अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

विज्ञान और उसकी पृष्ठभूमि

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यह विश्व-ब्रह्माण्ड चेतना और पदार्थ से मिलकर बना है। पदार्थ संबंधी ज्ञान एवं प्रयोग को भौतिक विज्ञान कहते हैं और चेतना संबंधी तत्वज्ञान एवं उत्कर्ष की विधि-व्यवस्था को अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। दोनों के सम्मिश्रण से ही ‘‘विज्ञान’’ शब्द की समग्रता और सार्थकता सिद्ध होती है।

भौतिक विज्ञान का तारतम्य तो अग्नि प्रज्ज्वलन, पशुपालन, कृषि, वस्त्र, निवास, पात्र, औजार आदि के साथ ही चल पड़ा था; पर उसका चरम विकास इस शताब्दी में हुआ है। जितने प्रकार के यंत्र-उपकरण, आयुध-रसायन एवं सुविधा-साधन प्रस्तुत शताब्दी में विनिर्मित हुए हैं, उतना अतीत में कभी नहीं हुआ था।

भौतिक विज्ञान के प्रति जन साधारण की अभिरुचि में असाधारण रूप से अभिवर्धन हुआ है। जहां तक कि छोटे बड़े सभी विद्यालयों में विज्ञान की जानकारी अनिवार्य रूप से सम्मिलित की गई है। उसे अनुपयुक्त दिशा मिली, तो जितना विकास हुआ है, उतना विनाश भी हो सकता है। इस संदर्भ में विस्तृत चर्चा इन पंक्तियों में करना अप्रासंगिक होगा। कहा यह भर जा रहा है कि इस प्रगतिक्रम में अध्यात्म विज्ञान पिछड़ गया। इसकी वैसी प्रगति नहीं हो सकती, जिससे गाड़ी के दो पहियों की तरह, पक्षी के दो पंखों की तरह उनका संतुलन बना रहता है। इस असंतुलन के कारण ही विज्ञान को उद्धत क्रम अपनाने और विनाशलीलाएं रचने का अवसर मिला है। यदि दोनों एक-दूसरे का सहयोग करते रहते, तो समग्र प्रगति होती और धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव हो गया होता।

विज्ञान की मूल प्रकृति यह है कि वह प्रतिपादनों को प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर कसता है। इससे कम में न उसे संतोष होता, और न समाधान। भौतिकविज्ञान के प्रतिपादन को प्रत्यक्ष की कसौटी पर कसा जा सकता है तथ्यों की यथार्थता परखने की हर किसी को छूट है। यही कारण है कि उसकी प्रामाणिकता असंदिग्ध मानी गई है। जिसे जिस प्रकार की जितनी आवश्यकता थी, उसने उसे निःसंकोच अपनाया भी है।

पर अध्यात्म विज्ञान के संबंध में भारी कठिनाई यह है कि उसके प्रतिपादन प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। जो कहा जाता है, वह अदृश्य से, परलोक से संबंधित होता है; तर्क, तथ्य प्रमाण और प्रत्यक्ष के आधार पर उसको विश्वस्त सिद्ध नहीं किया जा सकता। दूसरी कठिनाई यह हुई कि अनेक धर्म-सम्प्रदाय एवं दर्शनों ने उसे एक रूप से नहीं कहा। उनके कथनों में भारी अन्तर है। कहीं-कहीं तो उन प्रतिपादनों में जमीन आसमान जैसा अन्तर है। उनका पारस्परिक विरोध मतभेद यह संदेह उत्पन्न करता है कि जब भौतिकविज्ञान के सभी प्रतिपादन एक ही तरह के हैं तो अध्यात्म में इस तरह का अन्तर क्यों है? या तो इनमें एक सही और अन्य गलत हैं, अथवा सभी गलत हैं। तथ्यों का प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर खरा न उतरना और अनेक वर्गों द्वारा अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी बातों का कहा जाना—यह दो ऐसे प्रत्यक्ष कारण हैं, जिनके कारण अध्यात्म को पदार्थ विज्ञान जैसी मान्यता नहीं मिली। सच तो यह है, कि इस बुद्धिवाद के युग में उसकी ओर उपेक्षा ही नहीं, अविश्वास और उपहास का क्रम भी चल पड़ा है।

