अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

व्यापक क्षेत्र में आलोक वितरण

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मथुरा, हरिद्वार और आंवलखेड़ा के तीन स्थानों के दो-दो आश्रमों के अन्तर्गत जो क्रिया कलाप चल रहा है उसकी चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। देखने में यह एक व्यक्ति की हिम्मत, सूझबूझ और पुरुषार्थ परायणता की अनुकृति दीखती है। पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। सामान्य स्तर का व्यक्ति न इतने बड़े कार्यों का ढांचा खड़ा कर सकता है और न उनके लिए प्रचुर मात्रा में साधनों की आवश्यकता की पूर्ति ही। याचना का पल्ला न फैलाने का व्रत लेकर चलने पर तो बात और भी कठिन हो जाती है। यह निर्णय इसलिए किया गया कि व्यक्ति की प्रामाणिकता और प्रखरता यदि विश्वास योग्य हो तो उसके समीप स्वेच्छा सहयोग को दौड़कर आना चाहिए। यदि उसको याचना करनी पड़ी और दुत्कार सहने की स्थिति बनती रही तो समझना चाहिए कि अपना ही दाम खोटा रहा। परखने वाले को क्या दोष। समुद्र में नदियों का, नदियों में खेत नालों का पानी यदि दौड़ कर आता है तो कोई कारण नहीं कि अध्यात्म का चुम्बकत्व साधन ही नहीं सहयोग भी, सहयोग ही नहीं श्रद्धा विश्वास को भी अपने तक घसीट न लाये। बात कहने सुनने में असंभव प्रतीत होती है पर हाथ कंगन को आरसी क्या? जिसका मन हो, वह यह जांच पड़ताल कर सकता है कि यह सब कैसे बन पड़ा और इतने थोड़े समय में घर बैठे इतनी विशाल कार्य व्यवस्था कैसे बन गई। यह और कुछ नहीं मात्र अध्यात्म का चमत्कार है। चमत्कार उन्हें नहीं कहते जिनमें बालों में से बालू निकाली जाती है हवा में से लौंग इलायची मंगाई जाती है गुर्गों से अत्युक्तियां फैलाकर जिस-तिस की जेब काटी जाती है। ऐसे लोगों की कहीं कमी नहीं। वे गांव-गांव, नगर-नगर में भरे पड़े हैं और चित्र विचित्र पाखण्ड रचते रहते हैं।
वास्तविक अध्यात्म बुद्ध, गांधी की तरह वातावरण को बदलता है और ऐसे कार्यों की योजना बनाता है जिसके साथ लोक मंगल जुड़ा हुआ हो। आत्म कल्याण का पुण्य और जन कल्याण का परमार्थ सिद्ध होता रहे। गुरुदेव की अध्यात्म साधना की दिव्य क्षमता की परिणिति इसी प्रयोजन के निमित्त हुई है।
उपरोक्त तीन स्थानों में चल रही गतिविधियों में ही बात समाप्त नहीं हो जाती वरन् उस आलोक का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। प्रज्ञा मिशन की गरिमा को समझने वालों और उसके साथ जुड़ने घुलने वालों की संख्या 24 लाख है। इतनी ही संख्या में गुरुदेव के महापुरश्चरण भी सम्पन्न हुए हैं।
यह समुदाय वह है जिसने अपने मार्ग दर्शक की भांति निजी जीवन को परिष्कृत परिमार्जित किया है दोष दुर्गुणों को एक-एक करके छोड़ा है जो परमार्थ के निमित्त लोक मानस के परिष्कार में यथा संभव योगदान दिया है। उनका समय दान और अंश दान ही अपने क्षेत्र में प्रकाश उत्पन्न करने में समर्थ बनता जा रहा है।
देश के कोने-कोने में 2400 प्रज्ञा पीठों के नाम से भव्य भवन इसी समुदाय ने बनाये हैं। स्वाध्याय मंडल प्रज्ञा संस्थानों के नाम से इन्हीं के प्रायः पंद्रह हजार संगठन हैं। उनके माध्यम से इन दिनों वातावरण परिशोधन परिवर्तन के लिए प्रतिदिन 240 करोड़ गायत्री जप और 24 लाख गायत्री चालीसा पाठ का पुरश्चरण क्रम चल रहा है। इतनी बड़ी सामूहिक संकल्पित साधना इससे पूर्व कदाचित ही कभी हुई हो। 20 वर्ष की लम्बी अवधि तक नियमित रूप से चलते रहने का कभी कहीं निर्धारण हुआ हो और वह प्रयास परिपूर्ण सफलता के साथ अग्रसर होता रहा हो, ऐसी गाथा इतिहास पुराणों में भी ढूंढ़ने को नहीं मिलती।
