सुख-शांति की साधना

‘आप भला तो जग भला’

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जीवन अनेकों समस्याओं के साथ उलझा हुआ है। उन उलझनों को सुलझाने में, प्रगति पथ पर उपस्थित रोड़ों को हटाने में बहुधा हमारी शक्ति का एक बहुत बड़ा भाग व्यतीत होता रहता है, फिर भी कुछ ही समस्याओं का हल हो पाता है, अधिकांश तो उलझी ही रह जाती हैं। उस अपूर्णता का कारण यह है कि हम हर समस्या का हल अपने से बाहर ढूंढ़ते हैं जबकि वस्तुतः वह हमारे भीतर ही छिपा रहता है।

जब जी में जो कुछ आता है, जो रुचता है, जो जंचता है, उसके अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त करने की अभिलाषा होती है। पर वैसी परिस्थितियां मिल ही जायें इसका कोई ठिकाना नहीं। उनका मिलना केवल इस बात पर निर्भर नहीं है कि हम उनकी इच्छा करते हैं, वरन् योग्यता, परिश्रम, अवसर, सहयोग, साधन एवं प्रारब्ध आदि अनेक बातों के मिलने से ही किसी वस्तु या परिस्थिति के मिलने का—अभीष्ट मनोरथ से सफल होने का अवसर मिलता है। पर आकांक्षा करते समय इतनी बातों का ध्यान कौन रखता है? जिस प्रकार अमुक व्यक्ति यह मनोरथ प्राप्त कर सका उसी प्रकार हमें भी ऐसा सुयोग क्यों नहीं मिलना चाहिए, बस इतने पर ही अपनी इच्छा की बेल चल पड़ती है। बिना बन्दूक के कारतूस चलाने के समान उनका लक्षवेध अधूरा रह जाता है। इस प्रकार अगणित व्यक्तियों की असंख्यों आकांक्षाएं अधूरी ही रह जाती हैं और वे इससे खिन्न भी रहते हैं।

यदि हम कोई आकांक्षाएं करने के पूर्व अपनी सामर्थ्य और परिस्थितियों का अनुमान लगा लें और इसी के अनुसार चाहना करें तो उनका पूर्ण होना विशेष कठिन नहीं है। एक बार के प्रयत्न में न सही, सोची हुई अवधि में न सही, पूर्ण अंश में न सही, आगे पीछे न्यूनाधिक सफलता इतनी मात्रा में तो मिल ही जाती है कि काम चलाऊ सन्तोष प्राप्त किया जा सके। पर यदि आकांक्षा के साथ-साथ अपनी क्षमता और स्थिति का ठीक अन्दाजा न करे बहुत बढ़ा-बढ़ा लक्ष रखा गया है तो उसकी सिद्धि कठिन ही है। ऐसी दशा में असफलता जन्य खिन्नता भी स्वाभाविक ही है। पर यदि अपने स्वभाव में आगा पीछा सोचना, परिस्थिति के अनुसार मन चलाने की दूरदर्शिता हो तो उस खिन्नता से बचा जा सकता है और साधारण रीति से जो उपलब्ध हो सकता है उतनी ही आकांक्षा करके शान्तिपूर्वक जीवनयापन किया जा सकता है।

अपने स्वभाव की त्रुटियों का निरीक्षण करके उनमें आवश्यक सुधार करने के लिए यदि हम तैयार हो जायं तो जीवन की तीन चौथाई से अधिक समस्याओं का हल तुरन्त ही हो जाता है। सफलता के बड़े-बड़े स्वप्न देखने की अपेक्षा हम सोच समझ कर कोई सुनिश्चित मार्ग अपनावें और उस पर पूर्ण दृढ़ता एवं मनोयोग के साथ कर्तव्य समझ कर चलते रहें तो मस्तिष्क शान्त रहेगा, उसकी पूरी शक्तियां लक्ष को पूरा करने में लगेंगी और मंजिल तेजी से पार होती चली जायेगी। समय-समय पर थोड़ी-थोड़ी जो सफलता मिलती चली जायगी, उसे देखकर हर्ष और सन्तोष भी मिलता जायगा। इस प्रकार लक्ष की ओर अपने कदम एक व्यवस्थित गति के अनुसार बढ़ते चले जायेंगे।

