अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर

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अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश और प्रयास करने वालों से अधिकांश को यह कहते सुना गया है कि इतने दिन पूजा पाठ करने पर भी कोई कहने लायक उपलब्धि हस्तगत नहीं हुई। समय बेकार गया और निराशा हाथ लगी।
बड़ी आशायें बांधते और उसके लिए आवश्यक साधन जुटाने पर प्रयास आधे अधूरे काने कुबड़े ही रहते हैं और उनका प्रतिफल वैसा नहीं होता जैसा कि होना चाहिए। क्रिया पद्धति में अथवा योजना बनाने की विधि व्यवस्था में खोज रहे तो भी अभीष्ट प्रतिफल से वंचित रहना पड़ता है। बहुत ऊपर चढ़कर गिरने से करारी चोट लगती है। महात्माओं को सुनकर बड़ी आशायें बांधने और उस संदर्भ में कुछ हाथ न लगने पर भी यही हाल होता है।
लोग ईश्वर के दर्शन की आशा करते हैं और बढ़ी चढ़ी महत्वाकांक्षाओं को दैवी अनुग्रह से तुर्त-फुर्त पूरी हो जाने की आशा करते हैं। इसके लिए कुछ पूजा पत्री भी करते हैं पर इच्छित प्रतिफल जब नहीं मिलता तो उस समय अपनी गलती ढूंढ़ने का तो किसी का मन होता नहीं, सिद्धान्तों के क्रिया कलापों की त्रुटि ढूंढ़ने की भी इच्छा नहीं होती। वरन् होता यह है कि मूल सिद्धान्त को ही गलत या ढोंग मानने का मन करता है। प्रतिपक्ष में कोई उत्तर देने वाला न हो तो फिर किसी पर भी कुछ भी दोषारोपण करने की छूट रहती है। बेचारा अध्यात्म ही अपने ऊपर सारे दोष लाद लेने जैसी असहाय स्थिति में होता है।
परिणाम यह होता गया कि बुद्धिजीवी उस सिद्धान्त को ही गलत ठहराने लगे। भौतिक विज्ञान ने अपने बचपन और अल्हड़पन के आरंभिक दिनों में जोर शोर से यह कहा था कि ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं। प्रकृति का स्वसंचालित चक्र ही अपना सारा क्रम चला रहा है। इसी प्रकार आत्मा के अस्तित्व को भी झुठलाया गया। कहा गया कि मनुष्य चलता फिरता पेड़ मात्र है। समय आने पर वह सूख जाता है और समाप्त हो जाता है। परलोक नाम की कोई वस्तु नहीं। समर्थ, असमर्थों का शोषण करते रहते हैं ताकि दुनिया में असमर्थता की कुरूपता बढ़ने न पाये। जब चेतना की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, मात्र मस्तिष्कीय हलचलें ही शरीर के अंग अवयवों की तरह काम करती हैं। इसी दशा में चेतना विज्ञान का, अध्यात्म तत्व ज्ञान का कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। फिर उससे किसी प्रकार के अविज्ञात प्रतिफलों की आशा रखना ही व्यर्थ है।
भौतिकवाद ने अपने बचपन में तोतली वाणी से जो कुछ कहा था उसे अपरिपक्व लोगों ने बिना अध्ययन अन्वेषण किये यथावत् सही मान लिया और वास्तविक बन बैठे।
नया मुल्ला जोर की आवाज लगाता है इसी प्रकार तथाकथित बुद्धिवादियों ने नास्तिकता का पक्ष और भी जोर शोर से अलापना आरंभ कर दिया।
