अध्यात्म विज्ञान का एक सुनिश्चित सिद्धान्त है—‘‘बोओ और काटो’’ यह सभी महत्वपूर्ण विषयों पर समाज रूप से लागू होता है। किसान बीज बोता, सींचता-संजोता और मूल्यवान फसल काटता है। विद्यार्थी भी अपना समय, श्रम एवं धन लम्बे समय तक अध्ययन में खर्च करता है और समयानुसार विद्वान, पदाधिकारी बनता है। व्यवसायी पूंजी जुटाता है, उद्योग का समग्र ढांचा खड़ा करता है और चल पड़ने पर लाभांश संचित करके समृद्ध बनता है। यही उपक्रम आध्यात्मिक प्रगति के संबंध में भी लागू होता है। साधना से सिद्धि का सिद्धांत सही है; पर उनके साथ यह तथ्य भी अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है कि आत्म-संयम और परमार्थ के भरे-पूरे अनुदान भी इस हेतु समर्पित करने पड़ते हैं। जीवन क्रम को आदर्शों से ओत-प्रोत किये बिना, बहिरंग और अन्तरंग में उत्कृष्टता का समावेश किये बिना कोई व्यक्ति ऐसी सिद्धि सफलता अर्जित नहीं कर सकता, जिसे चमत्कारी, प्रेरणाप्रद एवं अभिनन्दनीय कहा जा सके।
गुरुदेव ने इस तथ्य को आरंभ में ही हृदयंगम कर लिया था और उसके लिए योजनाबद्ध रूप से क्रमिक विकास करते रहने की तैयारी भी। दूसरे लोग इस सन्दर्भ में कोई ठोस प्रयास करने से कतराते हैं और सस्ती टंट-घंट के सहारे वैतरणी पार करते हुए स्वर्ग लोक जैसा आनन्द इसी जीवन में प्राप्त करना चाहते हैं; बिना आधार के दिवास्वप्न देखते रहते हैं। सुदृढ़ आधार अपनाये बिना कोई उच्चस्तरीय सफलता कैसे मिले? यही कारण है कि अधिकांश लोग अपनी असफलता का रोना रोते रहते हैं और या तो निराश हो बैठते हैं या फिर नकटा सम्प्रदाय की तरह ढोंग रचकर झूठ-मूठ की सिद्धाई बघारने लगते हैं।
गुरुदेव को अध्यात्म विज्ञान की तह तक जाना था, इसलिए उन्होंने राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, कुण्डलिनी योग, ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्ति योग आदि सभी भारतीय और अभारतीय योग साधनाओं का गंभीर अध्ययन, पर्यवेक्षण किया और पाया कि यह सभी मार्ग साधक को प्रथम चरण-आत्मपरिष्कार के रूप में उठाने का मार्ग दर्शन करते हैं। उपचार, विधान इसके उपरान्त ही बन पड़ते हैं। जो लोग अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार का स्तर तो नीचा रखते हैं; पर उछलकर कुण्डलिनी जागरण, ईश्वर-दर्शन, शक्तिपात आदि की लालसाएं संजोते हैं, उनकी बाल-क्रीड़ा उसी प्रकार निष्फल होती है, जैसे कोई अबोध बालक वर्णमाला सीखने की उपेक्षा करे, एम.ए. का कोर्स तुर्त-फुर्त पूरा कर लेने का हट करे और अपनी ही बात पर अड़कर मचलने लगे। इतने पर भी इसकी इच्छानुसार बात बनती नहीं।
गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शक का आदेश शिरोधार्य करते हुए यही निश्चय किया कि अपना समूचा संग्रहीत साधन बीज रूप से परमार्थ प्रयोजन के लिए बो दिया जाय, ताकि वह हजार गुना होकर वापिस लौट सके। मक्का, बाजरा, ज्वार के खेतों में यही होता है; एक बीज अपने पौधे पर हजार नये दाने उत्पन्न करता है। आम, जामुन आदि वृक्षों में ही यह प्रक्रिया उत्पन्न होती है कि वे एक बीज से पेड़ बनते हैं, पर हर वर्ष वे अपने फलों में हजारों नये बीज उत्पन्न करते रहते हैं। सुदामा के तंदुल शबरी के बेर आरंभिक अनुदान के रूप में भेंट किये गये थे किन्तु कालान्तर में वे असंख्य गुने होकर लौटे और दाताओं को कृत-कृत्य बनाकर रहे।
गुरुदेव ने भी इसी नीति को अपनाया। उनने तपश्चर्याएं, योग साधनाएं भी कम नहीं की हैं। पर उनमें हाथ डालने के साथ-साथ ‘‘बोया काटा’’ वाली नीति को अपनाये रखा, दोनों को अलग करके एक पहिए की गाड़ी चलाने, एक हाथ से ताली बजाने की तरह उन्होंने हवाई कुलांचे भरने की मूर्खता नहीं की।
