अध्यात्म क्या था? क्या हो गया? क्या होना चाहिए?

वर्त्तमान और भविष्य का क्रिया कलाप

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सिद्धान्तों और प्रयोगों का स्वरूप यदि सही हो, तो निश्चय ही उसके परिणाम भी उत्साहवर्धक ही होने चाहिए। शास्त्रकारों ने अतिरंजित अत्युक्तियां नहीं लिखी हैं। आप्त पुरुषों ने अपने अनुभव का सार जिस रूप में प्रस्तुत किया है, उसमें छलावा या बहकावा नहीं हो सकता। शर्त एक ही है कि तथ्यों को समझा और प्रयोगों को तद्नुरूप सम्पन्न किया गया हो। इस केन्द्र बिन्दु की उपेक्षा करने पर उसका परिणाम तदनुरूप न निकले, तो दोष निर्धारणों को नहीं, अपनी भ्रान्तियों और त्रुटियों को देना चाहिए।

सिद्धान्त समझने मात्र से भी समाधान नहीं होता। लोग प्रत्यक्ष प्रयोग और उसकी परिणिति देखे बिना संतुष्ट नहीं होते और उस मार्ग को अपनाने का साहस नहीं करते, अस्तु यहां उदाहरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता पड़ी। इसके बिना काम चलने वाला नहीं था। इसमें भी एक बात और जुड़ती है कि जैसे उदाहरण सामने होना चाहिए, जिसके संबंध में कही गई बातों की जांच पड़ताल हो सके, अन्यथा किम्वदंतियां और अत्युक्तियां तो अनेकों दिवंगत लोगों के जीवन क्रम में उनके अनुचरों ने जोड़ रखी हैं, उनके सुनने से भी बात नहीं बनती; क्योंकि यह जानना कठिन है कि अमुक सन्त की सिद्धियों के साथ जितनी चमत्कारी घटनाएं जुड़ी हैं, उनमें कितना अंश वास्तविकता का है और कितना मिलावट का। इस असमंजस को दूर करने के लिए एक जीवित व्यक्ति का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ रहा है, जिसके साथ जुड़ी हुई असाधारण घटनाओं को कोई भी व्यक्ति जांच पड़ताल करके अपना समाधान कर सकता है और इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि अध्यात्म विशुद्ध विज्ञान है और उसकी परिणतियां भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों से किसी भी प्रकार कम नहीं हैं।

इस सन्दर्भ में प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालक आचार्य जी को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा। उनके 75 वर्ष के जीवन क्रम को एक प्रकार से 75 पृष्ठों की ऐसी पुस्तक के रूप में पढ़ा और समझा जा सकता है जिनके प्रत्येक पृष्ठ पर अध्यात्म विज्ञान और उसके प्रतिफल का स्वरूप दृष्टव्य है। उनका अपनाया हुआ राजमार्ग अन्यान्यों के लिए अनुकरणीय हो सकता है, जिस पर चलते हुए वे प्रत्यक्ष और परोक्ष की उपलब्धियों को हस्तगत कर सकें, लक्ष्य तक पहुंच सकें।

घटनाओं की बहुमुखी घटनाओं में से उतना ही उल्लेख पर्याप्त होना चाहिए, जिससे तथ्य, सिद्धान्त एवं प्रयोग पर आवश्यक प्रकाश पड़ सके।

घटना क्रम गुरुदेव की पन्द्रह वर्ष की आयु से प्रारम्भ होता है, जिस दिन उन्हें एक दिव्य आत्मा का घर बैठे सूक्ष्म शरीर से साक्षात्कार हुआ। उनने प्रकाश मंडल के मध्य अपनी काया का दर्शन दिया। इस प्रकार की अनोखी झांकी से एक बालक का भयभीत हो उठना स्वाभाविक था। वार्तालाप चला। सूक्ष्म शरीर में प्रकट हुए दिव्य पुरुष ने कहा—‘‘हम इस जन्म को सही दिशा पर चलाने का मार्ग दर्शन करने आये हैं। अनेक जन्मों में भी तुम्हारे साथ रहे हैं उस लम्बी अवधि में पात्रता इतनी परिपक्व हो गई कि तुम्हें प्रकाश को ढूंढ़ने कहीं जाना नहीं पड़ा, वरन् प्रकाश ही स्वयं चलकर मार्ग दर्शन के लिए स्वयं आ गया।’’