गायत्री यज्ञ के साथ जुड़े युग निर्माण सम्मेलन अब तक हजारों की संख्या में पूरे हुए हैं। गायत्री के माध्यम से सद्ज्ञान और यज्ञ के माध्यम से सत्कर्म की दार्शनिकता हृदयंगम कराई जाती रही। युग निर्माण सम्मेलनों ने आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण में विविध दिशा धाराओं को अपनाने के लिए कोटि-कोटि मानवों को उकसाया। साथ ही नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति के नाम पर अवांछनीयताओं, अनैतिकताओं, मूढ़ मान्यताओं एवं कुप्रचलनों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जन-जन को उत्साहित, तत्पर एवं सान्निध्य किया। इस सुनियोजित लोक शिक्षण की परिणित हाथों हाथ सामने आती रही। अगणित लोगों ने यज्ञ की साक्षी में अपनी दुर्बलताएं दुष्प्रवृत्तियां संकल्प पूर्वक छोड़ी और उस संकल्प के निर्वाह की अविचलित ठान-ठानी इतना ही नहीं एक-एक दो-दो कर उन सद्गुणों को शपथ पूर्वक अपनाया जिनकी उनमें कमी थी। वह व्रत भी प्रायः सभी संकल्पवानों का निभा। कदाचित ही कुछ लोग उस सन्दर्भ में भूले भटके हों। जो लड़खड़ाये वे भी संभल गये और फिर सही राह पर चलते रहे।
आत्म निर्माण के अतिरिक्त दूसरा आन्दोलन चलता रहा परिवार निर्माण का। घर के वातावरण को ऐसा बनाने की सीख दी गई है जिससे अपना घर आंगन ही स्वर्गोपम बन सके। परिवार के हर सदस्य के स्वभाव और व्यवहार में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शिष्टता, सहकारिता जैसे पारिवारिक पंचशीलों का गहराई तक समावेश होता रहे। सुसंस्कृत ही नर रत्नों की खदान सिद्ध होते रहे हैं। परिवार ही व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी है। उन्हें समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए कोई व्यापक एवं व्यावहारिक आन्दोलन नहीं चला। यह युग निर्माण योजना की ही सूझ-बूझ रही जिसने एक नया क्षेत्र अपनाया और उसमें सुयोग्य नागरिकों की नई फसल को उगाकर दिखाया।
सामाजिक संगठन एवं सुधार की बातें कई लोग कहते रहे हैं। भाषणों, प्रस्तावों एवं लेखों की भी धूम रही है पर ऐसा कुछ बन नहीं पड़ा। जिससे उसकी परिणति जादुई स्तर की दीख पड़े। खर्चीली शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। यह नारा जोर से लगाया गया और दहेज, धूमधाम एवं बारात के लम्बे चौड़े स्वरूप को सब ओर से दबोचकर सीमाबद्ध किया गया। आदर्श सादगी के साथ सामूहिक विवाह योजनायें सम्पन्न हुई। ऐसे विवाहों के लिए स्थानीय दबावों से मुक्त करने के लिए शांतिकुंज में आदर्श शादियां बिना कुछ भी खर्च करने की सुविधा के साथ हर साल बड़ी संख्या में सम्पन्न होती रहीं। अब नये कानून के अनुसार दहेज लेने वालों को कानूनी शिकंजे में कसने और स्त्री धन राशि पर ससुराल वालों को सहमत किया जा रहा है। इसी प्रकार जातिगत नीच-ऊंच भावना के विरुद्ध कारगर संघर्ष छेड़ा गया है। जन जातियों के साथ घनिष्ठता स्थापित करके उन्हें समाज की प्रमुख धारा में जुड़ने के लिए सहमत किया गया है।
मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, पर्दाप्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, जेवर, फैशन परस्ती, नशेबाजी आदि के विरुद्ध जनमत बनाया और उन्हें रोका गया है। दो सन्तान से अधिक कोई दम्पत्ति प्रजनन न करे इस सन्दर्भ में लाभ हानि को इस प्रकार बताया गया है कि उस परामर्श को प्रत्येक विचारशील द्वारा अपनाया जा सके।