हर किसी के पास कुछ अपना कमाया होता है कुछ ईश्वर का दिया हुआ। ईश्वर प्रदत्त साधनों की दृष्टि से सबको समान मिला है। स्व-उपार्जन में ही न्यूनाधिकता पायी जाती है। समय, श्रम, प्रतिभा, विवेक यह ईश्वर प्रदत्त हैं और धन साधन अपने पुरुषार्थ का प्रतिफल। इसी समूचे वैभव को विश्व मानव के लिए उसकी सर्वोपरि सेवा, विचार परिष्कार के लिए नियोजित किया। साथ ही यह भी ध्यान रखा कि पिछड़े वर्ग को उठाने में, आगे बढ़ने वालों को सहारा देने में तथा पीड़ितों को प्रत्यक्ष सहायता देकर उनके आंसू पोंछने में कुछ उठा न रखा जाय।
जप-तप वे कब, किस प्रकार क्या करते हैं? इसका समूचा विवरण विस्तार उन्हें स्वयं ही मालूम है। उसकी चर्चा वे प्रायः नहीं ही करते रहे हैं; क्योंकि पहलवान जो कठोर व्यायाम करते हैं, वे सर्वसाधारण के लिए उपयोगी नहीं हो सकते। उन्हें उनकी स्थिति के अनुरूप ही परामर्श दिये जाते हैं। इसलिए जो बालकों से न बन पड़े, उसकी चर्चा करके माहात्म्य बताकर ललचाने से व्यर्थ ही मतिभ्रम पैदा होता है, किन्तु गुरुदेव की जो सेवा साधना है, वह प्रत्यक्ष है। सहायता प्राप्तों ने आप बीती को अनायास ही एक जीभ से सौ कानों को परिचित कराया है और वह विवरण, प्रकरण अब प्रायः सर्वविदित हो गया है। यदि ऐसा सेवा साधना से, त्याग परमार्थ से विरत रहा गया होता और माला घुमा कर सस्ते मोल में स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि शान्ति, समृद्धि प्राप्त करने का ठाठ रोपा होता तो उन्हें भी तथाकथित साधकों की तरह नियान्त खाली हाथ रहना और उपहासास्पद बनना पड़ता। तप साधना के निजी प्रयासों के अतिरिक्त पुरातन साधु-ब्राह्मण की परम्परा अपनाई और साधना की तरह लोक-सेवा में भी तत्परता पूर्वक संलग्न रहे। वे रात में अपनी नियत साधना से निपट लेते हैं और सूर्य निकलने से लेकर सूर्यास्त तक सेवा साधना में लगे रहते हैं। यही क्रम आरम्भ से लेकर अद्यावधि इन 40 वर्षों में चला है।
लेखनी, वाणी द्वारा लेखन एवं कथन के अतिरिक्त प्रत्यक्ष अनुदान की नीति भी उनने अपनाई और उसके प्रत्यक्ष परिणाम ‘‘नकद धर्म’’ की तरह हाथों हाथ देखे।
उनने स्वयं तो कुछ कमाया नहीं। 15 वर्ष की आयु से ही जब साधना रत हो गये, तो कमाते कहां से? पर पूर्वजों की उत्तराधिकार में छोड़ी सम्पदा इतनी थी, कि उसका समर्पण भी महत्वपूर्ण प्रतिफल उत्पन्न कर सका।
खुदकाश्त की जमीन बेचकर आंवलखेड़ा का विद्यालय बना। जमींदारी उन्मूलन से मिली राशि को गायत्री तपोभूमि निर्माण में लगाया गया। बच्चों की पढ़ाई आदि में जो खर्च हुआ था, उसे वापिस लौटाकर माता जी ने शान्तिकुंज हरिद्वार की जमीन खरीदी। माता जी के जेवर भी इसी हेतु बिके और लगे। अब इस दम्पत्ति के पास निजी सम्पदा के रूप में एक कानी कौड़ी भी नहीं है। पेट भरने और तन ढकने भर की सुविधा मिशन से प्राप्त करते हैं। यह अपरिग्रह, सर्वमेध उन्हें लोभ-लिप्सा से छुट्टी दिला सका। मोह निजी परिवार से विमुक्त हुआ, तो ही गायत्री परिवार के विशालकाय परिकर में विस्तृत हो सका और लाखों को सघन स्नेह सूत्र में इस प्रकार बांध सका, जिसके बन्धन कोई इच्छा करने पर भी तोड़ नहीं सकता। इसे संकीर्णता की व्यापकता में परिणिति ही कही जा सकती है। पूर्वजों द्वारा मिली सम्पदा भी उनके पूर्वजन्मों की कमाई ही थी। गीता की वह उक्ति प्रत्यक्ष सिद्ध हुई, जिनमें कहा गया है कि योग मार्ग की अपूर्णता में शरीर छोड़ने पर अगला जन्म साधन सम्पन्न परिवारों में होता है। उपयुक्त वातावरण और वैभव उन्हें जन्मजात रूप से ही उपलब्ध हुआ। उपनयन और गायत्री मंत्र की दीक्षा उन्हें महामना मालवीय जी से मिली। पिता जी संस्कृत के उद्भट विद्वान और अनेक राज दरबारों में उन्हें राजगुरु का स्थान प्राप्त था। उनने अपनी भावना और संस्कृति इन होनहार बालक को आरंभ से ही प्रदान की, जिसे उन्होंने पूरी तरह लोक