दूसरा पक्ष तत्व ज्ञानी दार्शनिकों का था। उन्होंने तर्क, तथ्य, प्रमाण उदाहरण की आवश्यकता समझी ही नहीं। शास्त्र वचन को ही सब कुछ मानते रहे। ‘‘बाबा वाक्यं प्रमाणं’ के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझा ही नहीं। इसी कारण वे अपनी बातें शास्त्रों या किम्वदन्तियों के आधार पर प्रस्तुत करते रहे। उनसे भी यह न बन पड़ा कि बदलते युग में बुद्धिवाद को प्रत्यक्षवाद को प्रश्रय मिला है। हमें उसी के अनुरूप नास्तिकवाद के विरुद्ध रणनीति बनानी चाहिए। तर्क से तर्क को, तथ्य से तथ्य को, प्रमाण से प्रमाण को और उदाहरण से उदाहरण को काटना चाहिए। अध्यात्मवादियों को भौतिकवाद के सिद्धान्तों का अता पता नहीं था। साइंस उनने पढ़ी नहीं थी। इसलिए एक गूंगा और दूसरा बहरा जैसी स्थिति बन गई। विज्ञान ने अध्यात्म की गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न नहीं किया और अध्यात्म को विज्ञान का दर्शन समझने की आवश्यकता अनुभव नहीं, फुरसत नहीं मिली। फल यह हुआ कि अध्यात्म को विज्ञान के सम्मुख ही नहीं दर्शन के सम्मुख भी परास्त होना पड़ा। नीस्ते, मार्क्स, रसैल जैसे नास्तिकवादी दार्शनिकों के कथन को समुचित ख्याति मिली और अध्यात्म की प्रखरता को धूमिल करने वाला दूसरा आधार खड़ा हो गया।
तीसरे पक्ष के बारे में पहले ही कहा जा चुका है कि वे ईश्वर को फुसलाने और उससे अपना उल्लू सीधा करने की बात सोचते थे सो बनती नहीं थी। प्रत्यक्ष दर्शन करके उसकी लंगोटी उतारना चाहते थे; पर सर्वव्यापी शक्ति तो निराकार ही रह सकती है वह साकार कैसे बने? मनुष्यों की तरह किसी में वार्तालाप या व्यवहार कैसे करे? पर किम्वदन्तियां उनका साहस बढ़ाती रहीं और आशा लगाये रहे कि ईश्वर का दर्शन होने पर उसे पकड़कर बैठना और अपना काम करा लेना सरल पड़ेगा। पर वह बात भी बनी नहीं। मनोकामना पूर्ण हुई नहीं। चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त करके लोगों को कौतूहल में डालना और उनकी श्रद्धा को दोहन भी ऐसा जटिल काम था जिसे जादूगर स्तर के लोग ही अपनी चतुरता के बल पर प्रदर्शित करते थे। इन दिनों मात्र ऐसे बाजीगर ही तथाकथित सिद्ध पुरुषों के नाम से प्रख्यात हैं। पोल खुलने से पहले ही दुकान एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह जमा लेते हैं।
उपरोक्त तीनों आधार अध्यात्म के प्रति जन साधारण की विशेषतया बुद्धि जीवियों की श्रद्धा को डगमगाते हैं। उन्हें इन बातों से बचने बचाने के लिए उत्तेजित करते हैं। अब मात्र परम्परावादियों, अन्धविश्वासियों और धर्म भीरुओं का एक वर्ग ही ऐसा बचा है जिसके सहारे इस क्षेत्र का ढांचा विडम्बना के रूप में किसी तरह खड़ा है और जहां-तहां धर्म सम्प्रदाय के नाम पर अध्यात्म की औंधी सीधी गतिविधियां चल रही हैं।
स्थिति का पर्यवेक्षण करने से लगता है कि अध्यात्म का पक्ष दिन-दिन दुर्बल होता जायगा। उसका साथ समझदारी छोड़ती जायगी। अन्ध विश्वासों के आधार पर कोई आधार देर तक खड़ा नहीं रह सकता वह कल नहीं तो परसों अपनी दम तोड़ देगा। बालू की दीवार कब तक खड़ी रहेगी? जादूगर लोग कब तक अपना व्यवसाय चलाने के लिए धर्म भीरु लोगों का दोहन करते रहेंगे? पूरी स्थिति को एक दृष्टि से देखने पर भविष्य अन्धकारमय दीखता है।