चेतना पदार्थ से बढ़कर है। प्राणी ही पदार्थों का इच्छानुसार उपयोग करता है। इस प्रकार अध्यात्म की वरिष्ठता सिद्ध हुई। भौतिक विज्ञानी पदार्थ-ज्ञान को जानकर अपनी जानकारी और क्षमता का उपयोग करके भरपूर लाभ उठाते हैं। तब अध्यात्मविज्ञानियों को अपने क्षेत्र में उसी प्रकार सफल और समुन्नत क्यों नहीं होना चाहिए? देखा ठीक इसके विपरीत जाता है अध्यात्मवादी कल्पना की उड़ाने उड़ते और किम्वदन्तियों का आश्रय लेकर चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों का वर्णन करते हैं; पर उनमें से किसी को भी प्रत्यक्ष दिखा नहीं पाते। अपने मन की शांति और परलोक में स्वर्ग-मुक्ति जैसी सद्गति की संभावना को प्रामाणिक कैसे कहा जाय? उन्हें मूढ़ मान्यता कह कर झुठलाया क्यों न जाय?

यह असमंजस ऐसे हैं, जिनके कारण विज्ञान का भौतिक पक्ष ही लोगों के गले उतरा और अध्यात्म पक्ष मात्र श्रद्धा या भावुकता के कच्चे धागे पर लटका रहा। खरे सोने को आग पर तपाने और कसौटी पर सौ बार कसे जाने में भी किसी को आपत्ति नहीं होती, फिर अध्यात्म को कल्पना क्षेत्र तक ही क्यों सीमित रहना पड़े? वह क्यों न अपने प्रतिपादनों को इस प्रकार प्रस्तुत करे, जिसे कोई चुनौती देने या झुठलाने का प्रयत्न न कर सके। जो व्यक्ति अध्यात्म का जोर-शोर से प्रतिपादन करते हैं, उन्हें तो अपने आप में ऐसा होना ही चाहिए था कि दीन-हीन या असहाय होने जैसी स्थिति में घिरा न देखा जाय। वे अपनी विशिष्टता से समाज, को किसी प्रकार प्रभावित एवं समुन्नत तो करें। उनका समीपवर्ती वातावरण एवं परिकर ऐसा तो हो, जिसके संबंध में यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सके कि कथनी और करनी में एकता है।

भौतिक विज्ञानियों को तो श्रेय, सम्मान, पद, वैभव आदि मिलता है, उनकी कृतियों को जनसाधारण द्वारा सराहा और चिरकाल तक स्मरण किया जाता है। यदि अध्यात्म की वरिष्ठता है, तो उस प्रयास में संलग्न होने की उपलब्धियां उससे कम नहीं; वरन् अधिक ही मिलनी चाहिए; पर ऐसा देखा नहीं जाता। भारत में 60 लाख सन्त–महात्मा हैं। धर्म को व्यवसाय बनाकर चलने वाले ब्राह्मण वर्ग की भी इतनी ही संख्या मानी जाय, तो साधु-ब्राह्मण

मिलकर 60+60=120 लाख होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारत के नागरिकों में 50 व्यक्तियों के पीछे एक धर्म या अध्यात्म के माध्यम से जीविकोपार्जन करने वाला है। यदि इन्हें केवल हिन्दू सम्प्रदाय का आंका जाय, तो अनुपात और भी दूना हो जाता है। हर 20 या 30 हिन्दुओं पीछे एक सन्त, महन्त, ब्राह्मण, धर्मोपदेशक, पुजारी आता है। इतने अध्यात्मवादियों की निज की स्थिति अपेक्षाकृत ऊंची होनी चाहिए था; पर वैसा न होकर यह भ्रम फैलाते और जैसे-तैसे अपनी आजीविका उगाहते हैं। उनकी स्थिति का पर्यवेक्षण किया जाय, तो सामान्य नागरिकों की तुलना में स्वास्थ्य, शिक्षा, चरित्र, प्रतिभा, उपयोगिता की दृष्टि से घटिया ही पड़ते हैं।