मंगल के लिए समर्पित कर सच्चा पितृ श्राद्ध कर दिया।
निजी अनुदान से आरंभ हुई उदारता का ही यह प्रतिफल था, कि भावनाशीलों का अपरिचित स्वेच्छा सहयोग उन पर बरसता रहा और तीन स्थानों की छः इमारतें तथा 2400 प्रज्ञापीठों के निर्माण में लगी करोड़ों की राशि अनायास ही उपलब्ध होती रही। जिस घर में वे जन्मे और विवाहे थे, उसमें अब मात्र पांच वृक्ष लगा दिये गये हैं, ताकि व्यक्तिगत अधिकार जैसी कोई बात कहीं भी न दीख पड़े।
अब श्रम और समय की बात आती है, वह सारा ही स्वतंत्रता संग्राम में जेल काटने, साहित्य सृजन में संलग्न रहने, मिशन का इतना बड़ा ढांचा खड़ा करने में लग गया जिसके आधार पर कोटि-कोटि मनुष्यों को अपने जीवन में संयमशीलता एवं उदारता भरने का अवसर मिलता रहा है। युग निर्माण का वातावरण बन रहा है, विचार क्रान्ति विश्व व्यापी होने जा रहा है और अगणित रचनात्मक क्रिया-कलापों को सुविस्तृत तारतम्य विनिर्मित होता चला जा रहा है। इसे सूत्र संचालक के समयदान की प्रतिक्रिया कहा जाय; तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
गुरुदेव में माता जी ने प्यार बखेरा और श्रद्धा बटोरी। उनके सम्पर्क में लोग मात्र ज्ञान प्राप्ति के लिए ही नहीं आते, सेवा साधनाओं का मार्ग दर्शन प्राप्त करना भर उद्देश्य नहीं होता, वरन् वे अपनी निजी कठिनाइयों, विपत्तियों और प्रगति की आकांक्षाओं में उनका प्रत्यक्ष अनुदान भी चाहते हैं। प्यार का प्रमाण देने के अतिरिक्त और किसी रूप में नहीं दिया जा सकता। उसमें लेने की गुंजाइश होती ही नहीं। भक्ति योग की साधना दूसरों के आंसू पोंछने और रोतों को हंसता हुआ लौटाने के रूप में ही वह योग सधता है। नवधा भक्ति के नाम पर चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, चढ़ाने वाले लोग दूसरे ही होते हैं।
गुरुदेव के अनुग्रह से जितने लोगों ने अपने प्रत्यक्ष जीवन में जो सहायताएं प्राप्त की हैं, इनका लेखा-जोखा यदि प्रस्तुत किया जाय, तो एक महा पुराण ही बन सकता है। अब से 30 वर्ष पूर्व इस प्रकार के उल्लेखों की एक ‘‘गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार’’ पुस्तक छपी थी। पर अब बहुत दिनों से उसका प्रकाशन जान बूझकर बन्द कर दिया है; क्योंकि उस प्रकार के अनुदान याचकों की ही भीड़ बढ़ती रही, तो संचित तप—साधना का भण्डार उसी में चुक जायगा और यदि उपार्जन से व्यय अधिक बढ़ गया तो उसकी पूर्ति में कैंसर जैसे रोगों की व्यथा सहनी पड़ सकती है। कई वरदानियों को ऐसी क्षतिपूर्ति से भरी व्यथा सहनी भी पड़ी है।
कोटि-कोटि मानवों की श्रद्धा मात्र इसलिए नहीं मिलती कि उन्हें सद्ज्ञान का सन्मार्ग का प्रशिक्षण मिला, वरन् वस्तुतः उसका परोक्ष आधार यह है कि जो किसी उचित आकांक्षा को लेकर उनके द्वार पर आया, वह खाली नहीं गया। प्याऊ पर से कोई प्यासा नहीं लौटता। अस्पताल में किसी भी कारण आहत हुए पीड़ित को दुत्कारा नहीं जाता। इस प्रकार केन्द्र ने भी अपने को लुटाने और दूसरों को खिलाने में कमी नहीं रहने दी है। प्रज्ञा परिवार के इतने विस्तार और सहयोग में इस कारण भी असाधारण अभिवृद्धि हुई है।
