अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

नवसृजन की विशालकाय कार्य पद्धति

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चौबीस वर्ष में चौबीस लक्ष जप के चौबीस महापुरश्चरण पूरे हो जाने पर उस जप की आहुतियों का सनातन क्रम भी पूरा करना ही था। उसके बिना वह असाधारण तप अधूरा ही रह जाता इसके लिए चौबीस लाख आहुतियों का महायज्ञ होना था। इसके अनेक वर्षों तक लम्बा खींचने की अपेक्षा यह उपयुक्त समझा गया कि सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ का आयोजन किया जाय और उसमें एक लाख याज्ञिकों द्वारा पांच दिन तक यज्ञ चलाया जाय। वह सन् 1958 कार्तिक सुदी एकादशी से पूर्णिमा तक सम्पन्न हुआ।
कठिनाई यह थी कि इतने याज्ञिक कहां से जुटाये जायं। इतने बड़े यज्ञ के लिए शाकल्य, घी, समिधा, यज्ञमण्डप, प्रवचन पण्डाल आगन्तुकों के लिए निवास, भोजन, पानी, सफाई, रोशनी आदि का प्रबन्ध कैसे हो। इतने लोगों को एक साथ तम्बू लगाने जैसी भूमि कहां से मिले? राशन पकाने, परोसने वाले आदि की छोटी-छोटी क्रियाएं ऐसी थीं जिसके लिए प्रचुर धन की व्यवस्था करनी थी इतने गायत्री साधकों को निमंत्रण कैसे पहुंचे। बसों, रेलों का इतना प्रबन्ध एक ही दिन में लाखों की भीड़ का आना—एक ही दिन में जाना—किस प्रकार बन पड़े?
गुरुदेव की जेब में केवल पांच हजार रुपये थे। खर्च था पचास लाख का। सामान्य बुद्धि काम नहीं कर सकती कि यह असंभव, संभव कैसे हो सकेगा। विशेषतया तब जब कि सार्वजनिक चंदा उगाहने की नीति आरम्भ से अंत तक निभी। कार्यकर्ता एक दर्जन से अधिक नहीं थे। सोचने विचारने में ही ढेरों समय चला गया। पर कुछ करते धरते नहीं बन पड़ा।
समय आया और दैवी चमत्कार की तरह एक-एक करके सभी गुत्थियां सुलझती गई। देश के कोने-कोने में गायत्री उपासकों को निमंत्रण पत्र पहुंचे। वे ठीक समय पर आये। एक लाख याज्ञिक, तीन लाख दर्शनार्थी, तीर्थ यात्री जो साथ में आये थे। चार लाख को ठहरने, खिलाने आदि का प्रबन्ध करना पड़ा। सभी कार्य ऐसी कार्य ऐसी सुन्दरता और सुव्यवस्था से सम्पन्न हुआ कि सात मील के दायरे में ऋषियों के नाम पर सात नगर बस गये। तम्बुओं की लाइन ने कुंभ का मेला फीका कर दिया। बिना मूल्य भोजन वाले सात विशालकाय लंगर दिन-रात चलते रहे। सफाई, रोशनी में कोई कमी नहीं हुई। कोई भूखा या बिना आच्छादन के नहीं रहा। सभी क्रमबद्ध रूप से भव्य यज्ञ मंडप में आहुतियां देते रहे। न एक पैसे की चोरी हुई न किसी को ठोकर लगने जैसी दुर्घटना का सामना करना पड़ा। राशन भण्डार अक्षय हो गया। आस-पास के दर्शकों की भीड़ टूट पड़ी। समूचा समुदाय दस लाख के करीब जा पहुंचा। भव्यता और श्रद्धा उमड़ पड़ती थी। लोगों को एक ही बात कहते सुना गया कि इतना विशाल और सुव्यवस्थित आयोजन उनमें से किसी ने नहीं देखा। हजारों लाउडस्पीकर, हजारों जनरेटर, पानी, रोशनी, सूचना आदि का काम कर रहे थे। सातों नगरों में टेलीफोन फिट थे। स्वयं सेवक इतने कि सारा काम हाथोंहाथ उठा लिया गया। अव्यवस्था नाम की कोई चीज कहीं देखने में नहीं आई। जहां तहां दान पेटियां रखी थीं। उन्हीं में पड़ी रेजगारी से समूचा खर्च चल गया। न पैसे की कमी पड़ी न बचत।
इसी अवसर पर भावनाशील याज्ञिकों को प्रवचन पाण्डाल में एकत्रित करके ‘गायत्री परिवार’ का गठन किया गया। सदस्यता शुल्क एक माला गायत्री जप। संगठन एवं विचार कार्यों के लिए एक घंटा नित्य समयदान। मिशन बनकर रातों-रात खड़ा हो गया और उपासना, साधना, आराधना का कार्यक्रम स्थानीय परिस्थितियों की मनःस्थिति के अनुरूप चल पड़ा। यज्ञ आयोजन जितना चमत्कारी था उतना ही यह भी कि एक रात में एक लाख सदस्यों वाला संगठन बन पड़े और विदाई के बाद निर्धारित कार्यक्रमों को पूरा करने में प्राण पण से जुट पड़े। प्रक्रिया को अध्यात्म का प्रथम चमत्कार कह सकते हैं। आगन्तुकों, स्वयंसेवकों, व्यवस्थापकों, सहायकों के पास कोई दिव्य व्यक्ति पहुंचा और उसी ने सब को इस आयोजन में भूमिका निभाने के लिये बाधित कर दिया। सफलता का श्रेय किसी व्यक्ति को नहीं उस दिव्य सत्ता को ही मिलना चाहिए जिसके हाथों गुरुदेव ने अपने को बेचकर उसे खरीद लिया था।