कथन भर पर विश्वास करने की परम्परा इन दिनों रह नहीं गई है। श्रोता भ्रम ग्रस्त हो सकते हैं, पर वक्ताओं में से भी ऐसों की कमी नहीं, जो भुलावे में डालकर छलावा साधते हैं। इस रूप में कोई भूत-प्रेत भी हो सकता है और अपना मतिभ्रम भी। यह आशंका असमंजस मन में उठ रहा था। दिव्य पुरुष ने बालक के मानस को पढ़ लिया और वह किया, जिससे अनुभूति भीतर से उभरे। आंख बन्द करने के लिए कहा गया और पिछले जन्मों की स्थिति का दर्शन क्रम चल पड़ा। प्रायः पिछले 700 वर्षों का घटनाक्रम दिखाता गया। सभी जन्म अध्यात्म सिद्धान्तों को कार्यान्वित करते हुए अपनी पात्रता अग्रसर करने की दिशा में एक एक कदम आगे बढ़े थे।

इस अवधि में प्रायः दस जीवनों की श्रृंखला थी, जिसमें से तीन विशेष महत्वपूर्ण हैं। कबीर, समर्थ रामदास और रामकृष्ण परमहंस। सभी जन्मों की घटनाएं एक ही मार्ग पर चलने को थी। समय की आवश्यकता के अनुरूप कार्यक्रम तो बदलते रहे; पर दिशा एक ही रही और प्रकाश भरे मार्ग दर्शन का केन्द्र बिन्दु भी एक ही। यह दृश्य थे तो दिवास्वप्न; पर उनके प्रत्यक्ष एवं यथार्थ होने जैसा प्रभाव उत्पन्न हुआ। आत्मबोध उभरा और इन जन्म का उपयोग किस प्रकार हो? यह जिज्ञासा उभरी। मन की जानने वाले से कुछ कहना न पड़ा। उनने अपनी ओर से ही उसे बताना आरम्भ कर दिया। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त तक की समग्र योजना बता दी और आवश्यक क्षमता अर्जित करने के लिए चौबीस वर्षों में पूरी कर लेने के लिए कहा। इसे जब भी किया जाय, तब जौ की रोटी और छाछ भर का आहार ग्रहण करने का निर्देश हुआ। परिशोधन और संकल्प की प्रखरता के लिए यह आवश्यक बताया गया और उन दिनों चर्च में रहे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बीच-बीच में उस क्रम को चलाने का उद्देश्य भी पूरी करते रहने का समन्वित कार्यक्रम निर्धारण हुआ।

यह तपश्चर्या का परोक्ष पक्ष रहा। उसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष जीवन की प्रत्यक्ष रूपरेखा के बारे में समझा गया कि वह उपासना, साधना और आराधना के साथ गुथी हुई होनी चाहिए। आजीविका की आवश्यकता पूर्व जन्मों की संचित सम्पदा से इस जन्म में पूरी हो गई। भूतकाल में किया हुआ दान-धर्म इस जन्म में पैतृक सम्पदा के रूप में उपलब्ध हो गया। इससे उपार्जन में कुछ प्रयास नहीं करना पड़ा। जीवनचर्या को उसी आधार पर निर्धारित किया गया, जिसमें उपासना, साधना और आराधना के तीनों प्रयोजन साथ-साथ निभते रहें।