एक आशा की किरण क्षितिज से नये रूप में चमकी है। उसने आश्वासन दिया है कि सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। वह मरता नहीं। समस्त संसार विपरीत पड़ जाय तो भी वह अपने पैरों अकेला खड़ा रह सकता है। चेतना मिथ्या नहीं हो सकती। जब जड़ पदार्थों की उलट-पलट से सामर्थ्य के भण्डार और सुविधाओं के अम्बार खड़े किये जा सकते हैं तो चेतना का अवलम्बन सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो ऐसा नहीं हो सकता। आत्मा की सामर्थ्य इतनी तुच्छ नहीं जिसे कुछ अपरिपक्वों या उतावलों के हूहल्ले में विस्मृत तिरस्कृत किया जा सके।
अध्यात्म के शाश्वत सिद्धान्तों को श्रद्धा के आधार पर पुरातन काल में प्रतिपादित किया जाता रहा था। तब वह सारी व्यवस्था अपने ढंग से क्रमबद्ध रूप से चल रही थी। पर समय ने पलटा खाया तो बुद्धिवाद, प्रत्यक्षवाद और पदार्थ विज्ञान को विचारशील वर्ग ने मान्यता दी। ऐसी दशा में यह आवश्यक था कि श्रद्धा आधार को प्रत्यक्ष की कसौटी पर भी खरा सिद्ध किया जाय। समय की मांग थी कि अध्यात्म को यदि जीवन्त और सम्मानित बनाये रहना है तो उसे प्रत्यक्षवाद की अग्नि परीक्षा में उसी प्रकार गुजरना होगा जिस प्रकार लंका से लौटने पर सीता ने अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए अग्नि में प्रवेश किया था।
इस दिशा में छुट पुट कथन और प्रयास तो कितने ही मंचों से होते रहे हैं पर कोई कार्यक्रम नहीं बना जिसे सर्वांगपूर्ण कहा जा सके। सन्त विनोवा ने अनेक बार कहा कि अध्यात्म और विज्ञान का एकत्रीकरण होना चाहिए। पर यह कैसे हो? कौन करे? इसकी बारीकी में वे भा न जा सके। संसार के और भी कितने मनीषी इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कहते और लिखते रहे हैं। पर उनका चिन्तन भी एक कदम आगे बढ़कर यह न समझ सका कि इस कार्य की रूपरेखा क्या हो सकती है।
सृष्टा की संतुलन शक्ति ने समय की मांग को पूरा करने के लिए एक कठपुतली खड़ी की है और उसका सूत्र संचालन करने वाले तार अपने हाथ में रखे हैं। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान युग की इस महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए जिस तत्परता से लगा और एक-एक करके अनेकों कदम सफलता की दिशा में तेजी के साथ उठा रहा है। उसका संकल्प है—मान्यता प्राप्त पदार्थ विज्ञान के सिद्धान्तों से तालमेल बिठाते हुए अध्यात्म के शाश्वत सिद्धान्तों को खरा सिद्ध करना। समझा जाता था कि दोनों दिशायें एक दूसरे से भिन्न है। एक प्रत्यक्ष को सब कुछ मानता है दूसरा परोक्ष को। एक को इन्द्रियों या उपकरणों के सहारे प्रकट रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। पर चेतना तो सूक्ष्म है और उसका प्रभाव अनुभूतियों से संबंधित है। ऐसी दशा में प्रतिकूल को अनुकूल कैसे बनाया जा सकेगा? पर आशंकायें निर्मूल सिद्ध हुई और वह व्यवस्था बन गई, वह