दूसरा चमत्कार है इतने ऊंचे स्तर के भावनाशील और कर्मठ कार्यकर्ताओं का अनन्य सहयोगी के रूप में बिना किसी वेतन के मिल जाना। इसका प्रथम श्रीगणेश माता जी से हुआ। गुरुदेव की धर्मपत्नी माता भगवती देवी को हर कोई माताजी कहता है। वे जिस दिन से जुड़ी उसी दिन से उन्हीं का काया-छाया बन गईं। घर गृहस्थी का काम तो राई रत्ती जितना था समूचा दायित्व मिशन का, उसके कार्यकर्ताओं का प्रबंध किया। वे अन्नपूर्णा बनकर रहीं और साथ ही स्नेह वात्सल्य का अमृत भी सम्पर्क में आने वालों को पिलाती रहीं। पू0 गुरुदेव की प्रज्ञा और माताजी का श्रद्धा का समन्वय एक जादू बन गया। उसके सहारे लाखों का हृदय जीत लिया गया। जिसकी भी आत्मीयता सघन हुई उसे नवसृजन में जुटने की प्रेरणा मिली। माताजी की श्रमशीलता, सादगी, शालीनता, ममता और व्यवस्था बुद्धि ने इतना बड़ा काम किया कि जो उनके सम्पर्क में आया वह जन्म भर अपने को उन्हीं की संतान मानता रहा। यह भाव गरिमा उनकी इस वृद्धावस्था में भी घटी नहीं है वरन् आयु के साथ साथ बढ़ती ही आई है। पू0 गुरुदेव कभी-कभी सुविधानुसार उनकी चर्चा करते हैं तो उन्हें नारी शरीर में दिव्यलोक से अवतरित हुई पवित्रता की प्रतिमा गंगा समतुल्य कहते हैं। पति पत्नी के बीच अगाध आत्मीयता है पर उसमें विशुद्ध श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई कारण भी आधान नहीं है। गुरुदेव के कार्यों में आधे से अधिक सफलता का श्रेय माताजी को ही है। उनकी ममता अमृतोपम है वह थकों में नवजीवन और हारे हुए में प्रचंड प्राण भरती हैं। कोई चाहे तो स्वर्ण सुयोग को भी अध्यात्म का एक चमत्कार कह सकता है।
आलोक बिखरा तो उसने असंख्य भावनाशीलों को प्रभावित ही नहीं तरंगित भी किया। गायत्री तपोभूमि, युग निर्माण योजना शान्ति कुंज और ब्रह्मवर्चस में जो कार्यकर्ता काम करते हैं उनमें से अधिकांश ग्रेजुएट स्तर के शिक्षित और औसतन दो हजार रुपया मासिक कमाने वाले थे। हरिद्वार और मथुरा के आश्रमों में उनकी संख्या पांच सौ से अधिक है। कार्य क्षेत्र में फैले हुए प्रायः दस हजार हैं। वे अपना समय घर परिवार के लिए नाम मात्र को देते हैं। सोते जागते मिशन के निमित्त ही सोचते करते रहते हैं। इस समुदाय में से आधी से अधिक संख्या ऐसी है जो अपने पुराने संग्रह के आधार पर खर्च चलाते हैं। जिनकी स्थिति वैसी सम्पन्न नहीं है, वे भोजन वस्त्र मात्र की राशि मिशन से लेते हैं। आपत्ति काल के लिए कोई कुछ बचाता नहीं। ऐसा प्रसंग आता है तो उनकी आवश्यकता मिशन पूरी कर देता है। इसे साधु ब्राह्मण परम्परा का आधुनिक एवं उद्देश्यपूर्ण संस्करण कह सकते हैं। इस स्तर के कर्मठ और आदर्शवादी सहयोगी अन्य किसी को कदाचित ही इन दिनों उपलब्ध हो रहे हों। गतिविधियों के अग्रगामी होने में इनका बढ़ा-चढ़ा श्रेय है। उन सबके नामों का, योग्यताओं का, पुरुषार्थों का, त्यागो का उल्लेख तो यहां संभव नहीं; पर उनमें से प्रत्येक ऐसा है जिसकी गुण गाथा में एक-एक पुस्तक बन सकती है। इस युग में ऐसी प्रतिभाओं का एक छत्र के नीचे एकत्रित हो जाना, कांग्रेस के स्वतंत्रता आन्दोलन एवं बुद्ध के भिक्षु समुदायों का स्मरण दिलाता है और एक चमत्कार जैसा प्रतीत होता है।