इसके विपरीत यदि हमारा मन बहुत कल्पनाशील है, बड़े-बड़े मंसूबे गांठता और बड़ी-बड़ी सफलताओं के सुनहरे महल बनाता रहता है, जल्दी से जल्दी बड़ी से बड़ी सफलता के लिए आतुर रहता है तो मंजिल काफी कठिन हो जायगी। जो मनोयोग कार्य की गतिविधि को सुसंचालित रखने में लगाना चाहिए था वह शेखचिल्ली के सपने देखने में उलझा रहता है। उन सपनों को इतनी जल्दी साकार देखने की उतावली होती है कि जितना श्रम और समय उसके लिए अपेक्षित है वह उसे भार रूप प्रतीत होता है। ज्यों ज्यों दिन बीतते जाते हैं त्यों-त्यों बेचैनी बढ़ती जाती है और स्पष्ट है कि बेचैन आदमी न तो किसी बात को ठीक तरह सोच सकता है और न ठीक तरह कुछ कर ही सकता है। उसकी गतिविधि अधूरी, अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हो जाती है। ऐसी दशा में सफलता की मंजिल अधिक कठिन एवं अधिक संदिग्ध होती जाती है। उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गंवा ही देता है।

जिसके मस्तिष्क में हर घड़ी सफलता के रंगीन सपने संजोये रहते हैं उसे यदि असफलता का सामना करना पड़ा तो भारी आघात लगता है, भारी निराशा आती है, दिल टूट जाता है और आगे के लिये कोई बड़ा कदम उठाने का साहस जाता रहता है। काई बार तो वह असफलता का आघात इतना बड़ा होता है कि व्यक्ति आत्महत्या तक कर बैठता है। परीक्षा में असफल हुए कुछ छात्र हर साल आत्महत्या कर बैठते हैं। यद्यपि बात बहुत मामूली सी है। सौ में से 30-35 छात्रों के उत्तीर्ण होने का परिणाम जहां रहता हो वहां 65-70 फीसदी को फेल होना ही है। जब इतने अनुत्तीर्ण छात्र किसी प्रकार सन्तोष कर अगले वर्ष के लिए फिर तैयारी में लग जाते हैं तो उन आत्महत्या करने वालों के लिये ही कोई ऐसा विशेष कारण नहीं है कि वे इतने खिन्न होकर ऐसा अनर्थ कर डालें। पर भावुकता तो आखिर भावुकता ही है। जिनने सफलता के इतने रंगीन सपने देखे और असफलता को इतना भयंकर समझा, उनकी समझ के लिये आत्महत्या भी कोई बड़ी बात नहीं है।

यदि मनुष्य सफलता और असफलता को दो समानान्तर रेखाएं मानकर चले और यह भली भांति समझ ले कि किसी भी क्षेत्र में सफलता इतनी सरल नहीं है कि उसे सुनिश्चित ही मान लिया जाय और यह समझ लिया जाय कि इतना लाभ इतने समय में अवश्य ही हो जायगा। जिन लोगों ने सफलताएं प्राप्त की हैं उनने सपने कम देखे हैं और प्रयत्न अधिक किये हैं। असफलताओं और बाधाओं को अप्रत्याशित नहीं माना है वरन् यही समझा है कि अनेक बार असफलता को परास्त करके ही जब कोई अपनी दृढ़ता का परिचय दे लेता है तब सफलता की विजय माल उसके गले में पड़ती है। वे पहले ही से यह सोचकर चलते हैं कि हमें बार-बार असफलता का मुकाबला करते हुए भी आगे बढ़ते चलना है और धैर्यपूर्वक सफलता प्राप्त होने के दिन तक अविचल भाव से प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करने में लगा रहना है।