धन, समय, श्रम, ज्ञान, प्रभाव और चिंतन जैसी निजी सम्पदाओं का पूरी तरह उपयोग जनता जनार्दन के निमित्त होते रहने का ही प्रतिफल है कि व्यक्तियों का उत्कर्ष, समाज की प्रगति एवं वातावरण में आशा का संचार हुआ है। निजी रूप में भी उनने जो पाया है, वह कम मूल्य का नहीं है। 75 वर्ष की आयु में भी वे नवयुवकों जैसी तत्परता से निजी साधना और लोक सेवा में दोनों प्रयास संतुलित रूप से यथावत् 18 घंटा प्रतिदिन की औसत से चलाते रहते हैं। जो शरीर अध्यात्म विज्ञान की प्रयोगशाला रहा है, उस में टूटने हारने जैसी विकृति पैदा नहीं हुई है। कोई कारण उसे डगमगा नहीं सका।
समय दान की परिणिति यह हुई कि उनने इतने से जीवन में 750 वर्ष जितना काम कर दिखाया। पांच व्यक्ति मिलकर जितना काम कर सकते थे, उतना उन अकेले से बन पड़ा। श्रमदान और समयदान संसार के लिए इतनी अधिक उपलब्धियां छोड़ सका, जिन्हें हजारों लाखों वर्षों तक भुलाया न जा सकेगा।
भावना और आकांक्षाओं को, गतिविधियों को सर्वतोभावेन जनता जनार्दन के लिए समर्पित कर देने का प्रतिफल तीन रूप में उपलब्ध हुए। एक अन्तराल के मर्मस्थल में, असाधारण संतोष और उल्लास। दूसरा कोटि-कोटि मानवों द्वारा सम्मान और सहयोग का प्रतिदान। तीसरी दैवी अनुग्रह का अजस्र अभिवर्षण। यदि ऐसा न हुआ होता, तो विघ्न, व्यतिरेक आक्रमण, असमंजस ही उनकी गतिविधियों में अवरोध उत्पन्न कर सकते और जो हो सका उसका बन पड़ना असंभव कर देते। वस्तुतः दैवी अनुग्रह ही उनके पीछे हैं, जिसके सहारे वे अपने इष्ट देव को बॉडीगार्ड की तरह मार्गदर्शक की तरह, सहायता बरसाने वाले इन्दु-कुबेर की तरह हर घड़ी अपने आगे-पीछे और चारों ओर हर समय विद्यमान देखते हैं।
परिवर्तनकारी प्रचण्ड महाकाली का अवतरण
विगत दो वर्षों से गुरुदेव अपनी एकान्त साधना में हैं। उच्चस्तरीय साधना के लिए जितनी एकाग्रता और एकान्त सुविधा अभीष्ट है उतनी इसी उपाय को अपनाने से मिल सकती है। इसे पलायन वाद नहीं समझा जाना चाहिए वरन् ऐसे चरम पुरुषार्थ की भूमिका कहना चाहिए जैसी कि अब तक सम्भव नहीं हो सकी।
समय की दो मांगें इन दिनों अत्यन्त प्रबल हो गई हैं, जिनमें से एक है महा विनाश के छाये हुए घटा टोप को निरस्त करना और दूसरा है युग परिवर्तन युग सृजन की आशा को समर्थ सार्थक प्रत्यक्ष कर दिखाना। इन कार्यों को लंका दहन और राम राज्य संस्थापना के समतुल्य कहा जाय तो भी कुछ अत्युक्ति न होगी।
इन दिनों महा प्रलय जैसी कितनी ही दुधुर्ष परिस्थितियां प्रबल हो रही हैं। जिनमें से एक है महा युद्ध, परमाणु युद्ध की स्टार वार की संभावना जो कभी कार्यान्वित हो चली तो इस पृथ्वी पर से जीवन का अन्त ही नहीं हो जायगा वह जीवधारियों के रहने योग्य नहीं रह जायगी। इतना ही नहीं यह भी हो सकता है कि समस्त ग्रह नक्षत्रों में अद्भुत समझी जाने वाली यह पृथ्वी चूर-चूर होकर उस तरह टुकड़े-टुकड़े होकर उड़ जायगी जैसे कि मंगल और बृहस्पति के बीच में किसी टूटे ग्रह का कचूमर छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में भ्रमण करता रहता है। अणु युद्ध का दैत्य पौराणिक दैत्यों की तुलना में सबके समन्वय जितना भयंकर है। इस विभीषिका से विचारशीलों में से प्रत्येक का दिल धड़क रहा है। महा प्रलय की तलवार कच्चे धागे से बंधी हुई लटक रही है। आशंका है कि वह न जाने कब टूट पड़े और धरातल को धुएं में बदल दे।
दूसरी विभीषिका है—पर्यावरण प्रदूषण औद्योगिक सभ्यता ने विषैले धुएं से आसमान को भर दिया है और सांस लेना तक खतरनाक बन गया है। नदी सरोवर से लेकर समुद्र तक में मिल कारखानों से उत्पन्न प्रदूषण भर गया है और शुद्ध पेय जल का मिलना दुर्लभ हो रहा है। रासायनिक खादों और कीट नाशक रसायनों की भरमार से खाद्य पदार्थ विषैले बनते जा रहे हैं। भूगर्भ के अत्यधिक दोहन से संचित धातु भण्डार और खनिज तेजों की पूंजी समाप्त होती जा रही है। फलतः भूकम्प जैसी दुर्घटनाओं का दौर पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गया है।