प्रज्ञा मिशन की अपनी पांच इमारतें हैं (1) गुरुदेव की जन्मभूमि—आंवलखेड़ा (2) मथुरा की गायत्री तपोभूमि और (3) युग निर्माण योजना (4) हरिद्वार की शान्ति कुञ्ज—गायत्री नगर और (5) ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान। यह सभी बीस वर्ष के भीतर बनी हैं। उन सब को एक स्थान पर एकत्रित कर लिया जाय तो किसी बड़े विश्वविद्यालय से वे कम नहीं वरन् अधिक ही बैठेंगी। इनका आरंभ गुरुदेव ने अपनी खुदकाश्त की जमीन और विशाल जमींदारी के उन्मूलन पर मिली पुनर्वास राशि से किया था। वह धन एक लाख से अधिक नहीं थी। परिवार को पैतृक सम्पदा नहीं दी। वरन् उन्हें स्वावलम्बन के आधार पर निर्वाह करने की सलाह दी। भव्य इमारतों को देखते हुए वह राशि नगण्य ही कही जा सकती है। चंदा मांगने की परम्परा आरंभ से नहीं अपनाई गई। सेठ साहूकारों से या सरकार से भी कोई आर्थिक अनुदान नहीं मिला। परिजन एक मुट्ठी अनाज या दस पैसे की राशि निकालते रहे। उसका एक अंश संस्थान के लिए पहुंचता रहा। स्वेच्छा सहयोग भी कइयों ने कार्य का महत्व देखते हुए दिया। इस प्रक्रिया से जो सहयोग मिलता रहा उसी ने यह भव्य इमारतें बना दीं।
आंवलखेड़ा (आगरा से 27 मील सड़क किनारे) में एक हाई स्कूल, एक कन्या हाई स्कूल, अस्पताल, डाकखाना, सहकारी समिति, नर्स कार्यालय, सहकारी बैंक आदि कार्यक्रम चलते हैं। इनमें चलती गतिविधियों से सैकड़ों छात्र, सैकड़ों छात्राएं सैकड़ों मरीज, महिलाएं तथा कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिलता है। साथ में जुड़ा भव्य गायत्री मंदिर भी है जहां कथा कीर्तन का सिलसिला चलता ही रहता है।
गायत्री तपोभूमि मथुरा में भव्य देवालय, तीर्थों का जल रज, 240 करोड़ गायत्री मंत्र लेखन, नित्य यज्ञ, स्वावलम्बन विद्यालय, नियमित जप, ध्यान जैसे कार्यक्रम चलते हैं। छात्रों के लिए निःशुल्क शिक्षा तथा छात्रावास का प्रबंध है।
युग निर्माण योजना का प्रमुख कार्य युग साहित्य का प्रकाशन है। निजी विशालकाय प्रेस है जिसमें कितने ही भाषाओं की पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं तथा युग साहित्य छपता है। मशीन कक्ष में साहित्य स्टोर का विस्तार देखते ही बनता है। शुद्ध हवन सामग्री लागत मूल्य पर देने का भी यहां प्रबन्ध है। प्रज्ञा पुस्तकालय, स्वाध्याय मंडलों का सूत्र संचालन भी यहीं से होता है।
कार्य विस्तार को देखते हुए सरकार ने इसी इमारत में गायत्री तपोभूमि पोस्ट आफिस भी खोल दिया है। जो कार्य और कर्मचारियों की दृष्टि से मथुरा हेड पोस्ट आफिस के उपरान्त दूसरे नम्बर का बड़ा डाकखाना है। बैंक का दफ्तर भी इसी इमारत में है। इससे साहित्य, पार्सलों तथा पत्रिकाओं को देश देशान्तरों में भेजने की व्यवस्था सरल पड़ती है। मिशन की सभी पत्रिकाओं की ग्राहक संख्या तीन लाख के लगभग है। अकेली अखण्ड ज्योति ही डेढ़ लाख के करीब छपती है। उसका दफ्तर भी इन्हीं इमारतों से सटा हुआ है।
मथुरा तीर्थ यात्रियों की बड़ी संख्या इस भव्य आश्रम को देखने आती है और उसे देखकर अनुमान लगाती है कि ईसाई मिशन जैसी यह योजना अपने ढंग की भारत में अनोखी है।
हरिद्वार के शांतिकुंज में ही गुरुदेव माता जी रहते हैं। साधना को सही स्थान, सही मार्गदर्शन में करने वाले परिजन यहां आते ठहरते रहते हैं। पांच-पांच दिन के प्रज्ञा परिजन सत्र और एक-एक महीने के युग शिल्पी सत्रों का उपक्रम यहां निरन्तर चलता रहता है। युग शिल्पी प्रधानतया संगीत, प्रवचन एवं पौरोहित्य प्रक्रिया सीखते हैं। इस माध्यम से अब तक हजारों प्रचारक प्रशिक्षित किए जा चुके हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में जन जागरण और प्रज्ञा मिशन का रचनात्मक कार्य बड़ी तत्परता और सफलता के साथ सम्पन्न करते रहते हैं।