बीज बोने से लेकर अंकुर पैदा होने, पौधे के बड़े होने, बढ़कर पूरा वृक्ष होने और अन्त में फलने-फूलने में समय लगता है, प्रयत्न भी करना है पर जो बच्चे अभी बीज लेकर आज ही उसमें से अंकुर होते ही उसे पेड़ बनने और परसों ही फल-फूल से लदा देखने की आशा करते हैं, उनका उत्साह देर तक नहीं ठहरता। पहले ही दिन वे बीच में दस बार पानी, दस बार खाद लगाते हैं, पर जब अंकुर और वृक्ष सामने ही नहीं आता तो दूसरे ही दिन निराश होकर उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं और अपना मन छोटा कर लेते हैं। उन बालकों की सी ही मनोवृत्ति बहुत से व्यक्तियों की होती है। वे अधीरता पूर्वक बड़े-बड़े सत्परिणामों की आशाएं बांधते हैं और उसके लिए जितना श्रम और समय चाहिए उतना लगाने को तैयार नहीं होते। सब कुछ उन्हें तुर्त-फुर्त ही चाहिये। ऐसी बाल बुद्धि रखकर यदि किसी बड़ी सफलता का आनन्द प्राप्त करने की आशा की जाय तो वह दुराशा मात्र ही सिद्ध होगी। इसमें दोष किसी का नहीं अपनी उतावली का ही है। यदि हम अपनी बाल चपलता को हटाकर पुरुषार्थी लोगों द्वारा अपनाये जाने वाले धैर्य और साहस को काम में लावें तो निराश होने का कोई कारण शेष न रह जायेगा। सफलता मिलनी ही चाहिए और ऐसे लोगों को मिलती भी है।

गीता के कर्मयोग का तात्पर्य यही है कि हम अपनी प्रसन्नता को कर्तव्य परायणता एवं प्रयत्नशीलता पर अवलम्बित रखें। जो कुछ करें उच्च आदर्शों से प्रेरित होकर करें और इस बात में संतोष मानें कि एक ईमानदार एवं पुरुषार्थी व्यक्ति को जो कुछ करना चाहिये था वह हमने पूरे मनोयोग के साथ किया। अभीष्ट वस्तु न भी मिले, किया हुआ प्रयत्न सफल न भी हो तो भी इसमें दुःख मानने, लज्जित होने या मन छोटा करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि सफलता मनुष्य के हाथ में नहीं है। अनेकों कर्तव्यपरायण व्यक्ति परिस्थितियों की विपरीतता के कारण असफल होते हैं, पर इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता। यदि अपने मन की बनावट भी ऐसी ही हो जाय कि सफलता और असफलता की चिन्ता किये बिना अपने कर्तव्य पालन में ही जी सन्तुष्ट रहने लगे तो समझना चाहिए कि अपना दृष्टिकोण सही हो गया, अपनी प्रसन्नता अपनी मुट्ठी में आ गयी। कर्तव्य पालन पूर्णतया अपने हाथ में है इसे कोई नहीं रोक सकता। यदि प्रसन्नता को कर्तव्य परायणता पर आधारित कर लिया गया है तो अपनी प्रसन्नता भी अपनी मुट्ठी में है और वह डायनेमो से उत्पन्न होती रहने वाली बिजली की तरह कर्तव्य पालन के साथ-साथ स्वयंमेव उत्पन्न होकर चित्त को आनन्द, उत्साह और सन्तोष से भरे रह सकती है।