तीसरा संकट है विकिरण का। युद्ध के लिए तथा विद्युत उत्पादन के अणुशक्ति का विस्तार हो रहा है। उसके प्रयोग परीक्षण एवं कार्यान्वयन से रेडियो विकिरण की असाधारण वृद्धि हो रही है। अब तक जो इस दिशा में हो चुका है और अगले दिनों जो होने वाला है उन सब की परिणति अन्तरिक्ष को ऐसी रेडियो धर्मिता से भरकर रहेगी जिसमें जीवित मनुष्य कैंसर जैसे चित्र-विचित्र रोगों से संशस्त हों और नई पीढ़ियां अपंग अविकसित स्तर की पैदा हों। ऐसी स्थिति में सम्पन्नता का सुख प्राप्त करना तो दूर पीड़ा व्यथा, शिथिलता, अपंगता, प्रकृति की प्रतिकूलता जैसे अनेकानेक संकटों से भूलोक के घिर जाने का खतरा है।
चौथा संकट है जन संख्या की तूफानी अभिवृद्धि का। दो हजार वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर मात्र 15 करोड़ जन संख्या थी। चक्र वृद्धि दर से बढ़ते बढ़ते वह 500 करोड़ हो गई। अगले दिनों आधी शताब्दी के भीतर वह दूनी अर्थात् 1000 करोड़ हो जाने की सम्भावना है। इतने लोगों के लिए अन्न, जल, वस्त्र, शिक्षा, निवास, चिकित्सा, वाहन जैसे आवश्यक साधनों का जुट सकना किसी प्रकार सम्भव न रहेगा। प्रगति के लिए किए गये प्रयास उतनी तेजी से न दौड़ सकेंगे जिससे बढ़ती हुई जन संख्या की आवश्यकताएं पूरी हो सकें। जब लोकों को सड़कों पर चलने तक की सुविधा को बढ़ी हुई भीड़ छीन लेगी। तो उस टिड्डी दल की इस दुर्गति के साथ धीमी आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकना किसी भी बुद्धिमान के लिए सरल है। कठिनाई यह है कि रोकथाम के उपाय भी सरल नहीं हो रहे हैं और बाढ़ बेतरह बढ़ती आ रही है।
पांचवां संकट है मानवी गरिमा का असाधारण अद्यः पतन। दृष्टिकोण, चिन्तन चरित्र एवं व्यवहार में पशु पिशाच स्तर की निकृष्टता का बढ़ता समावेश। मर्यादाएं और वर्जनाएं टूट रहीं हैं। अपराधों की बाढ़ आ रही है। पारस्परिक सद्भाव सहयोग और विश्वास की दिन-दिन कमी आती जा रही है। लगता है हम सुविधा और सभ्यता के प्रचुर साधन होते हुए भी स्तर की दृष्टि से आदिम युग की ओर लौट रहे हैं। झगड़े बढ़ रहे हैं। सहयोग के सूत्र ढीले हो रहे हैं। ऐसी दशा में दिखावटी प्रगति का ढकोसला खड़ा रहने पर भी भीतर का खोखलापन भविष्य को अन्धकारमय बनाकर ही रहेगा।
यह पांचों विभीषिकाएं ऐसी हैं जिनमें से एक ही सर्वनाश के लिए पर्याप्त है। फिर पांचों का एक साथ संयुक्त आक्रमण होने पर तो भविष्य की स्थिति कितनी डरावनी हो सकती है इसका अनुमान लगाने में दो मत नहीं हो सकते हैं।
इन पांचों मोर्चों पर एक साथ जूझने और उन्हें निरस्त करने के लिए कितनी प्रचण्ड शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी इसे समझना कठिन नहीं है। इस प्रयास में भौतिक प्रयत्न सफल नहीं हो सकते आध्यात्मिक कोई प्रचण्ड क्षमता ऐसी अवतरित होनी चाहिए जिसे महाकाली की उपमा दी जा सके। संकट को निरस्त करने के लिए इन्द्र वज्र जैसा अति मानवी अस्त्र चाहिए जिसके लिए दधीचि की तपोपूत अस्थियों से कम की साधन सामग्री नहीं चाहिए। इसे कौन प्रस्तुत करे? इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए इन दिनों गुरुदेव की प्रचण्ड साधना चल रही है। इसी के लिए उन्हें ऐसा कुछ करना पड़ रहा है। जिनकी रूप रेखा समझने समझाने तक की पत्रिका सरल नहीं है।
प्राचीन काल में विश्वामित्र ने राम, लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के लिए अपने आश्रम में बुलाकर दो विद्याएं सिखाई थी। एक बला दूसरी अतिबला। इनमें से एक भौतिक है दूसरी आत्मिक। एक को सावित्री कहते हैं दूसरी को गायत्री। एक के सहारे असुरता उन्मूलन हुआ था दूसरी के माध्यम से रामराज्य संस्थापन। एक ध्वन्यात्मक है दूसरी सृजनात्मक।