शांतिकुंज में देवात्मा हिमालय का अनोखा भव्य मंदिर है। तीर्थ परम्परा को यहां की गतिविधियों में समग्र समावेश किया गया है। प्राचीन काल के तीर्थों में छात्रों के गुरुकुल, वानप्रस्थों के आरण्यक और सर्वसाधारण के जीवन कला का प्रशिक्षण इस पुण्य परम्परा का शांतिकुंज की कार्य पद्धति में समग्र समावेश है। भारत के प्रमुख तीर्थों के विशालकाय चित्रों को मन्दिर स्तर के कक्षों में सजाया गया है। गायत्री माता का मंदिर एवं ऋषियों की भव्य प्रतिभाएं भी इसी क्षेत्र में स्थापित हैं। नौ कुण्डी यज्ञशाला में नित्य दो घंटे गायत्री यज्ञ होता है एवं अखण्ड रुद्राभिषेक की प्रक्रिया चलती है। जिस अखण्ड घृत दीप पर गुरुदेव ने अपने महापुरश्चरण पूरे किये थे वह विगत साठ वर्षों से अनवरत जल रहा है। इसके दर्शन भी समय पर होते हैं।
तीर्थ परम्परा के अनेकों पक्ष ऐसे हैं जिन्हें इस पुण्य भूमि में मूर्तिमान एवं गतिशील देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ चरक परम्परा का पुनर्जीवन लिया जा सकता है। गायत्री नगर में सुविस्तृत जड़ी बूटी उद्यान है। उसमें देश के कोने-कोने से दुर्लभ जड़ी बूटियों का उद्यान लगाया गया है। उनके नये गुण धर्मों का वैज्ञानिक परीक्षण करने के लिए आधुनिक यंत्र उपकरणों की प्रयोग शाला लगी है। जिसमें यह सिद्ध किया जाता है कि किस व्याधि का निवारण किस प्रकार की वनौषधि से किस प्रकार हो सकना संभव है। ऐलोपैथी की फार्मोकोपिया के समतुल्य वनौषधि विज्ञान को ऐसा स्वरूप दिया जा रहा है जिसे संसार भर के चिकित्सा शास्त्री मान्यता प्रदान कर सकें।
साधना प्रयोजन के लिए जो लोग यहां आते हैं उनका शारीरिक मानसिक पर्यवेक्षण करने वाले उपकरण इसी कक्ष में हैं। साधना बताने से पूर्व यह जांचा जाता है कि किसकी स्थिति कैसी है और उसे किस प्रकार की साधना करनी चाहिए। जाते समय भी यह देखा जाता है कि उसकी स्थिति में क्या अन्तर पड़ा तथा भविष्य में उसे क्या करते रहना चाहिए। व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप साधनायें बताने की प्रक्रिया मात्र इस एक ही स्थान में चलती है। शेष स्थानों में तो सभी गधे घोड़ों को एक लाठी से हांका जाता है। फलस्वरूप की गई साधनायें अस्त व्यस्त हो जाती हैं। पांच दिन के या एक महीने के सत्रों में शिक्षार्थियों को उनकी शारीरिक मानसिक आवश्यकताओं के लिए जिन वनस्पतियों की आवश्यकता है उनका परामर्श भी दिया जाता है और यथा संभव उन्हें उपलब्ध भी कराया जाता है। यह व्यवस्था अब इस सीमा तक बढ़ गई है कि युग शिल्पी सत्र में सम्मिलित होने वालों को फर्स्टएड होमनर्सिंग आदि के कोर्स भी पूरे करा दिये जाते हैं। वनौषधियों को अपने स्थानों में लगाकर उनका उपयोग पारिवारिक स्वास्थ्य रक्षा के निमित्त भी करना सिखा दिया जाता है।
प्रशिक्षण का क्रम आश्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था में ओत-प्रोत है। आश्रमवासी गृहस्थों के बच्चों के लिए गुरुकुल का प्रबन्ध है। यह गुरुकुल सरकारी मान्यता प्राप्त भी है। महिलाओं की शिक्षण कक्षायें अपने ढंग की अनोखी है। उन्हें वे विषय पढ़ाये जाते हैं जो परिवार निर्माण के सम्बन्ध में आवश्यक है।
मिशन का कार्य क्षेत्र अभी हिन्दी भाषी लोगों तक सीमित है। अनायास ही उसका विस्तार देश भर में हो रहा है और उसकी लपेट में सभी भाषा भाषी क्षेत्र आ रहे हैं। सभी धर्म सम्प्रदायों में भी विचार क्रान्ति के सूत्रों को संजोया जाना है मात्र हिन्दू धर्म या हिन्दी भाषी लोगों तक उसे सीमा बद्ध नहीं किया जा सकता। इस संभावना को देखते हुए एक नया प्रशिक्षण क्रम इसी वर्ष से आरम्भ हुआ है। जिसमें देश की अधिकांश प्रमुख भाषाओं का ज्ञान कराया जाय और प्रचलित धर्म सम्प्रदायों का स्वरूप समझाते हुए उन्हें एकता और समता के केन्द्र पर लाया जाय।
