मनोविश्लेषण आधुनिक समय का एक विशेष तथा नवीन विज्ञान माना जा रहा है। यह मनोविज्ञान पाश्चात्य देशों के लिये कोई नवीन अथवा विज्ञान हो सकता है। किन्तु भारत के लिये यह एक प्राचीन विषय है। दुःख सुख की अनुभूतियां, काम क्रोध, लोभ-मोह आदि की वृत्तियों, उनका कारण एवं निवारण का उपाय इस देश का चिर परिचित तथा प्राचीन विषय है। अन्तर केवल यह है कि भारत के प्राचीन वेत्ताओं ने इस विषय को दर्शन का नाम दिया था और आज के पाश्चात्य विद्वानों ने इसे मनोज्ञान अथवा मानस-विज्ञान की संज्ञा दी है। ध्येय दोनों का मनःस्थिति द्वारा आन्तरिक सुख शान्ति ही रहा है।
सुख-दुःख की अनुभूति मन में होती है। अस्तु, मन की स्थिति पर सुख दुःख का आना जाना स्वाभाविक है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य सांसारिक प्राणी है। उसका संसार के विषयों की ओर झुकाव होना अनिवार्य है। संसार में जहां इच्छा, अभिलाषाओं तथा कामनाओं का बाहुल्य है वहां शोक संघर्षों की भी कमी नहीं है। संसार में निवास करने वाला मनुष्य इन अवस्थाओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। कामनायें होंगी, अभाव खटकेगा, फलस्वरूप मन को अशान्ति होगी। मन अशांत रहने पर तरह-तरह की बाधाओं तथा व्यामोहों का जन्म होगा और चिन्ताओं की वृद्धि होगी, जिसका परिणाम दुःख के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का यह कथन किसी प्रकार भी गलत नहीं कहा जा सकता। निःसन्देह बाधाओं का यही क्रम है जिससे मनुष्य को दुःख का अनुभव करने के लिये विवश होना पड़ता है। किन्तु उनके इस कथन से जो यह ध्वनि निकलती है कि मनुष्य को दुःख होना ही स्थायी अनुभूति है अथवा सांसारिक स्थिति के अनुसार पीड़ा उसका प्रारब्ध भाग है—ठीक नहीं।
इस विषय में पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों से भारतीय दार्शनिकों का कहना है कि जीव अर्थात् मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति सुखमय है। उसका सत्य रूप आनन्दस्वरूप है। संसार की बाधायें माया जन्य हैं जो दुःख रूप में मानव मन पर आरोपित होती हैं। यदि जीव अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करले तो दुःख की सारी अनुभूतियों का अत्यन्ता भाव हो जाये, फिर वह न तो कभी दुःखी हो और न पीड़ित।
इस प्रश्न के उत्तर में कि जब संसार में शोक संघर्षों का अस्तित्व स्थायी है और मनुष्य सांसारिक प्राणी है तो उसे सुख प्राप्ति ही किस प्रकार हो सकती है। उसके भाग्य में मानो सदा सर्वदा के लिए दुःख शोक ही अंकित हो गये हैं।—उत्तर में आधुनिक मानस वेत्ताओं का उत्तर है कि मानव-मन की कुछ अभिलाषायें होती हैं, इच्छायें तथा कामनायें होती हैं। जिनकी पूर्ति के लिये वह लालायित रहता है। अपनी कामनाओं की आपूर्ति में ही मन को दुःख तथा अशांति होती है। यदि उसकी लालसाओं, अभावों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे तो मन के दुःखी अथवा अशान्त होने का कोई कारण ही उपस्थित न हो। इसलिये मनुष्य को सुखी होने अथवा मन को सुखी करने के लिये उसी दिशा में बढ़ना होगा जिस दिशा में उसकी लालसाओं का पूर्ति-लाभ हो। मन जो कुछ चाहता है वह उसे मिल जाये तो निश्चय ही वह सुखी एवं सन्तुष्ट रहे।