प्रौढ़शिक्षा और व्यायामशाला संस्थान के लिए कितने ही लोक सेवी प्रशिक्षक निकाले गये हैं। वृक्षारोपण, घरेलू शाक वाटिका, जड़ी-बूटी उद्यान लगाने के लिए लोगों को उत्साहित, सहमत और बाधित किया गया है। इस प्रकार समाज की अभिनव संरचना के लिए कुछ उठा नहीं रखा गया है।
यह वर्ष गुरुदेव का हीरक जयन्ती वर्ष है। इसमें दो नये कार्य आरंभ किये गये हैं। प्रज्ञा प्रशिक्षण खुले विश्वविद्यालय योजना स्तर का है। इसमें एक वर्षीय पाठ्यक्रम होगा। जीवन निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण का सुनियोजित पाठ्यक्रम रहेगा। साथ ही सुगम संगीत का अभ्यास और भाषण कला का अनुभव कराने की भी शिक्षा सम्मिलित रहेगी। उद्देश्य यह है कि स्थानीय स्तर पर चरित्र निष्ठा और समाज सेवियों की बहुलता हर साल बढ़ती रहे।
दूसरा काम है वीडियो फिल्मों के माध्यम से रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों का स्वरूप और सत्परिणाम जन-जन को सुझाना। इसके लिए आश्रम की तीस जीप गाड़ियां निरन्तर देश भर में भ्रमण करती रहेंगी। सभी भाषाई क्षेत्रों के लिए यह योजना तैयार की गई है और उसका प्रकाश विस्तार विशेष रूप से अशिक्षित ग्रामवासियों तक पहुंचाने की तैयारी है। अब तक जीपों में मंडलियां और प्रवचन कर्ताओं को भेजने की योजना चलती रही है। जो बहुत लोक प्रिय हुई है। आशा है कि वीडियो प्रचार योजना और भी अधिक आकर्षक एवं प्रभावशाली सिद्ध होगी।
प्रवासी भारतीयों से अब तक वैसी कोई योजना कार्यान्वित नहीं हुई थी जैसी कि योरोप, अमेरिका में ईसाई मिशनरी अपनी विचारधारा को पिछड़े क्षेत्रों में पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। भारत के साधुओं धर्म प्रचारकों में से अधिक किसी बहाने चंदा इकट्ठा करने अथवा ‘‘योगा’’ के नाम पर लोगों को बहकाते लूटते भर रहे हैं। इस प्रवाह से सर्वथा हटकर प्रज्ञा मिशन ने प्रवासी भारतीयों में ऐसी प्रेरणा भरने के लिए प्रयास किया है जिसके अन्तर्गत वे अपने सांस्कृतिक परम्परा को, देव भाषा को विस्मरण न कर बैठें। प्रायः 74 देशों में ऐसे प्रचार केन्द्रों की स्थापना की गई है और उन्हें इसके लिए संगठित होने तथा योजना बद्ध रूप से रचनात्मक कार्यों की स्थापना के लिए कहा गया है।
इस स्तर के प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए देश विदेश में मिशन के अनेक कार्यकर्ता कटिबद्ध हैं। वानप्रस्थ परम्परा एक प्रकार से लुप्त ही हो गई थी। गृहस्थ, ब्राह्मण अपने निकटवर्ती क्षेत्र में और विरक्त वानप्रस्थी व्यापक क्षेत्र में जन जागरण का कार्य करते थे। इसी से सर्वत्र चरित्रनिष्ठा और लोक सेवा का वातावरण बना रहता था। अब वे परम्पराएं एक प्रकार से समाप्त ही हो गई। ब्राह्मण, वंश और साधु वेष की आड़ में लाखों लोग अभी भी धन और सम्पत्ति बटोरते देखे जाते हैं पर उनके जो कर्त्तव्य एवं दायित्व थे उन्हें एक प्रकार से भुजा ही बैठे हैं। इसलिए प्रज्ञा अभियान ने नये स्तर के लोकसेवी हर वर्ण एवं क्षेत्र से विनिर्मित प्रशिक्षित किए हैं। विचारशील, प्रतिभावानों का एक बड़ा समुदाय लोकसेवी के रूप में कार्य क्षेत्र में उतरा है। इसे पुरातन साधु ब्राह्मण परम्परा का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।
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