अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

आत्म क्षेत्र का भावी संकल्प

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दिन उगा रहने पर भी कभी-कभी ग्रहण पड़ने, कुहासा छा जाने से अंधेरा जैसा छा जाता है। पर वह स्थायी नहीं होता। वह जंजाल हटते ही दिनकर की प्रखरता पुनः पूर्ववत् दृष्टिगोचर होने लगती है। यही बात इस सृष्टि में समग्र विवेकशीलता, सदाशयता, पर भी व्यवधान छा जाने जैसे उदाहरण सामने आते रहते हैं। फिर भी आशाजनक बात यही है कि स्थिति स्थायी नहीं रहती। अंधेरे का दौरा पड़ता तो है पर वह टिकाऊ नहीं होता।
भूतकाल में सतयुगी वातावरण था। भविष्य में भी वह पुनः लौट कर आ रहा है। मात्र वर्तमान ही ऐसा रहा जिसमें अवांछनीयताओं का  भयानक आक्रमण टिड्डी दल जैसा हुआ और उसने लहलहाती फसल को चौपट कर दिया। अब पुनर्जागरण की-पुनर्निर्माण की बेला निकट है और जो बिगड़ चुका है फिर बन जायगा। जीर्णोद्धार की नीति अपनाने पर भी पुरातन खण्डहरों की नींव पर भव्य भवन बनाये जा सकेंगे। उल्लास भरे नवयुग की पुनः प्राण प्रतिष्ठापना हो सकेगी।
चर्चा अध्यात्म की हो रही है। वह कोई जादूगर नहीं। व्यक्ति और समाज की आच्छादित, प्रभावित, सुव्यवस्थित करने वाली एक प्रक्रिया है जिसमें प्रधानतया चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उत्कृष्टता से सराबोर रहने की स्थिति बनती है इसलिए उसे व्यक्ति विज्ञान, समाज विज्ञान, नीतिशास्त्र और प्रगति परम्परा भी कह सकते हैं। उस प्रक्रिया को जन-जन के मन-मन में उतारने से बात बनती है। मात्र कुछ जिज्ञासुओं के दार्शनिक प्रतिपादन का वह विषय नहीं है। कुछ भावुक जन इसे कथा पुराण या सत्संग प्रवचन की तरह सुनते रहे और इस कान से उस कान निकालते रहे तो भी कुछ बात नहीं बनती। धार्मिक कर्मकाण्डों के माध्यम से दृश्य के साथ भावना का समन्वय करते हुए उसे हृदयंगम करना पड़ता है।
पूजा पाठ की प्रक्रिया में महानता के इष्ट को सामने रखकर उसके समतुल्य बनने के लिए पात्रता विकसित करने के लिए धूप-दीप, अक्षत, पुष्प आदि से अर्चना की जाती है। और उन उपहारों के साथ जुड़ी हुई उत्कृष्टताओं को जीवन का अविच्छिन्न अंग बनाने का प्रयास किया जाता है। सर्वतोमुखी उत्कृष्टता ही ऋद्धि सिद्धियों का केन्द्र हैं। कषाय कल्मषों का बोझ हटते ही महानता की विभूतियां तथा अतीन्द्रिय क्षमता कही जाने वाली ऋद्धि सिद्धियां अनायास ही उभर पड़ती और निर्झर की तरह फूटकर अपने शीतल प्रवाह से असंख्यों का भला करती है।
ईश्वर को प्रशंसा या भेंट उपहार के माध्यम से बहकाया फुसलाया नहीं जा सकता और न मनोकामनाओं के रूप में वह पाया जा सकता है जिसकी अपने में पात्रता नहीं है। हमारे बदले का पुरुषार्थ भगवान पूरा करेगा या नाम रटते ही दुष्कर्मों के प्रतिफल से छुटकारा मिलता रहेगा यह मान्यता सर्वथा मिथ्या है। उनका परिमार्जन तो प्रायश्चित द्वारा ही किया जाता है और समाज को क्षति पहुंचाई गई है उनकी क्षतिपूर्ति करनी पड़ती है। एक हाथ से दुष्कर्म और दूसरे हाथ से पूजा पाठ करते रहे तो स्थिति उपहासास्पद ही बनेगी।