आश्रम में शिक्षार्थियों तथा आगन्तुकों की भारी भीड़ लगी रहती है। उन सब का सार्वजनिक शिक्षण सायंकाल प्रज्ञा पुराण कथा संगीत कीर्तन के माध्यम से होता है।
आश्रम का एक विशिष्ट विभाग वीडियो फिल्मों का है। मिशन की विचारधारा को व्यापक बनाने के लिए सभी केन्द्रों में इन वीडियो फिल्मों को भविष्य में अनवरत रूप से भेजा जायगा। पिछले दिनों तो मात्र गुरुदेव माता जी आदि के जीवनोत्कर्ष और अध्यात्म विज्ञान का स्वरूप समझाने वाले प्रवचन ही इस माध्यम से सुनाये जाते रहे हैं। अगले दिनों इस विषय का इतना अधिक और इतना समग्र स्वरूप बनने जा रहा है जिसमें आज की स्थिति के अनुरूप लोक शिक्षण के स्वरूप लोक प्रिय माध्यमों से किया जा सके। फिल्म दर्शक समाचार पत्र पाठकों से भी अधिक है। इसलिए इतने लोक प्रिय माध्यम को अछूता छोड़ा नहीं जा सकता। अतः शांतिकुंज का नया निश्चय है कि प्रेस प्रकाशन की तरह वीडियो फिल्मों की एक सुविस्तृत योजना को इस प्रकार विकसित किया जा सके कि उससे सभी भाषाओं और सभी सम्प्रदायों के लोग समान रूप से लाभ उठा सकें।
मिशन का विस्तार 24 लाख लोगों तक हो जाने पर उसके सदस्य हरिद्वार तीर्थ यात्रा आदि के निमित्त आते रहते हैं जिनके ठहरने से लेकर भोजन तक का प्रबन्ध किया गया है। यह भण्डारा अनवरत रूप से चलता रहता है।
प्रज्ञा परिजनों की निजी आध्यात्मिक और सांसारिक समस्यायें भी होती हैं। उन्हें सुलझाने के लिए मात्र पत्र व्यवहार ही एक माध्यम है। रचनात्मक कामों में संलग्न होने, उतार चढ़ावों का सामना करने के लिए भी इतने अधिक लोगों के साथ सम्पर्क इसी माध्यम से रखा जा सकता है। इसलिए ‘पत्राचार विद्यालय’ विभाग के रूप में एक अतिरिक्त कार्य पद्धति यहां चलती है। औसतन एक हजार पत्रों का आना और उनका उत्तर यथा समय चला जाना यह कार्य भी अपने आप में अद्भुत है। सरकार ने कार्य विस्तार को देखते हुए शांति कुंज नाम से एक पोस्ट आफिस की व्यवस्था भी कर दी है जिसके साथ तार घर भी जुड़ा हुआ है।
साहित्य सृजन का कार्य शान्ति कुंज में ही होता है। आरम्भिक दिनों में भारतीय संस्कृति का स्वरूप प्रगति परायण सिद्ध करने के लिए आर्ष साहित्य के अनुवाद और प्रकाशन का कार्य हाथ में लिया गया था। उसके अन्तर्गत चारों वेद, 108 उपनिषदें, छहों दर्शन, 24 स्मृतियां, आरण्यक-ब्राह्मण, योग वशिष्ठ आदि पुरातन ग्रन्थों को सस्ते दाम में जन-जन तक पहुंचाने का प्रयत्न किया गया था जो पूर्ण रूपेण सफल रहा। इस प्रयास ने भारतीय संस्कृति के अर्थवेत्ताओं और प्रेमियों को एक नया प्रकाश दिया। वे प्रतिगामिता से प्रगतिशीलता की ओर मुड़े।
इसके उपरान्त यह लेखन कार्य व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण की दिशा में मुड़ा। उसमें नैतिक क्रान्ति को प्रमुखता दी। ऐसी लगभग 500 पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की एक सीरीज भी सम्मिलित है।
कथा कीर्तन देश में धर्म प्रचार का बड़ा उपयोगी माध्यम साबित हुआ है उस आधार को अपनाकर युग संगीत के टेप कैसिट भी बनते और प्रसारित होते रहते हैं। उन्हें अच्छी ख्याति मिली है। इसी प्रकार ‘प्रज्ञापुराण’ नामक एक ग्रन्थ का सृजन नये सिरे से हुआ है। उसके पांच विशाल काय खण्ड अब तक छप चुके हैं उन्हें प्राचीन पुराणों के स्तर का बनाया गया है। संस्कृत में श्लोक और टीका। इसके अतिरिक्त श्लोकों के साथ पुरातन कथायें इस प्रकार गूंथी गई हैं कि उनके माध्यम से आधुनिक समस्याओं का प्रगतिशील समाधान पुरातन इतिहास पुराणों में ढूंढ़ा जा सकता है। प्रज्ञा पुराण के चार खण्डों का मूल्य लगभग 100 रु. हो जाने पर भी विज्ञ समाज में इसकी भारी मांग रही है। कई संस्करण छपे हैं और अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो रहा है। मुद्रण प्रकाशन का कार्य मथुरा युग निर्माण प्रेस में होता है। एक छोटा प्रेस शांति कुंज हरिद्वार में भी युगान्तर चेतना प्रेस नाम से है। जिसमें तात्कालिक आवश्यकता की सामग्री छाप ली जाती हैं।