देश में सात लाख गांव हैं, 60 लाख संत, जो पूरा सम धर्म-अध्यात्म के नाम पर ही व्यतीत करते हैं। एक गांव पीछे साढ़े आठ संत आते हैं, जिनका व्यय भार जनता को ही वहन करना पड़ता है। यह समुदाय यदि अध्यात्म की वैज्ञानिक विधि-व्यवस्था से अपरिचित है, तो कम-से-कम समाज सेवक की, सुधारक की भूमिका तो निभा ही सकता है। इतने से भी प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, व्यायामशाला, स्वच्छता, सहकारिता, कुरीति उन्मूलन जैसे सरल कार्य तो आसानी से कर सकता है। यदि इतना बन पड़ा होता तो देश की नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई होती; किन्तु इस प्रकार का पर्यवेक्षण करने पर स्थिति निराशाजनक ही दीखती है। जिनके द्वारा सेवा कार्य हो रहे हों, और जो देश, धर्म, समाज, संस्कृति के उत्कर्ष के लिए कुछ करते हों उन सराहनीय सन्तों की गणना उंगलियों पर गिनने जितनी है।

धार्मिक क्षेत्रों में जो प्रवृत्तियां चलती हैं, उनमें तीर्थयात्रा, धार्मिक मेले-ठेलों, स्नान, प्रतिमा-दर्शन, कीर्तन, जागरण, भण्डारे तथा दूसरे प्रकार के खर्चीले कर्मकाण्डों की ही भरमार दीखती है। इन प्रयोजनों में लगी हुई जनशक्ति द्वारा यदि देश की अस्त व्यस्तता और दुर्दशा को समझा गया होता और उनके लिए सुधार कार्यों को अपनाया गया होता, तो स्थिति वैसी न रहती, जैसी की आज है। गांजा, भांग, चरस, धूम्रपान की भरमार—अन्धविश्वासों को बढ़ावा देने वाले क्रिया-कृत्य ही इस क्षेत्र में बढ़ावा पाते दीखते हैं।

इस पर्यवेक्षण से भौतिक एवं आध्यात्मिक विज्ञानवादियों की कृतियों और उपलब्धियों में भारी अन्तर दीखता है। उसी अनुपात से दोनों वर्गों की वरिष्ठता-कनिष्ठता का मूल्यांकन किया जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अध्यात्म तत्वज्ञान की गरिमा भौतिकविज्ञान की महिमा के आगे हेटी पड़ रही है। व्यक्ति की कृतियों के आधार पर ही उनका स्तर आंका जाता है। तराजू पर तोलते है; तो वैज्ञानिक भारी पड़ता है और धर्मसेवी हल्का। इससे पता चलता है कि तथ्य किस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने से कुछ अनगढ़ लोग ही भ्रम में पड़ सकते हैं, विज्ञजनों को वस्तु स्थिति समझाना तो तथ्यों के आधार पर ही हो सकता है।

जब दीखता है कि इतनी बड़ी जनसंख्या और उसके निर्वाह तथा आडम्बरों पर खर्च होने वाला विपुल धन व्यर्थ ही जा रहा है, तो विचारशीलों में क्षोभ आक्रोश, विरोध, तिरस्कार का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है, उन्हें शब्दाडम्बर से संतोष नहीं कराया जा सकता।