गुरुदेव ने अब तक सृजन पक्ष वाली शक्ति का ही उत्पादन उपार्जन किया है और उसी के माध्यम से प्रज्ञा प्रसार की योजना को आश्चर्यजनक सफलता के स्तर तक पहुंचाया है। भावी सृजन अभ्युदय में भी उसी से काम चलेगा। पर तात्कालिक पांच विपत्तियों से जूझने के लिए महाकाली स्तर की सावित्री शक्ति की आवश्यकता पड़ रही है। इसी का उद्भव इन दिनों एकान्त साधना में चल रहा है। इसके परिणामों की ही आशा और आश्चर्य भरी प्रतीक्षा के साथ हमें देखना चाहिए। कार्य विधि जानने की उत्कण्ठा व्यर्थ है। उसका आदान-प्रदान हिमालयवासी सूक्ष्म शरीर धारी दिव्य पुरुष और गुरुदेव के बीच ही चल रहा है। उसका आधार और सिद्धान्त प्रकट किया जा सकता है। पर विधान नहीं। उसकी गोपनीयता ही उपयुक्त है। प्रकटीकरण से कोई भयंकर व्यवधान भी आ सकता है। और यह भी हो सकता है कि कोई अनाड़ी उतावली में उसका अनुकरण करने लगे। अपने लिए विपत्ति उत्पन्न करे और दूसरों को बहकावे या संकट में डाले। जिनमें पात्रता होगी उनमें उपयुक्त समय आने पर विधान बताने वाली दिव्य सामर्थ्य जीवित रहेगी। शरीर मर जाने पर भी आत्मसत्ता यथावत बनी रहती है। अपेक्षाकृत और अधिक काम कर सकती है। सत्पात्रों को उच्चस्तरीय मार्ग दर्शन भी। सावित्री विद्या के लुप्त हो जाने की कोई आशंका नहीं। सत्पात्रों के सम्मुख उसका प्रकटीकरण करने वाले श्रोत कभी अवरुद्ध नहीं होते।
पांच शक्तियां ऐसी हैं जो सृजन प्रयोजनों में बढ़ चढ़कर योगदान दे सकती हैं; पर आज तो वे प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हैं, विपरीत दिशा में चल रही हैं, दिग्भ्रान्त भी हो रही हैं और भटकाव में ऐसा कुछ कर रही हैं जिससे सृजन की अपेक्षा विनाश को ही सहायता मिले। इन्हें सुधारा जाना है, राह पर लाया जाना है। उल्टे को उलट कर सीधा किया जाना है। इन सृजन शक्तियों को अभी से मोड़ मरोड़ कर उस दिशा धारा, रीति-नीति को अपनाने के लिए बाधित किया जाना है जिससे विश्व उद्यान को चंदन वन जैसी उपमा मिल सके। गुरुदेव की वर्तमान तपश्चर्या का दूसरा प्रयोजन यह भी है कि घ्वंस को रोकने के अतिरिक्त सृजन की शक्तियों को नव सृजन के लिए नियोजित करने के लिए झकझोरा घसीटा और बाधित किया जाय।
शक्ति सामर्थ्य के स्रोत पांच हैं—एक शासन। दूसरा धर्म। तीसरा अर्थ। चौथा ज्ञान। पांचवां कौशल। अब तक जो कुछ भी सृजन परिवर्तन अभिवर्धन, उत्पन्न हुआ है। उनमें इन पांचों में से किसी न किसी की भूमिका प्रमुख रही है आगे भी रहेगी ही।
शासन तन्त्र के सूत्र संचालकों की दुर्बुद्धि से सृजन में काम आने वाले साधन ध्वंस की वेदी पर बलि चढ़ाये जा रहे हैं। युद्धोन्माद उन्हीं पर चढ़ा है। निरीह जनता तो विश्व भर की उसके विपरीत है। पर यही सांड हैं जो आपस में टकराते और हरी-भरी फसलों को तोड़ फोड़ कर बर्बादी उत्पन्न करते हैं। जिनका कौशल बुद्धिबल, विज्ञानबल, जनबल, धनबल, युद्ध की तैयारियों में खप रहा है उसे यदि रोका जा सके और बदलकर सृजन प्रयोजन में निरत किया जा सके तो संसार से गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अशिक्षा, रुग्णता, अपराधी दुष्प्रवृत्तियों को एक वर्ष में समाप्त किया जा सकता है। सतयुग का वातावरण लौट सकता है और सर्वत्र प्रगति, समृद्धि और स्नेह भरी सहकारिता का वातावरण उगा और उठा हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है।