मिशन की कई पत्रिकायें प्रकाशित होती हैं। जिनका लेखन, सम्पादन एक ही कलम से होता है। अखण्ड ज्योति और युग निर्माण हिन्दी पत्रिकाएं हैं। गुजराती, उड़िया में भी युग शक्ति नाम से दो मासिक पत्रिकायें छपती हैं। इससे पूर्व उन्हें मराठी, बंगाली, पंजाबी में भी छापा जाता था। इन दिनों कागज की अत्यधिक महंगाई के कारण तीनों बन्द हैं पर थोड़ी सी अनुकूलता होते ही न केवल बन्द पत्रिकाओं को फिर से आरम्भ किया जायगा वरन् अंग्रेजी तथा दक्षिण भारत की भाषाओं में भी इन्हें प्रकाशित करने की योजना है। इस बीच अन्य भाषा भाषियों तथा विदेशों के लिए अंग्रेजी में ‘फोल्डर प्रकाशन’ योजना चल रही है। अब तक महत्वपूर्ण विषयों पर 50 फोल्डर प्रकाशित हो चुके हैं। आगे और भी छपते रहेंगे। हिन्दी में तो ऐसे स्वल्प मूल्य के ट्रैक्ट 360+240=600 की संख्या में उनका अलग अलग प्रकाशन हो चुका है। गुरुदेव का अपनी उपासना को प्रमुखता देते हुये भी लेखन कार्य के लिए भी समय निर्धारित है और वे अपना वह नियम विगत 45 वर्षों से अनवरत रूप से चलाये हुये हैं। एक ही व्यक्ति का लिखा इतना साहित्य जो लेखक के शरीर वजन जितना भारी बैठे, इतना श्रम कदाचित ही कहीं हुआ हो। इसे भी लेखन का एक कीर्तिमान कह सकते हैं।
हीरक जयन्ती वर्ष से एक हजार की संख्या में ऐसे प्रशिक्षण केन्द्र खोले जा रहे हैं। जिन्हें एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अनुबन्ध से निरन्तर चलाया जाता रहेगा। छात्रों के लिए साप्ताहिक पाठ्यक्रम डाक से भेजे जाया करेंगे। उनके आधार पर शिक्षण प्रक्रिया स्थानीय अध्यापक ठीक समय पर नियमित रूप से चलाते रहेंगे। आशा की गई है कि इस माध्यम से प्रायः 20 हजार छात्र नियमित रूप से आत्म निर्माण और समाज निर्माण में उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाण पत्र भी दिया जाया करेंगे। आरम्भ हिन्दी से हुआ है। पर इसका कार्य क्षेत्र भारत की अन्य भाषाओं में भी जल्दी ही चल पड़ेगा। इस प्रकार अगले ही दिनों इसका स्वरूप पत्राचार माध्यम से चलने वाले खुले विश्वविद्यालय जैसा बन जायगा।
उपरोक्त प्रशिक्षण के अतिरिक्त एक दूसरा कार्य हाथ में लिया गया है आर्ष ज्योतिर्विज्ञान का परिशोधन और परिष्कार। खगोल विद्या में भारत अग्रणी रहा है। ज्योतिष की व्यापक और सही खोज का इतिहास भारत से ही आरम्भ होता है। पर दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उसे भ्रम जंजाल के रूप में विकसित किया गया और ज्योतिषियों ने उसे भविष्य कथन का माध्यम बना कर उल्लू सीधा करना आरम्भ कर दिया।
ज्योतिर्विज्ञान का समय-समय पर ग्रह गणित दृश्य पर्यवेक्षण के आधार पर संशोधन होता रहा है। कारण कि घंटा मिनट के हिसाब से ग्रहों की चाल ऐसी नहीं है जिससे गणित अनुबन्धों में बाधा आ सके। उनमें समय-समय पर अंतर पड़ता रहता है। उसे दृश्य के आधार पर ही संशोधन की आवश्यकता पड़ती है। इन कार्य के लिए वेधशालायें विनिर्मित होती रही हैं। अभी भी दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, बनारस, बेंगलोर आदि में पुरातन वेधशालायें जिस तिस रूप में विद्यमान हैं। नये सिरे से इनका सामयिक एवं सार संक्षेप जैसा स्वरूप शांति कुंज में समग्र वेधशाला खड़ी करने के रूप में विनिर्मित किया गया है। इसमें प्राचीन यन्त्र उपकरणों के अतिरिक्त आधुनिक दूरबीनों का भी प्रयोग अन्तरिक्षीय जांच पड़ताल के लिए किया जाता है। इस वेधशाला की कसौटी पर कसने के उपरान्त हर वर्ष पंचांग प्रकाशित होता है। जिसे ‘‘ब्रह्मवर्चस’’ दृश्य गणित पंचांग नाम दिया गया है। मूल्य भी अन्य सब पंचांगों से सस्ता रखा गया है।