क्या अध्यात्म की प्रकृति ही ऐसी है? इसके उत्तर में स्पष्टता ‘‘नहीं’’ ही कहना पड़ेगा; क्योंकि इतिहास के पृष्ठ पलटने से जब अतीत का पर्यवेक्षण किया जाता है, तो प्रतीत होता है कि अध्यात्म की गरिमा हिमालय जैसी ऊंची, धवल और शान्तिभरी शीतलता प्रदान करती रही है। ऋषि-मनीषियों की संख्या कम ही थी, तो भी उनमें से प्रत्येक की निजी गरिमा, साधना एवं लोक सेवा ऐसी थी, जिसका स्मरण करने मात्र से आज भी हमारा सिर ऊंचा होता है।

आत्मविज्ञानी अपने शरीर और मनःक्षेत्र को प्रयोगशाला के रूप में प्रयुक्त करते थे और उसमें शोध प्रयास जारी रखते हुए व्यक्तित्व को अगणित विशिष्टताओं से सम्पन्न करते थे। ऋद्धि-सिद्धियां उनके करतलगत होती थीं। अपने को तप करने तपस्वी, कुंदन जैसे चमकते और बहुमूल्य सिद्ध होते थे; तत्वज्ञान की दर्शन परक और अध्यात्म की योग प्रयोगों से भरी-पूरी कृतियां प्रस्तुत करते रहे। उनके आश्रम—आरण्यकों में गाय—सिंह एक घाट पर पानी पीते थे। जो वहां निवास करते थे, वे अपना दृष्टिकोण परिष्कृत एवं व्यक्तित्व उत्कृष्ट बनाकर लौटते थे। उनका सान्निध्य पारस पत्थर जैसा और उनका अनुग्रह कल्पवृक्ष जैसा सिद्ध होता था। वे अमृतमय रहते और आनन्द बांटते थे। व्यक्ति और समाज की समस्यायें हल करने में उनकी भूमिका ऐसी थी, जिसको भूरि-भूरि सराहा जाय।

इन पंक्तियों में ऋषि गाथाओं का गुणगान करने की गुंजाइश नहीं है। फिर भी व्यास का साहित्य सृजन, जमदग्नि का आरण्यक, नागार्जुन का रसायन शास्त्र, चरक का वनस्पति विज्ञान, सुश्रुत की शल्य चिकित्सा, याज्ञवल्क्य का यज्ञ अनुसंधान, विश्वामित्र की मन्त्र शक्ति, शंकराचार्य की दिग्विजय, बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन, परशुराम का अनीति उच्छेदन, वशिष्ठ द्वारा राम के माध्यम से त्रेता में सतयुग की वापसी, द्रोणाचार्य की धनुर्विद्या, दधीचि का इन्द्र वज्र, भागीरथ का गंगावतरण, पाणिनि का व्याकरण, पातंजलि का योग, वैषेशिक का अणु विज्ञान, दक्ष का भौतिकविज्ञान, अर्जुन का युद्ध कौशल, अगस्त्य का समुद्रपान, नारद का लोकान्तर गमन, विश्वकर्मा का शिल्प, कौंडिन्य का विदेशों में संस्कृति-प्रचार, चाणक्य का विश्वविद्यालय आदि-आदि अगणित कृत्य ऐसे हैं, जिन्हें हर दृष्टि से असाधारण ही कहा जा सकता है। सूत-शौनक ऋषि स्थान-स्थान पर धर्मप्रचार आयोजन करते थे। आत्मशक्ति को ऐसी प्रबलता भी जिसने वाल्मीकि अंगुलिमाल जैसों को बदल कर कुछ-से-कुछ बना दिया। समर्थ रामदास ने स्वतंत्रता आन्दोलन की योजना बनायी और शिवाजी, प्रताप, छत्रसाल जैसों के माध्यम से उसे कार्यान्वित कराया। चन्द्रगुप्त की सफलताओं का श्रेय चाणक्य को था। कबीर, रैदास जैसे सन्तों ने ऊंच-नीच का भेद-भाव मिटाया। परमहंस के शिष्य विवेकानन्द ने लड़खड़ाती संस्कृति को पैर टिकाने का अवसर दिया। विरजानन्द के शिष्य दयानन्द ने पाखण्डों के धुर्र बिखेर दिये। ऐसे थे अनेकों प्रतिभावान अध्यात्मवादी जिनके व्यक्तित्व की गाथा गाने और कर्तव्य की गाथा गाने वाले तक में रोमांच हो आते हैं। उन्होंने हर्षवर्धन, अशोक, कर्ण, हरिश्चन्द्र, अश्वपति, चक्रवर्ती भरत जैसों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी।