आत्मिक प्रगति के लिए दो ही प्रमुख साधन हैं—एक तप जिसे संयम कहते हैं, प्रत्यक्ष जीवन में प्रयुक्त होता है। दूसरा साधना है—योग, जिसका तात्पर्य है शालीनता के सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय परमेश्वर के साथ अपने आप को पूरी तरह जोड़ देना। मन को कुत्साओं से हटाकर महानता के उदार आदर्शों के साथ अपनी विचारणा और भावना को पूरी तरह जोड़ देना। तपश्चर्या से जीवन का बहिरंग पक्ष निर्मल बनता है और योग से अन्तरंग को उत्कृष्टता की चरम सीमा तक उछाल देने का क्रम आजीवन अहर्निशि चलाते रहना पड़ता है। संक्षेप में चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में शालीनता का प्रगाढ़ समावेश करने की अनवरत प्रयत्नशीलता ही तप और योग की आत्मा है। इसके लिए कतिपय कर्मकाण्ड ऐसे हैं जिन्हें अपनाने से कर्म के साथ ज्ञान जोड़ देने जैसा सुयोग बनता है। यही है तत्वज्ञान का दर्शन पक्ष।
अध्यात्म प्रयोजनों के लिए जो कर्म अपनाने पड़ते हैं उनमें पूजा प्रार्थना के प्रयोगात्मक उपचारों के अतिरिक्त तीन प्रमुख धाराएं ऐसी हैं जिसमें मनःक्षेत्र को नियंत्रित और अन्तःकरण को परिमार्जित करने का प्रयोजन सरल पड़ता है। वे तीन हैं (1) जप (2) ध्यान (3) प्राणायाम। इसके माध्यम से दुर्गुणों, दुर्भावों को हटाने और देवत्व का अनुपात बढ़ाने में सहायता मिलती हैं। भीतरी और बाहरी स्वच्छता इनकी पृष्ठभूमि के साथ जुड़ी ही रहती है। इन्हीं तीनों की शाखा-प्रशाखाएं साधना की स्थिति अभिरुचि और मान्यता को देखते हुए निर्धारित करनी पड़ती है। इस निर्धारण में किसी अनुभवी विचारशील और समुन्नत स्तर के मार्ग-दर्शक का परामर्श लेना पड़ता है। संक्षेप में यही है अध्यात्म की रूप रेखा। जिसे चेतना की समर्थताएं उभारने का उपक्रम कह सकते हैं। यह भौतिक विज्ञान से किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण नहीं है। पदार्थ से प्राण की उत्कृष्टता सर्वमान्य है। उसी प्रकार भौतिक विज्ञान की तुलना में अध्यात्म विज्ञान की वरिष्ठता है। भौतिक विज्ञान के आधार पर वस्तुओं को अनुकूल बनाया जाता है। पर अध्यात्म विज्ञान उसके चेतना को सुयोग्य बनाता है जो पदार्थों का सही और श्रेष्ठ उपयोग कर सके या भौतिक विज्ञान के श्रम को सार्थक कर सके। चेतना का स्तर निकृष्ट होने पर तो भौतिक उपार्जन का दुरुपयोग भी हो सकता है और उसके कारण व्यक्ति और समाज का घोर अनिष्ट भी हो सकता है जैसा कि आजकल हो रहा है। यह स्थिति अध्यात्म का स्वरूप विकृत और व्यवहार उपेक्षित हो जाने के कारण ही बन पड़ी। अब भूल के सुधार की अनिवार्य आवश्यकता पड़ रही है। अन्यथा प्रस्तुत विपन्नताओं में से एक भी हटेगी नहीं।
यह युग संधि की बेला है। युग परिवर्तन का सुनिश्चित काल यही है। जैसा कि समझा जाता है कि इक्कीसवीं सदी विनाश, पतन और संकटों की होगी। इस प्रकार के कथन साधारण लोग बराबर कहते आ रहे हैं। पर अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय शक्तियां इस विपन्नता से जूझने और समृद्धि प्रगति का वातावरण बनाने के लिए समय रहते जुट रही हैं और वे दुहरी भूमिका सम्पन्न करेंगी। दूसरे विकास के अभिनव आधार खड़े करेंगी।