दूसरा आधार है धर्म। धर्म का तात्पर्य है चेतना का उत्कृष्टता के साथ गठबंधन। मानवी गरिमा का जन-जन के मन में प्रतिष्ठापन। भ्रम और विग्रह तो संकीर्णतावादी दुराग्रही सम्प्रदाय फैलाते हैं। आज धर्म को दबोचकर सम्प्रदाय उसकी छाती पर चढ़ बैठे हैं। इस स्थिति को बदला जाना है। जन-जन को समझाया जाना है कि मन की गरिमा की पक्षधर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का समन्वय ही धर्म है। वह कर्मकाण्डों, परम्पराओं, कीर्तनों तक सीमित नहीं है वरन् लेखनी वाणी, कला और प्रभावोत्पादक सृजन कृत्य भी उसमें सम्मिलित है।
साहित्य, फिल्म, गायन, अभिनय और प्रवचन, सम्मेलन के सभी प्रयोजनों को धार्मिकता का वातावरण बनाया था। लोक मानस को उदात्त दृष्टिकोण से अवगत एवं अभ्यस्त करना था। पर हो रहा है दायित्व के सर्वथा विपरीत। फलतः इन्हीं वर्गों ने जन मानस को पतनोन्मुख बनाया है। उसकी प्रतिक्रिया भी अपराध अभिवर्धन में होनी चाहिए थी, हो भी रही है। इन क्षेत्रों से सम्हलने के लिए कहा जायेगा। इंजन को पटरी पर चलाने की स्थिति बनायी जायगी अन्यथा उसका लुढ़क जाना तो भयंकर संकट उत्पन्न कर सकता है।
तीसरा स्रोत है धन। धन के बदले श्रम खरीदा जा सकता है। साधन जुटाये जा सकते हैं और विशाल तंत्र एवं अभियान खड़े किये जा सकते हैं। पूंजी को वासना, तृष्णा, संग्रह अहंकार और दुर्व्यसनों में भी खर्च किया जा सकता है। अधिक धनी बनने की लिप्सा में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शोषण किया जा सकता है। अनाचारों को प्रोत्साहन भी। पर यदि उसका सदुपयोग किया जा सके तो पूंजी के बल पर सृजनात्मक प्रयोजनों के निमित्त एक से एक बढ़कर उत्कर्ष संवर्धन प्रयासों का प्राण दिये जा सकते हैं। अगले दिनों या तो धन व्यक्ति के हाथों से छीनकर समाज, शासन के हाथों में केन्द्रित होगा अथवा जिनके पास भी निर्वाह से अधिक पूंजी है उन्हें सार्वजनिक जीवन में सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाना होगा। न लगायेंगे तो उन्हें इतराने की अपेक्षा सिर धुन-धुनकर अपनी क्षुद्रता के लिए पछताना पड़ेगा।
चौथा साधन है ज्ञान प्रशिक्षण। इस आधार पर व्यक्तियों को परिष्कृत और समाज निष्ठ बनाना पूर्णतया संभव है। श्रेष्ठ नागरिक एवं महापुरुष जिस खदान से निकलते हैं उसे विद्यालयों, पुस्तकालयों के प्रवचन परामर्श के माध्यम से लोकमानस को प्रभावित करने वाली शिक्षा ही समझा जाना चाहिए। आज यह तंत्र निरुद्देश्य झाड़ झंखाड़ों में भटक रहा है। अगले दिनों सरकारी शिक्षा का भी कायाकल्प होगा और जन स्तर पर विज्ञजनों द्वारा संचालित समानान्तर शिक्षा का व्यापक तंत्र खड़ा होगा जो सरकारी शिक्षा में रहने वाली त्रुटियों को अपने बलबूते सामान्य कर सके। आवश्यक नहीं कि शिक्षा के लिए पूरी तरह सरकार पर ही आश्रित रहा जाय। प्रौढ़ शिक्षा, नैतिक शिक्षा, व्यवहारिक कुशलता, शालीनता, गृह उद्योग व्यवसाय जैसे विषयों की शिक्षा निजी स्तर पर दी जा सकती है। नौकरी के लिए पढ़ाई जाने वाली मान्यता में आमूल चूल परिवर्तन किया जा सकता है और शिक्षा सुसंस्कारिता के लिए, सुव्यवस्था के लिए नीति अपनाने वाली बनाई जा सकती है। इसके लिए सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही प्रयासों की उपयोगी भूमिका निबाहने के लिए सहमत सक्षम बनाना पड़ेगा।
