास विभिन्न गुण स्वाभाविक रूप से पहुँच जाते हैं।

शालीन युवाओं में श्रेष्ठ गुणों के विकास से उनकी जवानी जीवंत और धन्य बन जाती है। ऋषि यही चाहते हैं।

३. आशावादी - युवाओं को आशावादी सकारात्मक, विधेयात्मक सोच वाला होना चाहिए। आशावाद आस्तिकता से जुड़ा है। ज्ञान- विज्ञान की तमाम शोधों- खोजों के पीछे मनुष्य की आस्तिक बुद्धि ही रही है। आस्तिक का अर्थ है ‘अस्ति’ पर ईश्वर और प्रकृति के नियमों पर भरोसा। बुद्धि जब यह मानकर चलती है कि जड़- चेतन प्रकृति में हर वस्तु एवं क्रिया के पीछे कोई नियम है। उसे जाना, समझा जा सकता है। इसी आस्तिकता, आशावादी दृष्टिकोण से मनुष्य ज्ञान- विज्ञान के नियमों- सूत्रों को खोजने में सफल हुआ है।

युवाओं में नया जानने की सहज प्रकृति भी होती है तथा उस दिशा में कुछ कर- गुजरने का उत्साह भी होता है। इसीलिए विनोबा जी तथा दादा धर्माधिकारी ‘तारुण्य’ को, जवानी को ऊँचे स्तर की आस्तिकता कहते रहे हैं। अध्ययनशील तरुण यह जानता है कि हर व्यक्ति के अंदर देवत्व विद्यमान है, तो आशावादी आस्तिक तरुण यह आशा करता है कि कैसा भी मनुष्य हो, हम उसके अन्दर देवत्व को जाग्रत् कर लेंगे।

४. दृढ़ निश्चयी युवक का मन दृढ़ व पक्का होना चाहिए। कच्चे मन वाले परिस्थितियों के थपेड़ों से हवा मेंपत्रवत् डोलते रहते हैं। समय के प्रवाह में निर्जीव लक्कड़ों की तरह बहते रहते हैं। पक्के मन वाले जीवन्त पक्षियों की तरह हवा को चीरकर, मछली की तरह पानी के प्रवाह को चीरकर अपने वाञ्छित लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। क्रांतिकारी सुधारक ऐसी ही मानसिकता वाले हुए हैं।

५. बलिष्ठ मन के मजबूत युवाओं को तन से बलिष्ठ भी होना चाहिए। यहाँ बलिष्ठ शब्द पहलवानी तक सीमित नहीं है। बलिष्ठ का अर्थ है ऐसा स्वस्थ शरीर, जो परिस्थितियों, प्रकृति के तमाम थपेड़ों को सहज ही सहता हुआ बिना थके लक्ष्य तक बढ़ने में सक्षम हो। युवाओं की काया गमले के उन पौधों जैसी नहीं होनी चाहिए, जिन्हें ‘सींचत हूँ कुम्हलाएँ’ की श्रेणी में गिना जाय। उन्हें तो ‘पर्वत पर हरियाएँ’ के स्तर का होना चाहिए। ऋषि चाहते हैं कि युवा का मन- मनीषी जैसा और तन- तपस्वी जैसा हो।

कौन बने तरुण?

ऋषि कहते हैं - युवा बनो। यह वे किससे व क्यों कहते हैं? यदि आयु के तहत् ही युवा बनते हैं, तब तो सभी को बनना ही है। ऋषि यह आग्रह क्यों करते हैं?

ऐसी अपील करते समय ऋषि की निगाहों में तरुणाई एक आयु विशेष नहीं, वह एक स्थिति विशेष है। जैसे मनुष्य काया तो सहज मिल जाती है, मनुष्य तन में मनुष्यता का समुचित विकास बिरले ही कर पाते हैं। इसी प्रकार आयु से तो तरुण सभी होते हैं, परन्तु प्रवृत्ति रूप में तरुणाई- जवानी कितनों के अन्दर उभरती दिखती है? ऋषि चाहते हैं कि हर आयुवर्ग के नर- नारी अपने अन्दर तरुणाई जाग्रत् करें। जैसे सेना में हर आयु के सैनिक को जवान कहा जाता है, वैसे ही समाज को सृजनशील ऊर्जा से भरपूर रखने के लिए हर आयुवर्ग के जवानों की जरूरत पड़ती है। तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार जिनके अंदर उनकी अपील के अनुरूप तेजस्वीप्रवृतियाँ हैं, वे सभी युवा हैं- तरुण हैं। महाभारत में भाग ले रहे १२५ वर्ष के भीष्म, १०० वर्ष के ऊपर वाले आचार्य द्रोण, लगभग ८९ वर्ष के श्री कृष्ण तथा उसी आयु के पाण्डव आदि सभी तरुण ही कहे जाने योग्य थे। इसी प्रकार १६ वर्ष का किशोर अभिमन्यु भी तरुणाई में किसी से कम नहीं था। अस्तु, तरुण बनने के लिए ऋषि का आमंत्रण भी विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के लिए है।

आचार्य विनोबा भावे जी ने भी ‘राष्ट्रीय युवक संघ’ के सदस्यों को प्रेरणा देते हुए एक बार कहा था- ‘‘मानवता के निर्माण के लिए तरुण- सुलभ और तरुणोचित गुणों को स्वीकार करना होगा। वे गुण हैं- तेजस्विता, तपस्या,और तत्परता। तरुणाई के ये तीन ‘त’ कार हैं। तेजस्विता का अर्थ है वीरवृत्ति, अर्थात् प्रतिकार निष्ठा। बिना तपस्या के तेज निर्माण नहीं होता। तप दो प्रकार के होते हैं। एक कष्ट सहने का अभ्यास करना और दूसरा है ‘तितीक्षा’, अर्थात् आपात अवस्था की संभावना के आधार पर उसे सहने की तैयारी। इस तरह दो प्रकार की तपस्या से प्रतिकार निष्ठा जाग्रत् होती है। तेज और तप के साथ तत्परता भी चाहिए। तत्परता का अर्थ है स्वीकृत कार्य के प्रति एकात्म होने की प्रवृत्ति। स्वीकृत कार्य में मगन होने की और उसके लिए अन्य सभी कामकाज दूर रखने की आदत। जिनकी प्रवृत्ति एकात्म हुई है, उन्हें स्वयं के संसार की सुधि नहीं रहती, वे विषय सुख से परे हो जाते हैं।’’

इस संदर्भ में दादा धर्माधिकारी का मत भी ऐसा ही है। उन्होंने कहा है- ‘‘यह निष्ठा हर क्रान्तिकारी के चरित्र में मिलेगी।’इस स्तर की निष्ठा के सहारे जो आज तक कभी संभव नहीं हुआ, वह भी सम्भव हो सकता है। यह इतिहास की सिखावन है। इतिहास मानवीय प्रयोगों की सफलता का विवरण होता है और उसमें हुई गलतियाँ प्रगति का सोपान सिद्ध हो सकती हैं। अस्तु, युगक्रान्ति में रुचि रखने वाले सभी को अपने अन्दर ऐसी ही निष्ठा पैदा करनी चाहिए।’’

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