सुनने में तो पाश्चात्यों का यह उत्तर बड़ा सीधा, सरल तथा समीचीन मालूम होता है पर भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार वह वैसा है नहीं। उनका कहना है कि मनुष्य का मन-मानस हर समय तरंगित होता रहता है। उसकी हर तरंग की तृप्ति नहीं की जा सकती। मनुष्य के चंचल मन की वासनाओं, कामनाओं, इच्छाओं, अभिलाषाओं तथा लालसाओं का वारापार नहीं। एक की पूर्ति होते ही दूसरी उठ खड़ी होती है। साथ ही चंचल मन में असन्तोष का एक दोष रहता है। किसी विषय की कामना करने पर यदि वह उसे मिल भी जाये तो वह उससे तृप्त नहीं होता, उसे ‘और-और’ का दौरा जैसा पड़ने लगता है। इस प्रकार वह विषय की पूर्ति में भी असन्तुष्ट एवं अशान्त रहने लगता है, और यदि एक बार उसकी और, और की तृष्णा भी बहुतायत से पूरी की जा सके तो उसे शीघ्र ही उस विषय से अरुचि होने लगती है और वह नवीन विषय के लिये उत्सुक हो उठता है।
इस सत्य का यदि पाश्चात्य मनोवेत्ताओं के पास कोई उत्तर हो सकता है तो केवल यह है कि मन को प्रसन्न करने का इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं कि उसकी लालसाओं की पूर्ति करने का यथासाध्य प्रयत्न किया जाये। जो जिस सीमा तक इस प्रयत्न में सफल होता रहेगा वह उस सीमा तक सुखी एवं सन्तुष्ट रहेगा और जो जितनी सीमा तक असफल होगा वह उस सीमा तक दुःखी एवं अशांत रहेगा। उसे सुखी एवं सन्तुष्ट कर सकने का अन्य कोई उपाय नहीं है।
क्या पाश्चात्य मानस-वेत्ताओं का यह उत्तर उपयुक्त माना जा सकता है? इसका तो ठीक-ठीक आशय यह है कि जो अधिक शक्तिशाली, साधन सम्पन्न तथा चतुर है वह वांछाओं को किसी प्रकार भी पूरी कर सुखी एवं सन्तुष्ट रह सकता है और जो सामान्य जन जिनके पास शक्ति, साधन तथा चातुर्य की कमी है वे दुःख की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ही पड़े-पड़े रोते-कलपते रहेंगे। सुखी होने का यह उपाय शाश्वत, सार्वजनिक तथा सभ्यतापूर्ण नहीं है। निःसन्देह इसी प्रकार के दृष्टिकोण ने संसार में स्वार्थ, संघर्ष, शोषण तथा साम्राज्यवाद को जन्म दिया और बढ़ाया है। संसार में फैले अन्याय, अत्याचार तथा अनैतिकता का उत्तरदायी भी यही दूषित दृष्टिकोण ही है।
इसके अतिरिक्त इस पाश्चात्य कथन में सत्य का अंश भी नहीं है। यदि धन, धाम, वैभव-विभूति, साधन-सुविधा, वस्तुयें एवं उपादान संचय कर लेने से कोई सुख का अधिकारी बन सकता होता तो संसार का कोई भी साधन सम्पन्न व्यक्ति दुःखी अथवा असन्तुष्ट नहीं दिखाई देता। उसका जीवन शांतिपूर्वक शरद-सरिता की तरह निर्विकार रूप से आनन्द कलरव के साथ कल्लोल करता हुआ बहता चला जाता। इसके विपरीत असाधनवानों का कभी मानसिक समाधान ही न होता। वे सर्वदा क्षण-प्रतिक्षण अशान्ति एवं असुख के अनुपात में जलते मरते रहते। जबकि ऐसा देखने में नहीं आता। एक से एक बढ़कर सम्पन्न व्यक्ति दुःखी और एक से एक असम्पन्न व्यक्ति सुखी एवं असन्तुष्ट देखे जा सकते हैं।
भारतीय दार्शनिकों ने मानसिक सुख-शांति का जो उपाय निर्देश किया है वह सत्य, शाश्वत, सार्वभौम, सार्वजनिक, सुलभ, सरल तथा सात्विकतापूर्ण है। उसका अवलम्बन लेकर क्या धनी, क्या निर्धन, क्या साधन सम्पन्न, क्या असावधान, क्या निर्बल सभी समान रूप से सुखी एवं शान्त रह सकते हैं। भारतीय दार्शनिकों का कहना है कि सच्ची सुख शांति मन की मनमानी करने में नहीं। मन की इच्छाओं एवं लालसाओं की पूर्ति करते रहने से सुख-शान्ति की उपलब्धि कदापि नहीं हो सकती। सच्ची सुख-शान्ति की प्राप्ति मन का रंजन करने से नहीं उसका दमन करने, कामनाओं एवम् लालसाओं को कम करने से ही प्राप्त हो सकती है। लालसाओं की ज्यों-ज्यों पूर्ति की जाती है तृष्णा बढ़ती जाती है, जिसका परिणाम असन्तोष एवं अशान्ति के सिवाय और कुछ नहीं होता। मन की लालसा अभिलाषा एक दो हों और वह उन पर स्थिर भी रहे तो सम्भव है कि उनकी पूर्ति की जा सके और मन शान्त एवं सन्तुष्ट