यह युग संधि की बेला है। युग परिवर्तन का सुनिश्चित काल यही है। जैसा कि समझा जाता है कि इक्कीसवीं सदी विनाश, पतन और संकटों की होगी। इस प्रकार के कथन साधारण लोग बराबर कहते आ रहे हैं। पर अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय शक्तियां इस विपन्नता से जूझने और समृद्धि प्रगति का वातावरण बनाने के लिए समय रहते जुट रही हैं और वे दुहरी भूमिका सम्पन्न करेंगी। दूसरे विकास के अभिनव आधार खड़े करेंगी।अगले दिनों विश्व के बिखराव को समेट कर एक केन्द्र पर लाया जायेगा। बढ़ा हुआ विज्ञान, कौशल, द्रुतगामी परिवहन और राजनैतिक आर्थिक क्षेत्रों का परस्पर गुंथ जाना ऐसे आधार हैं जिनके कारण सुविस्तृत संसार एक गांव घर की तरह बन गया है। इसकी छुटपुट समस्याएं एक-एक करके हल नहीं की जा सकेंगी वरन् उन्हें एक-एक मुश्त ही सुलझाना होगा। चेचक का उपचार फुन्सियों पर मरहम लगाते फिरने से नहीं रक्तशोधन से होता है। मक्खी, मच्छरों की बढ़ोत्तरी पर उन्हें एक-एक करके मारना कठिन है। नाले की गन्दगी साफ करने और उस पर चूना फिनायल छिड़कने से ही समाधान बनता है। इसी प्रकार विश्व के हर क्षेत्र और वर्ग में बिखरी हुई अगणित समस्याओं का एक ही हल है कि—विश्व को एकता की धुरी से जोड़ दिया जाय और उसके साथ मानवी क्षमता का सिद्धान्त अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया जाय।
बीसवीं सदी के शेष दिनों में रस्साकसी, विचार संघर्ष और प्रकृति प्रकोप जैसी प्रतिकूलताएं ही हैरान करेंगी पर साथ ही दूसरी ओर एक काम और भी चलेगा कि सृजन की शक्तियां संगठित और क्रिया कुशल होती चलेंगी। इस सदी के अन्त तक वे भी इतनी सामर्थ्य संचित कर लेंगी कि विग्रहों से लोहा ले सकें और सृजन की आवश्यकताओं को एक जुट होकर समग्र और समुन्नत बना सकें। इसे यथार्थता का पूर्वाभास भी कहा जा सकता है और निष्ठान्तों की भविष्य वाणी भी। जो अगले कुछ दिनों जीवित रहेंगे वे इस कथन को अक्षरशः व्यवहार में उतरते देखेंगे।
वसुधैव कुटुम्बकम् और आत्मवत् सर्वभूतेषु के दोनों सिद्धान्त अगले दिनों कार्यान्वित होकर रहेंगे। बिखराव सिमट कर एक धुरी पर केन्द्रित होगा। धरती एक है। मानव समुदाय भी एक होकर रहेगा। शासन की दृष्टि से विश्व राष्ट्र के रूप में एक नया ढांचा खड़ा होगा। देशों का विभाजन भौगोलिक सुविधा की दृष्टि से होगा और वे एक केन्द्र के अन्तर्गत प्रान्त जिलों की तरह एक केन्द्र के अनुशासन में रहेंगे। फौज, न्यायपालिका, करेंसी, यातायात और संचार एक विश्व के हाथ में रहेंगे। फिर युद्धों की कोई समस्या न होगी। मतभेद पंचायत स्तर पर हल होते रहेंगे।
विश्व की भाषा एक होगी। अनेक बोलियां, भाषाएं, लिपियां होने से हानि यह है कि एक क्षेत्र का मनुष्य दूसरे क्षेत्र में जाकर गूंगा बहरा हो जाता है। ज्ञान के विश्वव्यापी होने में यह सबसे बड़ी बाधा है। मुद्रण प्रकाशन भी इस बिलगाव से रुकता है। जब भाषा एक होगी तो एक दूसरे के साथ आदान-प्रदान में कोई कठिनाई न रहेगी। ज्ञान मार्ग के इस अवरोध को अगले दिनों हटाकर ही रहा जायेगा।