साथ ही इस प्रकार का ज्योतिष प्रशिक्षण भी चलता है कि हर स्थान का निजी पलभा के आधार पर पंचांग बनाना हर गणितज्ञ के लिए संभव हो सके। अंतर्ग्रही प्रभाव को क्षेत्र विशेष पर पड़ने वाले प्रभाव को जानने के लिए स्थानीय पंचांग ही सार्थक होता है। स्थानीय पंचांग बनाने की विद्या बताने वाला देश भर का यही एक विद्यालय है।
इसमें सूर्य मंदिर, ग्रह विद्या की प्रदर्शनी तथा सूर्य शक्ति से ऊर्जा उत्पन्न करने वाले विशालकाय बहुमूल्य संयंत्र भी देखने ही योग्य हैं। शांति कुंज की यह प्रक्रिया दर्शकों को आश्चर्यचकित कर देती है।
शांति कुंज के निर्माण में अदृश्य प्रेरणाओं ने काम किया पर उसके शुभारंभ में माता जी का उत्साह ही अग्रणी रहा। उनने इस आश्रम की रूपरेखा बनाई। प्रवेश करते ही छह वर्ष में सम्पन्न हुआ अखण्ड गायत्री महापुरश्चरण कुमारिकाओं द्वारा सम्पन्न कराया। जो कन्यायें इसमें भाग लेने आयीं उन्हें उच्च शिक्षा उपलब्ध कराई और संगीत का भी अच्छा बोध कराया। अनुष्ठान और कन्या प्रशिक्षण साथ चला।
महिला जागृति के संबंध में अत्यधिक उत्साह होने के कारण माता जी ने ‘महिला जागृति’ नामक पत्रिका भी निकाली। वह छः वर्ष तक उन्हीं के तत्वावधान में प्रकाशित होती रही। ग्राहक संख्या भी बीस हजार के करीब पहुंच चुकी थी। पर मिशन के इतने अधिक कार्य उनके सिर पर आ गये कि सम्पादन प्रकाशन का दायित्व वे लगातार न चला सकीं और उसे नयी व्यवस्था बन पड़ने तक के लिए स्थगित कर दिया गया।
माताजी ने उन्हीं दिनों एक कन्या विद्यालय भी चलाया। शांति कुंज में माता जी का संरक्षण शिक्षण प्राप्त करने पर बच्चियों की जो आशाजनक प्रगति हुई उसे देखते हुए मिशन के कार्यकर्त्ता वर्ग ने अपनी कन्याओं को भी भेजना आरम्भ कर दिया। उनके लिए स्वतंत्र प्रशिक्षण व्यवस्था खड़ी करनी पड़ी। संगीत प्रवचन का कौशल भी उसमें सम्मिलित था। जब वे प्रवीण होने लगीं तो एक प्रयोग यह किया गया कि पांच पांच सुयोग्य बच्चियों के जत्थे आश्रम की कारों में बिठाकर शाखा केन्द्रों में महिला जागरण संबंध अनेकानेक समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए महिला सम्मेलन एवं संगठन करने के लिए भेजे गये। उनके कार्य का प्रतिफल आशातीत उत्साहवर्धक रहा। उनके भाव भरे संगीत और प्रवचन सुनने के लिए हर जगह हजारों की संख्या में उच्च स्तर का जन समुदाय एकत्रित होता रहे। जिनने यह उद्बोधन सुना वे आश्चर्य चकित हो गये कि यह छोटी आयु की किशोरियां बड़े-बड़े अभ्यस्त वक्ताओं से बढ़कर किस प्रकार इतने उच्च कोटि के प्रवचन कर सकी हैं। उनकी शिक्षा और संरक्षिका की हर जगह भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।
इस प्रवास अवधि में ही अनेकों पत्र आते रहे कि इन देवियों में से एक हमारे घर की लक्ष्मी बनने देने का अनुग्रह किया जाय। कन्या विद्यालय की सभी लड़कियां सुयोग्य घरानों में गई और वहां उनने अपना परिवार स्वर्गोपम बनाकर दिखाया। इन दिनों वह व्यवस्था इसलिए बन्द है कि शांति कुंज में नर नारियों का घमासान रहता है जब कि कन्या शिक्षण के लिए ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें पुरुषों का आवागमन न रहे। कहीं अन्यत्र ऐसी व्यवस्था बन पड़ेगी तो उसका प्रबन्ध नये सिरे से किया जायगा। नारी शिक्षा एवं नारी जागरण की आवश्यकता का महत्व कितना बढ़ा-चढ़ा है। यह समझते हुए उसके निमित्त दूसरा उपयुक्त व्यवस्था क्रम माता जी द्वारा सोचा और बनाया जा रहा है।