पांचवीं शक्ति है कौशल। इसे विशेषता भी कहा जा सकता है। वैज्ञानिक, शिल्पी, चिकित्सक, अन्वेषक, कलाकार स्तर की प्रतिभाएं से उनकी कौशल प्रतिभा का परिचय मिलता है। प्रतिभाओं का राष्ट्रीकरण होना चाहिए। उन्हें अपनी विशिष्टता से जनता को चमत्कृत करके विपुल स्वार्थ साधन की छूट नहीं मिलती थी। मध्यकाल में नगर की सर्वोत्कृष्ट सुन्दरी नागरिकों की कला एवं सौन्दर्य पिपासा को तृप्त करती थी और नगर वधू की पदवी प्राप्त करती थी। कौशल को उच्छृंखल नहीं होना चाहिए। उसे छुट्टल नहीं छोड़ा जाना चाहिए। आदर्शों की रस्सियों में कसा जाना चाहिए और मन मर्जी नहीं बरतने दी जानी चाहिए। यदि ऐसा रहा होता तो वैज्ञानिकों को परमाणु आयुधों के मृत्यु गैसों के बनाने की सुविधा कैसे मिलती? गायक कामुकता को भड़काने में सहायक क्यों होते? कला का पर्याय पाशविकता या उत्तेजना क्यों बनता? साहित्यकारों की कलम ऐसा क्यों लिखती जो लोकमानस को उद्धत बनाती है। यदि इन वर्गों ने मिलकर शान्ति, समृद्धि और श्रेष्ठता के पक्ष में काम किया होता तो स्थिति उससे सर्वथा विपरीत होती जैसी कि आज है। तब इस वर्ग को देवताओं को देवताओं जैसा सम्मान मिलता।
उल्टी रहा चलने वालों की गलती बताने और सही मार्ग पर चलने को निवेदन करने पर वह इसमें अपना अपमान अनुभव करता है और सर्व सत्ता का दावा करते हुए अपनी हठ वादिता को सुधारने के लिए सहज सहमत नहीं होता। आज प्रेस, अखबार फिल्म जैसे उद्योग लोकमानस को दिशा देने का नेतृत्व कर रहे हैं। राजा के अनुरूप प्रजा बनती हो सो ही नहीं है वरन् नेता के अनुरूप उनकी प्रभाव परिधि में आने वाले भी लोगों को अपने साथ या पीछे चलने को बाधित किये हैं। प्रभावशाली वक्ताओं ने जनता को उठाया भी है और गिराया भी। इन प्रतिभाओं पर अंकुश लगाना ही चाहिए। कानून उन्हें बाधित न कर सके। समाज की मांग उन्हें प्रभावित न करे तो ऐसी सूक्ष्म अध्यात्म शक्ति उभरनी चाहिए जो उनके अन्तराल को मरोड़ दें और बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अशोक, अम्बपाली एवं बिल्वमंगल, तुलसी की अपनी पुरातन दिशा किसी अज्ञात प्रेरणा से बदलनी पड़ी थी। उसी प्रकार कौशल क्षेत्र को प्रतिभा सम्पन्न विशेषताओं की राह पर लाया जा सके।
आंधी चलती है तब उसके साथ तिनके पत्ते और धूलिकण भी जमीन से उठकर आकाश चूमने लगते हैं। ऐसी आध्यात्मिक आंधी उठे, ऐसे चक्रवात तूफान मचले तो जड़ता को सक्रियता में बदल सकें। परिस्थिति को कुछ से कुछ बना दें। पिछले दिनों योगी अरविन्द, महर्षि रमण आदि का ऐसा ही एक प्रयोग हो चुका है। अब उसी की पुनरावृत्ति गुरुदेव की वर्तमान सावित्री साधना के रूप में ही हो रही है और उसके द्वारा ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया जा रहा है जो शिव के वीरभद्रों जैसा हाहाकारी चमत्कार खड़ा कर सके।
गुरुदेव की वर्तमान साधना को सूक्ष्मीकरण नाम दिया गया है। उसका उद्देश्य अपने सूक्ष्म पांच कोशों को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोषों को पांच भागों में विभक्त करके पांच सूक्ष्म वीर भद्र उत्पन्न करने का है जो उपरोक्त पांचों विभीषिकाओं से लड़कर उन्हें पछाड़ सकें। यही पांच वीरभद्र, पांच प्रकार की सृजन शक्तियों को धारण किए हुए प्रतिभाशाली वर्गों के अन्तराल में ऐसी हलचल उत्पन्न करना है जिसके दबाव में उन्हें अपने क्रिया कलाप पर नये सिरे से विचार करना पड़े और दिशा परिवर्तन के लिए सहमत होना पड़े। जब यह शक्तियां संकीर्ण स्वार्थ परता की परिधि से ऊपर उठकर लोक-कल्याण की बात सोचेंगी और तदनुरूप अपनी गतिविधियों में परिवर्तन करेंगी तो उसके परिणाम ऐसे होंगे, जिससे नव सृजन का प्रवाह द्रुतगति से बहता प्रतीत हो।
निजी स्वार्थ स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि आदि के लिए नहीं गुरुदेव उपरोक्त प्रयोजनों के लिए ही इन दिनों प्रचण्ड तप कर रहे हैं। लेखन के लिए भी वे इसी बीच थोड़ा समय निकालते हैं; क्योंकि यह भी उनकी तपश्चर्या का एक अविच्छिन्न अंग रहा है और रहेगा।
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