अपनी प्रसन्नता को जब अपनी मुट्ठी में रखा जा सकता है और हर घड़ी आनन्दित रहने का नुस्खा मालूम है तो क्यों न उसी का प्रयोग किया जाय? फिर क्यों इस बात पर निर्भर रहा जाय कि जब कभी सफलता मिलेगी, अभीष्ट वस्तु प्राप्त होगी तब कहीं प्रसन्न होंगे? इस प्रतीक्षा में मुद्दतें गुजर सकती हैं और यह भी हो सकता है कि सफलता न मिलने पर वह प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा जीवन भर हाथ रहे। इसलिये गीताकार ने यह सहज नुस्खा हमें बताया है कि फल की प्रतीक्षा मत करो, उस पर बहुत ध्यान भी मत दो, न तो सफलता के लिए आतुरता दिखाओ और न सफलता मिलने पर परेशान होओ। चित्त को शान्त और स्वस्थ रखकर अपने कर्तव्य को एक पुरुषार्थी व्यक्ति की तरह ठीक तरह पालन करो। ऐसा करने से तुम्हें लोक में भी शान्ति मिलेगी और परलोक भी सुधरेगा।

विचारणीय बात यही है कि जब हम अपनी जीवन समस्याओं में से अधिकांश को, अपना भीतरी सुधार करके, अपनी विचार शैली में थोड़ा परिवर्तन करके हल कर सकते हैं तो फिर उलझन भरा जीवन क्यों व्यतीत करें? मनुष्य बहुत चतुर है, विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण चातुर्य का परिचय देता है, उसकी बुद्धिमत्ता की जितनी सराहना की जाय उतना ही कम है। पर इतना होते हुए भी जब वह अपने दृष्टिकोण को सुधारने की आवश्यकता को नहीं समझ पाता और उस पर समुचित ध्यान नहीं दे पाता तो उसकी बुद्धिमत्ता पर सन्देह होने लगता है। वह प्रयत्न पूर्वक बड़े-बड़े महान् कार्य पूरे करता है तब यह बात उसके लिए क्यों कठिन होनी चाहिये कि अपनी मनोगत, भावनागत त्रुटियों पर विचार करे और उन्हें सुधारने के लिए तैयार हो जाय।

आत्मचिन्तन, आत्मशोधन एवं आत्मनिर्माण का कार्य उतना ही सरल है जितना शरीर को सर्वांगासन, मयूरासन, शीर्षासन आदि आसनों के लिए अभ्यस्त कर लेना। आरम्भ में इस झंझट में पड़ने से मन आनाकानी करता है, पुराने अभ्यास को छोड़कर नया अभ्यास डालना अखरता है, कुछ कठिनाई एवं परेशानी भी होती है, यदि अभ्यासी इन बातों से डर कर अभ्यास न करें या छोड़ दें तो आसनों के द्वारा होने वाले सत्परिणामों से लाभान्वित होना संभव न होगा। इसी प्रकार यदि आत्म-निरीक्षण करने में, अपने दोष ढूंढ़ने में उत्साह न हो, जो कुछ हम करते या सोचते हैं सो सब ठीक है, ऐसा दुराग्रह हो तो फिर न तो अपनी गलतियां सूझ पड़ेगी और न उन्हें छोड़ने की उत्साह होगा। वरन् साधारण व्यक्तियों की तरह अपनी बुरी आदतों का भी समर्थन करने के लिये दिमाग कुछ तर्क और कारण ढूंढ़ता रहेगा जिससे दोषी होते हुए भी अपनी निर्दोषिता प्रमाणित की जा सके।

अधिकांश मनुष्यों की मानसिक बनावट ऐसी होती है कि वे अपने आपको हर बात में निर्दोष मानते हैं। अपनी बुराइयां उसी प्रकार सूझ नहीं पड़ती जिस प्रकार अपनी आंख में लगा हुआ काजल दिखाई नहीं देता। कोई दूसरा व्यक्ति यदि अपनी गलती सुझावे भी तो मन इस बात के लिए तैयार नहीं होता कि उसे स्वीकार करे। हर आदमी दूसरे के दोष ढूंढ़ने में बड़ा चतुर और सूक्ष्मदर्शी होता है, उसकी आलोचना शक्ति देखते ही बनती है, पर जब अपना नम्बर आता है तो वह सारी चतुरता, सारी आलोचना शक्ति न जाने कहां गायब हो जाती है। जैसे खोटा व्यापारी खरीदने और बेचने के बांट तोल में घटे बढ़े बना कर अलग-अलग रखता है और बेचने के समय घटे बांटो को और खरीदने के समय बढ़े बांटो को काम में लाता है, उसी प्रकार दूसरों की बुराइयां ढूंढ़ने में हमारी दृष्टि अलग तरीके से और अपनी बात आने पर और तरीके से काम करती है। यदि यह दोष हटा दिया जाय और दूसरों की भांति अपनी बुराई भी देखने लग जायें, दूसरों को सुधारने की भी चिन्ता करने की भांति यदि अपने सुधारने की भी चिन्ता करने लगें तो इतना बड़ा काम हो सकता है जितना सारी दुनिया को सुधार लेने पर ही हो सकना संभव है।