जिनके संरक्षण ने सावित्री, सुकन्या, कुन्ती, गान्धारी, अनुसुइया, अरुन्धती महिला वर्ग को सच्चे अर्थों में देवी सिद्ध कर सकी। ध्रुव, प्रहलाद, लव-कुश, अभिमन्यु, जैसे बालक कहीं-से-कहीं जा पहुंचे; जिनकी गौएं राजा दिलीप तक ने चरायी; जिसमें प्रवेश पाने के लिए विश्वामित्र, भर्तृहरि जैसों ने अपने राज-पाट त्यागे, उस क्षेत्र को साधारण नहीं कहा जा सकता; सामान्य को असामान्य बना देने वाले उस विज्ञान को जाल-जंजाल नहीं कहा जा सकता।

उनके अजस्र अनुदान विश्वामित्र को मिले थे। उन्हीं का प्रताप था कि भारत जगद्गुरु कहलाया। विशाल भारत के तैंतीस करोड़ नागरिक तैंतीस कोटि ऋषियों में गिने गये। यह ऋषियों द्वारा प्रयुक्त अध्यात्म की परिणतियां हैं। उनके शाप से परिलक्षितों को भूमिसात् होना पड़ता था। उनके वरदान से दशरथ को चार भगवान जैसे पुत्रों का सुयोग मिला था, जो इन्द्र और चन्द्र को शाप दे सकते थे; जो भारतभूमि को ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ बनाने का सौभाग्य प्रदान कर सके थे।

मनुष्य-मनुष्य सब एक जैसे हैं; पर उनमें से अधिकांश के साधारण स्थिति में रहते हुए भी कुछ का असाधारण हो जाना यही सिद्ध करता है कि जिनने महानता अर्जित की उनके साथ कोई-न-कोई समर्थ अवलम्बन रहा होगा। यह अवलम्बन और कुछ नहीं मात्र अध्यात्म ही है, जो इसी हाड़-मांस के पुतले को धरती का देवता कहलाने का गौरव प्रदान करता है। यह मात्र कथन ही नहीं है, अध्यात्मवेत्ता वस्तुतः होते भी ऐसे ही हैं।

स्पष्ट है कि आत्मविज्ञान अपने आप में महान है उसकी क्षमता एवं गरिमा भौतिक विज्ञान से किसी भी प्रकार कम नहीं, वरन् बढ़कर ही है; किन्तु जब लोग असली हीरा प्राप्त करने में आवश्यक साधन न जुटा सकें और उस ललक को कांच के नकली उपकरणों से पूरी करना चाहें तो उन्हें अभीष्ट गौरव प्राप्त होने से वंचित ही होना पड़ेगा। आज लोग छुट-पुट पूजा-पत्री और नाम रटन्त मात्र से उन लाभों को प्राप्त करना चाहते हैं, जो यथार्थता अपनाने वाले को प्राप्त होता है, फलतः उन्हें उपहासास्पद बनना पड़ता है। घर छोड़ देना, भिक्षा पर निर्वाह करने, वस्त्र रंगा लेने मात्र से कोई सच्चा अध्यात्मवादी नहीं बन सकता, उसे समूचे जीवन के कण-कण में, काया के रोम-रोम में, चिंतन की प्रत्येक लहर में अध्यात्म आदर्शों को बसाना पड़ता है। उचित मूल्य पर उचित उपलब्धि हस्तगत होने का सिद्धान्त है। इसे छोड़ कर पगडंडियों में भटकने वाले थकान, खीझ, असफलता और उपहास ही प्राप्त करते हैं।
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