राह मिल गई जिनके सहारे अगले दिनों नास्तिकों को ही सर्वप्रथम कट्टर आस्तिक बनाया जा सकेगा। भौतिक विज्ञान तथ्यों पर आधारित है जब तथ्य अध्यात्म का पक्ष प्रस्तुत करेंगे तो ईमानदारी के नाते उसे वह भी स्वीकार करना पड़ेगा, जिसका उसने पिछले दिनों खण्डन किया है। विज्ञान दुराग्रही नहीं होता। न्यूटन ने जो सोचा और कहा था आज की मान्यतायें उसके प्रतिकूल हैं। फिर भी हठवादिता ने कोई अड़चन नहीं डाली। सम्प्रदायवाद की तरह उस मंच से यह नहीं कहा गया कि ‘‘हम सही और सब गलत’’। हमारा सो सत्य न कह कर बुद्धिमत्ता सदा यह कहती रही है कि जो सच सो हमारा। इस आधार पर उस क्षेत्र के भूल सुधार का क्रम चलता रहा है और यथार्थता को अधिक आगे तक खोज निकालने का प्रयास होता रहेगा।
ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने अध्यात्म को विज्ञान की कसौटी पर खरा सिद्ध करने के लिए अनेकों पर्यवेक्षण प्रयोग शाला में तथा बौद्धिक अनुसंधान के माध्यम से किए हैं। उन्हें पिछले दिनों अखण्ड ज्योति के माध्यम से प्रकट किया जाता रहा है। ग्रन्थ माला भी चल रही है। आरंभिक कार्य बन पड़ने पर अगले दिनों और भी ठोस एवं व्यापक कार्य बन पड़ने की आशा और भी अधिक बलवती हो उठी है।
इसके अतिरिक्त एक आवश्यकता यह भी थी कि प्रतिपादनों प्रयोगों को व्यक्तियों पर प्रयुक्त करके दिखाया जाय। औषधियों के अविष्कार होते हैं तो उनमें डाले गये रसायनों की प्रशंसा करने भर से मान्यता नहीं मिल जाती किन्तु पहले छोटे जीवों पर फिर मनुष्यों पर उसके प्रयोग का प्रभाव सिद्ध करना होता है। तभी वह अविष्कार मान्यता प्राप्त करता है समाधान होने पर ही किसी बात को हृदयंगम करने की प्रवृत्ति इन दिनों चल रही हैं। उसकी उपेक्षा भी तो नहीं की जा सकती।
व्यक्ति पर प्रयोग करने से एक बड़ी कठिनाई यह है कि अध्यात्म के मूल एवं प्रारंभिक सिद्धान्त जीवन का कायाकल्प स्तर का समग्र परिशोधन अपनाने के लिए इस क्षेत्र के लोग तैयार नहीं। मात्र विधि उपचार भर करना चाहते हैं। आत्म परिष्कार का मोर्चा अति कठिन है। फिर उपलब्धियों का प्रयोग संकीर्ण स्वार्थपरता के निमित्त न करके विश्व मानव के लिए, परमार्थ के लिए करने की शर्त और भी अधिक कठिन है। लोग सरलता चाहते हैं। लाटरी में एक रुपया लगा कर एक लाख का इनाम पाना चाहते हैं।
इस माहौल में सस्ते दाम में बहुमूल्य खरीदने की ललक—कैसे पूरी हो? लकड़ी की बनी तलवार युद्ध मोर्चे से विजय के सेहरा सिर पर बांध कैसे लौटे? मात्र जंत्र-मंत्र, पूजा पत्री की बाल क्रीड़ा जैसी सरल प्रक्रिया किस प्रकार फलवती हो और यशस्वी लोगों के समकक्ष कैसे टिक सके? इस कठिनाई का भी हल निकाल लिया गया है और कोटि-कोटि जन समुदाय को अध्यात्म की प्रत्यक्षवादिता सिद्ध करने का भी दायित्व ओढ़ा और निभाया गया है। कार्य जो हाथ में लिया जाय समग्र और प्रामाणिक होने पर ही उसकी प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा है।
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