महात्मा इमर्सन कहा करते थे कि ‘‘मुझे नरक में भेज दो, मैं वहां भी अपने लिये स्वर्ग बना लूंगा।’’ उनका यह दावा इसी आधार पर था कि अपनी निज की अन्तःभूमि परिष्कृत कर लेने पर व्यक्ति में ऐसी सूझ-बूझ की, गुण कर्म स्वभाव की उत्पत्ति हो जाती है जिससे बुरे व्यक्तियों को भी अपनी सज्जनता से प्रभावित करने एवं उनकी बुराइयों का अपने ऊपर प्रभाव न पड़ने देने की विशेष क्षमता सिद्ध हो सके। यदि ऐसी विशेषता कोई व्यक्ति अपने में पैदा करले तो यही माना जायगा कि उसने सारे संसार को सुधार लिया। यों सबका सुधार हो सकना असम्भव है पर जब अपने दृष्टिकोण एवं स्वभाव में आवश्यक परिवर्तन करके ऐसी स्थिति प्राप्त करली गई कि बुरे आदमी भी अपना कुछ न बिगाड़ सकें तो यही मानना पड़ेगा कि अपने लिये तो संसार सुधर ही गया। भले ही वह तत्वतः ज्यों का त्यों बना रहे।

जीवन लक्ष की पूर्ति के लिये भी सबसे प्रथम अनिवार्य रूप से आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार ही करना पड़ता है। भगवान का नाम स्मरण करने, जप-तप, पूजा-पाठ के अनुष्ठान करने का उद्देश्य भी यही है कि मनुष्य भगवान को सर्वव्यापी एवं न्यायकारी होने की मान्यता को अधिक गहराई तक हृदय में जमा ले ताकि दुष्कर्मों से डरे और सत्कर्मों में रुचि ले। ईश्वर उसी से प्रसन्न होता है जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, उसकी पूजा एवं प्रार्थना को वह सुनता और स्वीकार करता है। आत्मा पर चढ़े हुए मल आवरणों को हटाने के प्रयत्न का नाम ही तप साधना है उसे निर्मल निर्विकार बनाने में जितनी सफलता मिलती जाती है उतना ही देवत्व अन्दर बढ़ता जाता है और परमात्मा की समीपता निकट आती जाती है। विकारों से पूर्ण निर्मल हो जाने पर ही आत्मा जीवन-मुक्त होकर परमात्मा स्वरूप बन जाता है। आत्मोन्नति की यही एक मात्र प्रक्रिया है जिसे विभिन्न धर्म शास्त्रों ने, विभिन्न मार्ग दर्शकों ने देश काल के अनुसार विभिन्न रूपों में उपस्थित किया है।

अपने आपको सुधारने का प्रयत्न करना, अपने दृष्टिकोण में गहराई तक समाई हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। हमें यह करना ही चाहिए। वरन् सबसे पहले सबसे अधिक इसी पर ध्यान देना चाहिए। अपना सुधार करके न केवल हम अपनी सुख-शान्ति को चिरस्थायी बनाते हैं वरन् एक प्रकाश स्तम्भ बन कर दूसरों के लिये भी अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित करते हैं। इस प्रयत्न को किसी भी बड़े पुण्य परमार्थ से, किसी भी जप-तप से कम महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
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