इसी प्रकार एक संस्कृति होगी और एक न्याय व्यवस्था भी। सभी धर्मों और संस्कृतियों का सार तत्व लेकर ऐसी परम्परा का जन्म होगा जिसके अन्तर्गत रहकर सभी को एकात्मता और एकरूपता का अनुभव होता रहे। कानून भी विश्वव्यापी हों। जाति और लिंग के नाम पर बरते जो वाले भेदभाव समाप्त होकर रहे। धरातल की भूमि आबादी के अनुपात से बंटे। न कोई गरीब रहने दिया जाय और न किसी को अमीर बनने की गुंजाइश रहे। विश्व नागरिकों के रहन-सहन का एक स्तर रहे। उसमें न किसी को बहुत ऊंचा उठने दिया जाय और न नीचा गिरने। देश, भाषा, जाति, सम्प्रदाय के नाम पर विलगाव की कहीं कोई गुंजाइश न रहे। धरती माता के सभी पुत्र अपने कर्तव्य और अधिकारों की दृष्टि से समानता का अनुभव कर सकें।
पिछले दिनों कई क्रान्तियां हो चुकी हैं। औद्योगिक क्रान्ति, श्रमिक क्रान्ति, जनाधिकार क्रान्ति, सामाजिक क्रान्ति, वैज्ञानिक क्रान्ति के उभार अपने-अपने समय क्षेत्र में अपने ढंग से उभरते रहे हैं और पहले की अपेक्षा अधिक सफलता अर्जित करते रहे हैं। इक्कीसवीं सदी महान क्रान्ति की अवधि होगी इसमें विग्रहों का जरामूल से उन्मूलन होगा और भविष्य का ढांचा ऐसा खड़ा होगा जिसमें बार-बार उलट पुलट की, उथल-पुथल की, युद्ध और कुचक्र रचने की कहीं कोई गुंजाइश न रहे।
इस महाक्रान्ति का सूत्र संचालन अध्यात्म क्षेत्र की अदृश्य शक्तियां करेंगी और कठपुतली की तरह भावनाशीलों को उसका निमित्त कारण बनना पड़ेगा। इच्छा या अनिच्छा पूर्वक इस परिवर्तन प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए युग धर्म उन्हें बाधित कर देगा और सफलता के लिए सृष्टा की वैसी ही इच्छा चरितार्थ होगी जैसी कि इस सृष्टि के आरम्भ में धरती के अग्निपिण्ड को ब्रह्माण्ड की इतनी सुन्दर कलाकृति के रूप में बदल सकी। विश्व चेतना की वैसी ही इच्छा फिर से नये सिरे से अवतरित हो रही है। इस सृजन प्रयोजन के लिए उच्चकोटि के व्यक्तित्वों की आवश्यकता पड़ेगी। अनुकूलता अवतरित करने वाले अदृश्य वातावरण की भी। यह सब विनिर्मित हो रही है और अगले दिनों बीज में अंकुर, अंकुर से वृक्ष और वृक्षों के झुरमुट वाला दिव्य उद्यान बनेगा। अपनी इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्यों में सद्भावनाओं का देवोपम उदय दृष्टिगोचर होगा।
इसी सुखद भविष्य के संचालन के लिए अध्यात्म की उच्च शक्तियां कटिबद्ध हो रही हैं और क्रमिक सफलता की ओर तेजी से अग्रसर हो रही हैं। इसकी एक छोटी सी झलक झांकी युग निर्माण योजना के संचालन सूत्र द्वारा अपने व्यक्तित्व को कर्तृत्व को आश्चर्यजनक रूप से प्रकट किए जाने में देखी जा सकती है।