उपासना अर्थात् ईश्वर के समीप बैठना, उसके निमित्त अपने समग्र समर्पण की मनोभूमि बनाना। गायत्री को, महा प्रज्ञा को परमेश्वर का प्रतीक मानकर उसके साथ अपने को तद्रूप करने का भावनात्मक प्रयास चला। नदी-नाले की तरह, आग-ईंधन की तरह, सिन्धु में जल-बिन्दु, तरह पति-पत्नी की तरह यह आत्म समर्पण एकीकरण अद्वैत चलता रहा। कीट भृंग की गति हो गई। स्थिति एकाकार जैसी हो गई।

द्वितीय प्रयास था—साधना। साधना किसकी? अपने आपकी। अनगढ़ को सुसंस्कृत बनाने की। माली की काट-छांट, धोबी की धुलाई, मदारी की पशुओं को कलाकार बनाने का कौशल याद आता रहा। अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ नरमी करने की नीति अपनाई गई। लोभ, मोह और अहंकार के महिषासुर, वृत्तासुर से जूझने की रणनीति इस प्रकार बनाई गई कि इनमें से कोई हावी न होने पाये। साथ ही ज्ञान सम्पदा का अभिवर्धन का प्रयास जुड़ा। ढाल और तलवार दोनों का अभिवर्धन और निष्कासन में प्रयोग होता रहा। साधना आजीवन इसी प्रकार सधती रही।

व्यावहारिक अध्यात्म का तीसरा चरण—‘‘आराधना।’’ आराधना अर्थात् उदारता, सेवा, संलग्नता, परमार्थ परायणता, लोक मंगल। अपने श्रम, समय, प्रभाव, कौशल, एवं साधन इसी निमित्त नियोजित किये जाते रहे।

परमार्थ के दो स्वरूप हैं—एक गिरों को उठाना, पिछड़ों को बढ़ाना, दुखियों की पीड़ा पर मलहम लगाना। तात्कालिक सहायता के रूप में जो कुछ बन पड़े उसमें निष्ठुरता का प्रवेश न होने देना। करुणा और उदारता को चरितार्थ करने का कोई अवसर न चूकना। आराधना का दूसरा पक्ष है—सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। एक के लिए रचनात्मक क्रियाकलाप अपनाने पड़ते हैं और दूसरों के लिए संघर्षरत रहना पड़ता है। सुधार और उत्कर्ष दोनों का समन्वय है। इसी समन्वय का नाम युग निर्माण एवं प्रज्ञा अभियान दिया गया। आत्म शोधन की तरह ही इन प्रयोजनों को कार्यान्वित करने की उभय पक्षीय सक्रियता अधिकाधिक प्रबल एवं प्रखर होती रही।

आध्यात्मिक जीवन इसी ढांचे में ढलते रहे हैं। उनमें आत्म शोधन का तप और सदुद्देश्यों के साथ जुड़ा योग का समन्वय हो जाता है। सिद्धान्ततः गुरुदेव की जीवनचर्या का अद्यावधि प्रवाह इसी दिशा धारा में बहता रहा है। उन्होंने स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन और मनन का निरन्तर प्रयोग किया, फलतः वह सूझबूझ उत्पन्न होती रही, जिसके आधार पर सामयिक क्रियाकलापों का शुभारंभ करने से लेकर, साधन जुटाने, सहयोग उगाने से लेकर प्रयास को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए जो संभव था, किया जाता रहा। समुचित सतर्कता, जागरूकता और सुव्यवस्था के रहते कदाचित् ही किन्हीं कार्यों में असफलता मिलती है। उन्हें मिली भी नहीं। जिस काम में हाथ डाला, वह प्रगति के चरम स्तर तक पहुंचा। मार्ग में व्यवधान जाये न हों, सो बात नहीं। धर्म को बढ़ते देखकर अधर्म सकपकाता है और आक्रमण करने, कर्त्ता को चोट पहुंचाने से चूकता नहीं। पूतना और ताड़का, सुरसा, त्रिजटा जैसी विपत्ति विभीषिकायें अवरोध बनकर अनर्थ कर सकती हैं, करती हैं; पर जहां आधार सुदृढ़ हैं, वहां उन्हें टकराकर अपना ही सिर फोड़ना पड़ता है। गुरुदेव के साथ में भी अनेक बार ऐसी अग्नि परीक्षा के अवसर आते रहे हैं; पर वे खरे सोने की तरह उसमें से गुजरते रहे हैं।