रहे। किन्तु यह चंचल मन अनन्त एवं असीम अभिलाषाओं का अभियुक्त होता है, ऐसी दशा में उसे किसी प्रकार भी सुखी तथा सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता। मानव मन की विवशता, विपरीतता तथा वितृष्णा स्पष्ट बतलाती है कि अपने सुख के लिये उसकी न तो कोई विशेष अभिलाषा होती है और न उसकी कोई एक ऐसी आकांक्षा होती है जिसकी पूर्ति से वह वास्तव में सुखी एवम् सन्तुष्ट हो सकता है। यही नहीं उसका किसी विषय विशेष में भी अभिन्न योग नहीं होता, जिसके प्रसंग से वह सदा सर्वदा को सन्तुष्ट एवं सुखी हो सकता हो। मन प्रयत्नशील होता है वह अबोध बालकों अथवा शेखचिल्लियों की तरह क्षण भर में ‘वह-यह’ किया करता है। उसे डांट-डपट कर इस ‘यह-वह’ से मुक्त कर देना ही उसे सुखी एवम् संतुष्ट कर देना है। इस प्रकार कहना न होगा कि भारतीय दार्शनिक द्वारा बताया हुआ उपाय मन का दमन ही उसे सुखी एवम् संतुष्ट कर सकता है। निःसन्देह जिनका मन स्थिर एकाकांक्षी अथवा एक लक्ष्यीय होता है वे अवश्य ही अपेक्षाकृत अधिक सुखी तथा सन्तुष्ट रहा करते हैं। मन की विविधता, बहुलता एवम् चंचलता ही उसके दुःखी एवम् अशान्त होने का मूलभूत कारण है।
मन के दमन के सम्बन्ध में पाश्चात्य मनोवेत्ताओं की शंका है कि—मन का दमन करने से भले ही उसकी कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया न हो पर उसकी भावना मनुष्य के अवचेतन में दबे-दबे जीवित रहती है और अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही उसे कोई अनुकूल परिस्थिति मिलती है वह सक्रिय होकर विविध प्रकार के उपद्रव उत्पन्न कर देती है। मनुष्य के मानसिक उपद्रवों के पीछे अधिकांश में दमन किये गये मन की वह अतृप्ति ही रहती है जो मनुष्य के अन्तर्मन में दबी पड़ी रहती है।
सम्भव है पाश्चात्यों की इस शंका में सत्य का कोई अंश हो। किन्तु इस प्रकार का उपद्रव तभी सम्भव है जब मन का दमन अवैज्ञानिक ढंग से किया जाता है। विषयों में अनुरक्ति रखते हुए मन की इच्छाओं का हनन अवैज्ञानिक है। इसका उचित मार्ग यही है कि विषय सेवन की हानियों पर विवेक द्वारा विचार किया जाये। ऐसा करने से विषयों से घृणा उत्पन्न होने लगेगी जिसका परिपाक वैराग्य में होगा। विषयों के प्रति वैराग्य होते ही मन उनसे स्वभावतः विमुख हो जायेगा। इस वैज्ञानिक विधि से वश में किए हुए मन की कोई ऐसी वासना न रहेगी जो अवचेतन में दबी पड़ी रहे और अवसर पाकर उपद्रव उपस्थित करे।
संसार में विषयों और उनके प्रति वांछाओं की कमी नहीं। उनसे हटाया हुआ मन, सम्भव है चतुर्दिक् वातावरण से प्रभावित होकर कभी फिर विपथी हो उठे—इस शंका से बचने के लिये विषयों से विरक्त मन को भी भगवान् अथवा उनके क्रियात्मक रूप परोपकार एवं परमार्थ में नियुक्त करना चाहिये क्योंकि मन निराधार नहीं रह सकता, उसको टिकने के लिये आधार चाहिये ही। परमात्मात्मक आधार से शुभ एवं निरापद, मन की एकाग्र स्थिति के लिये अन्य आधार नहीं हो सकता। वह परम है, उसी से सब कुछ का उदय है और उसमें सब कुछ का समाधान है और फिर परमात्मक रूप में एकाग्र किए हुए मन में जिस सुख-शांति एवं सन्तुष्टि का प्रस्फुरणा होगा, वह सुख होगा जो शाश्वत, अक्षय एवं स्थायी होता है उससे बढ़कर कोई भी सुख नहीं है। इस शाश्वत सुख को पाकर फिर कुछ पाना शेष न रह जायेगा। आज का विषयी एवं चंचल मन सदा सर्वदा के लिए सन्तुष्ट होकर स्थिर, एकाग्र तथा परिपूर्ण हो जायेगा। मन की यही दशा तो वह सुख शांति है जिसे पाने के लिये मनुष्य रूप जीवन जन्म-जन्मान्तर से भटकता चला आ रहा है किन्तु पा नहीं रहा है।