शांति कुंज के तत्वावधान में एक दूसरा आश्रम ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के नाम से चलाया जा रहा है। यह तीन फर्लांग हट कर ठीक गंगा तट पर सप्तसरोवर के निकट है। यह आश्रम तीन मंजिल का है। नीचे की मंजिल में आद्य शक्ति गायत्री के 24 अक्षरों की चौबीस कमरों में चौबीस प्रतिमायें हैं। उनके साथ ही यह उल्लेख भी है कि 24 अवतार, 24 देवता, 24 ऋषि 24 यंत्र किस प्रकार इन अक्षरों की महा शक्ति के साथ जुड़े हुए हैं। इस मंजिल का ध्यान पूर्वक पर्यवेक्षण करने पर दर्शकों की समझ में गायत्री महाशक्ति की गरिमा का स्वरूप सहज समझ में आता है।
आश्रम की दूसरी मंजिल पर अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का निर्धारण करने वाली प्रयोग शाला है। इनमें ऐसे बहुमूल्य यंत्र लगे हैं जो अपने प्रयोजन की आवश्यकताओं को भली भांति पूर्ण कर सकें।
तीसरी मंजिल में ऐसा पुस्तकालय है जिसमें अभीष्ट अनुसंधान में सहायक सिद्ध हो सकने वाले ग्रन्थ देश विदेश से मंगाकर 24 कमरों में व्यवस्थित रूप से रखे हुए हैं।
नई पीढ़ी प्रत्यक्षवाद एवं बुद्धिवाद को मान्यता देती हैं। पुरातन काल में शास्त्र प्रमाण एवं आप्त वचन जन साधारण का समाधान कर लेते थे। वह श्रद्धा विश्वास का जमाना अब नहीं रहा। अब हर प्रतिपादन के संबंध में तर्क तथ्य और प्रमाण मांगे जाते हैं। इससे कम में विचारशील वर्ग का समाधान नहीं होता। समय की मांग को ध्यान में रखते हुए यह अन्वेषण अनुसंधान खड़ा किया गया है। इसमें गायत्री की शब्द शक्ति और यज्ञ की आरोग्यवर्धक पर्जन्य वार्पिणी क्षमता की खोज-बीन की आती है। अग्निहोत्र पर अनुसंधान के लिए आश्रम के मध्य प्रांगण में एक यज्ञ शाला प्रयोग परीक्षण के निमित्त बनाई गई है। इसमें लगे हुए यंत्र उपकरणों को देखकर प्रस्तुत अनुसंधान के प्रति संस्थापकों की सूझ-बूझ एवं विधि व्यवस्था पर विज्ञान में अभिरुचि रखने वाले मुक्त कंठ से सराहना किये बिना नहीं रहते।
ब्रह्मवर्चस के शोधन कर्त्ताओं में एम.डी., एम.एस., पी.एच.डी. साइंस के पोस्ट ग्रेजुएट, डबल एम.ए. स्तर के लोग हैं। उनने अपनी हजारों रुपये मासिक की आय में ठोकर मारकर इस महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए निःशुल्क समय दिया है। ग्रन्थों की खोज-बीन के लिए संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी के ग्रेजुएट स्तर के विद्वान कार्यरत हैं। उनके प्रयत्न से ऐसे तथ्य काम में आये हैं जिनके आधार पर गायत्री महामंत्र एवं अग्निहोत्र की जीवनोपयोगी क्षमता का ज्ञान होता है और उसके आधार पर हर दृष्टि से लाभान्वित होने का अवसर मिलता है।
अध्यात्म सिद्धान्तों को सिद्धि विज्ञान की साक्षी में सिद्ध किया जाय। दोनों को एक दूसरे का पूरक सहयोगी बनाया जाय। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए विश्व के कोने-कोने से आस्तिक एवं दार्शनिक समुदाय मांग कर रहा था पर यह समझ में नहीं आता था कि इसे किस प्रकार संभव किया जाय। इसे देव संस्कृति का सौभाग्य ही कहना चाहिए कि उसके द्वारा इस प्रयोजन की पूर्ति हो रही है। यह प्रयास नैतिकता आदर्शवादिता एवं परोक्ष जीवन की महान क्षमता को बुद्धि संगत आधार पर सिद्ध एवं प्रत्यक्ष करने जा रहा है। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान का लक्ष्य एवं प्रयास ऐसा है जिसे अपने ढंग का अनोखा ही कहा जा सकता है।

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