चिरकाल तक अपनी धुलाई और रंगाई के उपरान्त उभरी पात्रता और संकल्प, साहस, संयम और अनुशासन की अग्नि परीक्षा में जब प्रामाणिकता सिद्ध हो गई तो दैवी अनुग्रह की अहैतुकी अनुकम्पा अन्तरिक्ष से बरसने लगी और उस अमृत वर्षा ने साधक को निहाल कर दिया। जिस प्रकार आरम्भिक मार्ग दर्शन के लिए उस सूक्ष्म शरीरधारी देव पुरुष ने स्वयं पधारने का अनुग्रह किया था। उसी प्रकार पच्चीस वर्ष की भावना और क्रिया का पर्यवेक्षण करने के उपरान्त दुबारा सुधि ली और अपनी सामर्थ्य भण्डार का एक बड़ा अंश अनुदान रूप में देने का निश्चय किया। इसके लिए हिमालय आने और उनके निवास केन्द्र पर उपस्थित होने का आह्वान आया।

गुरुदेव की तीन बार हिमालय यात्रा हुई। इसमें सुमेरु पर्वत क्षेत्र किनन्दन वन घाटी—उत्तराखण्ड परिधि में प्रतिष्ठित अप्रख्यात कैलाश मानसरोवर क्षेत्रों की यात्रा कराई गई। जो ऋषि तपस्वी सूक्ष्म शरीर से उस प्रदेश की दिव्य गुफाओं में तप करते हैं, उनके साथ परिचय और सम्पर्क कराया गया। घोर अभाव ग्रस्त उस वातावरण में अपना संरक्षण देकर निवास अनुभव कराया गया। इसके उपरान्त यह बताया गया कि युग-धर्म के निर्वाह में क्या-क्या कदम किस क्रम से उठाये जाने चाहिए और उसकी सफलता में दिव्य सहयोग किस प्रकार, किस मात्रा में मिलेगा; स्वयं कितना पुरुषार्थ और उच्च आत्माओं को खोज निकालने का कार्य किस प्रकार सम्पन्न करना होगा। साथ ही यह वचन भी दिया गया कि कठिनाई के प्रत्येक अवसर पर उनकी सहायता किस माध्यम से पहुंचती रहेगी।

भिन्न समयों पर सम्पन्न हुए इन प्रवासों में उत्तराखण्ड क्षेत्र की रहस्यमयी भूमिकाओं से संबंधित जो जानने योग्य था, जनाया गया, देखने योग्य था, वह दिखाया गया।

भावी निर्धारण में जो कार्य सौंपे गये, वे यह थे (1) युग परिवर्तन की भूमिका सम्पन्न करने वाले प्रमुख दो केन्द्र यमुना और गंगा के तट पर स्थापित करना। (2) सुसंस्कारी आत्माओं को ढूंढ़ निकालना और उनमें प्राण फूंक कर सृजन प्रयासों में संलग्न होने के लिए कटिबद्ध करना (3) युगान्तरीय चेतना को व्यापक बनाने वाला एक संगठन खड़ा करना (4) स्थान-स्थान पर युग धर्म को जीवंत बनाने के लिए धर्म-संस्थान खड़े करना (5) ढूंढ़े हुए संस्कारवान आत्माओं का एक विशालकाय सम्मेलन करके उन सबको परस्पर परिचित कराना और कार्य शैली निर्धारित करना। (6) आर्ष साहित्य को सर्व सुलभ करना (7) युग साहित्य का सुविस्तृत सृजन और उनका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद-विस्तार। (8) युग सृजेताओं का छोटा और बड़ा प्रशिक्षण क्रम चलाना (9) अध्यात्म और विज्ञान का परस्पर तालमेल बिठाकर प्रत्यक्षवादी बुद्धिवादियों का समाधान करना। (10) गायत्री महामंत्र और यज्ञ विज्ञान को विस्मृति के गर्त से निकालकर सतयुगी गौरव-गरिमा प्रदान करना (11) साधु-ब्राह्मण की वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जीवन (12) चरक सुश्रुत को आयुर्वेद परिपाटी को पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान के समतुल्य प्रतिष्ठा प्राप्त करना (13) विदेशों में विश्व भर में युग चेतना का विस्तार करना (14) वायु मंडल और वातावरण के परिशोधन हेतु प्रज्ञा पुरश्चरण की सुनियोजित व्यवस्था करना।

समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले थे। उसमें देव दानवों का तो परिश्रम मात्र लगा था। प्रमुख भूमिका कच्छप भगवान और शेषनाग की थी। यह उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया कि हम दोनों को मिलकर यह चौदह सूत्री योजना सम्पन्न करनी चाहिए। इसके लिए साधन और सहयोग जुटाने में सामर्थ्य भर प्रयत्न करना चाहिए। यों, समय के प्रभाव से लोकमानस में निकृष्टता घर कर गई है और लोभ, मोह, अहंकार ने जन-जन को उन्मादी स्तर का बना दिया है, फिर भी महानता का बीज नाश नहीं होता। देव मानव किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं विद्यमान रहते ही हैं। उन मणि-मुक्तकों की तलाश करने के लिए निकला जाय। गहरे समुद्र में गोता लगाकर मोती ढूंढ़ निकालने वाले गोताखोरों जैसा साहस जुटाया जाय, तो कठिन दीखने वाला कार्य भी सरल हो जाता है। कठिन को सरल कर दिखाना ही हम दोनों के समन्वय से संभव होकर ही रहना चाहिए।

समूची योजना को तीन चरणों में विभाजित किया गया, जिसमें 24 गायत्री के महापुरश्चरण करने और उपासना, साधना, आराधना के अभ्यास से व्यक्तित्व को अष्ट धातु की तोप जैसा परिपक्व करना था।

दूसरे चरण में उपरोक्त चौदह सूत्री योजना को कार्यान्वित करके युग परिवर्तन के अनुरूप वातावरण बनाना और उसके लिए आवश्यक साधन एवं सहयोग जुटा कर सामर्थ्यवान ढांचा खड़ा करना।

तीसरे चरण में वह क्रियाकलाप हैं, जिसमें प्रत्यक्ष नहीं, अप्रत्यक्ष भूमिका सम्पन्न की जानी है। अदृश्य जगत की प्रतिकूलता का अनुकूलन करना है। सर्वनाश के कगार पर खड़ी इस धरती और मानवी सभ्यता को सर्वनाश की विभीषिका से बचाना है। इसके अतिरिक्त जीवन्त आत्माओं की नव सृजन की अनेकानेक योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए उनकी अन्तः चेतना को प्रभावित उत्तेजित करना है।

प्रथम दो चरण किस प्रकार सम्पन्न हुए, उनकी कमी किस तेजी से पूरी हो रही है यह सब प्रस्तुत प्रगतिशील प्रयासों से इन्हीं दिनों सम्पन्न हो रहा है। आशा की जानी चाहिए कि प्रत्यक्षतः एक व्यक्ति के माध्यम से चलने वाले क्रिया-कलाप असंख्यों के भाव भरे पुरुषार्थ और अनुदान से किस प्रकार सम्पन्न हो रहे हैं।

तीसरे चरण के सन्दर्भ में कार्य प्रारंभ हो गया है। गुरुदेव की एकान्त सूक्ष्मीकरण साधना चल पड़ी है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों को वे पांच स्वतंत्र वीर भद्रों के रूप में विकसित कर रहे हैं। जो समर्थ होते ही अदृश्य जगत में ऐसी हलचलें उत्पन्न करेंगे कि दृश्य जगत में उसकी प्रतिक्रिया ऐसी दृष्टिगोचर होने लगेगी मानो विश्व व्यवस्था का कायाकल्प ही होने जा रहा है।

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