अध्यात्म का वैज्ञानिक प्रचंड क्षमता सम्पन्न स्वरूप देखने से पूर्व उसकी अवधारणा एवं क्रिया पद्धति को सही करना पड़ेगा। यद्यपि वह सही होगा तो उससे बढ़कर चेतना क्षेत्र के चमत्कार उत्पन्न करेगा जैसे कि पदार्थ जगत में भौतिक विज्ञान ने प्रस्तुत किये हैं। आज तो विकृतियों और भ्रान्तियों ने हर क्षेत्र को जकड़ा है। अध्यात्म क्षेत्र में जादूगर भर गये हैं जो चित्र-विचित्र करामातों से भावुक जनों को भ्रम जंजाल में फंसाते और मूल दर्शन पर कुठाराघात करते हैं। कौतुक कौतूहलों का प्रदर्शन करना नहीं, समीप आने वालों को देवमानव बनाना और अपने प्रयासों से लोक प्रवाह को वातावरण को बदल देना सिद्ध पुरुषों का काम है। यही पूर्वकाल में था और यही भविष्य में भी रहेगा। अध्यात्म के इसी शाश्वत सिद्धान्त ‘‘साधना से सिद्धि’’ वाले सिद्धान्त का सही रूप में प्रस्तुतीकरण आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। जन मानस की यदि ब्रेनवाशिंग की जा सके तो पुनः उन आदर्शों की स्थापना संभव है जिनके माध्यम से कभी अध्यात्म को उच्च प्रतिष्ठित माना जाता था। धर्म सम्प्रदायगत मान्यता-परम्परा के स्वरूप की अध्यात्म के व्यक्तित्व के सर्वांग परिष्कार वाले स्वरूप से हुई मिलावट ही इस भ्रान्ति का मूल कारण है। धर्म कभी हिंसा नहीं सिखाता। विवेक का धर्म पर कड़ा अंकुश है। अतः मान्यताएं परिस्थितियों के अनुरूप विचारशीलों को बदलते रहना चाहिए, ये तथ्य जन-जन के गले अगले दिनों उतरेंगे तो धर्म संबंधी संव्याप्त भ्रान्तियां मिटते देर न लगेगी। अध्यात्म के विज्ञान सम्मत स्वरूप को भावी पीढ़ी जप अपनी तर्क सम्मत भाषा में प्रतिपादित होते देखेगी तो अन्दर से अध्यात्म अनुशासनों को हृदयंगम की ललक उठेगी।
प्रज्ञा अभियान के सारे निर्धारण दैवी सत्ता द्वारा इस शिक्षण रीति से संचालित होते रहे हैं कि सभी देखने वाले आश्चर्यचकित होकर रह गए हैं। यह सम्मोहन नहीं, वास्तविक था। अध्यात्म क्या था, क्या हो गया व क्या होना चाहिए? इस तथ्य का प्रकटीकरण एवं जन साधारण का मार्ग दर्शन करने हेतु एक ज्वलन्त उदाहरण की, प्रकाश स्तम्भ की आवश्यकता थी। पूज्य गुरुदेव के रूप में उसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जो भी कुछ गतिविधियां इस विराट प्रज्ञा परिवार की दृष्टिगोचर होती हैं अथवा जिनकी भावी फलश्रुतियां वर्णित की जाती हैं, वे यह आश्वासन दिलाती हैं कि ‘‘सही अध्यात्म’’ का अवलम्बन किसी भी दृष्टि से घाटे का सौदा नहीं है। इसे अब अगणित व्यक्तियों के कायाकल्प के माध्यम से देखा जा सकता है जो दैवी तन्त्र से जुड़े एवं स्वयं को अंगुलिमाल, अम्बपाली की तरह बदलकर अपना जीवन जिनने धन्य बना लिया।
स्वयं गुरुदेव के जीवन की जितनी गतिविधियां प्रकट रूप में सर्वविदित हैं, वे भी अध्यात्म अवलम्बन की गरिमा को सिद्ध करती हैं। इसके अतिरिक्त अदृश्य और अविज्ञान न जाने कितना ऐसा है जिस पर जान बूझकर पर्दा डाला जाता रहा है। जैसा उनका आदेश है, उन सब का प्रकटीकरण तब ही होगा जब उनका स्थूल शरीर न रहेगा। यह आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि जन साधारण अध्यात्म की गरिमा को समझेगा, अपनाने का साहस जुटायेगा एवं अन्य अनेकों को इस दिशा में अग्रसर होने हेतु प्रोत्साहित करेगा।
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*समाप्त*
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