सुख-शांति की साधना

भावना पर हमारे जीवन का विकास निर्भर है

<<   |   <   | |   >   |   >>
मनोविज्ञान का एक अटल नियम है कि जो व्यक्ति अपने मन में जिस प्रकार की भावना संजोता रहता है वह अन्ततः वैसा ही बन जाता है। एक पहलवान और एक श्रमिक अपने-अपने तरह से शारीरिक श्रम ही किया करते हैं। पसीना बहाते और शरीर में थकान लाया करते हैं। किन्तु उनमें से एक हृष्ट-पुष्ट हो जाता है और दूसरा क्षीण। यह अन्तर मात्र भावना का है। पहलवान व्यायाम का श्रम करते समय यह भावना रखता है कि वह जो शारीरिक श्रम कर रहा है, पसीना बहा रहा है, वह स्वास्थ्य लाभ के लिए कर रहा है और उसे दिन-दिन स्वास्थ्य लाभ हो रहा है। अपनी इसी भावना के अनुसार वह हृष्ट-पुष्ट तथा बलिष्ठ हो जाता है। श्रमिक की भावना श्रम करते समय ऐसी नहीं होती। वह सोचता है कि वह पेट के लिए औरों की मजदूरी कर रहा है। पैसे के लिए सेवा कर रहा है। जीविका की मजबूरी उससे परिश्रम करा रही है। अपनी इसी भावना के कारण वह पहलवान की तरह हृष्ट-पुष्ट नहीं हो पाता। विवशता एवं मजबूरी की भावना से उसका शरीर थक जाता है। उसकी शक्तियों का ह्रास होता जाता है। भावना के प्रभाव का यह सत्य कभी भी किसी क्षेत्र में देख जा सकता है। जो विद्यार्थी विद्या प्राप्त करने, परीक्षा में सफल होने की भावना से अध्ययन किया करता है वह शीघ्र ही योग्यता प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत जो मजबूरी के साथ, अभिभावकों अथवा अध्यापकों के त्रास से पढ़ा करता है वह कोई लाभ नहीं उठा पाता, उसका अधिकांश श्रम बेकार चला जाता है।

स्वास्थ्य परीक्षा के अवसर पर दो व्यक्तियों को एक साथ यक्ष्मा का रोगी घोषित किया गया। यह घोषणा दोनों के लिए समान चिन्ता का विषय थी। डॉक्टर का घोषित कर देना कि उन्हें यक्ष्मा हो गई है और शीघ्र ही उनके जीवन के अन्त हो जाने की सम्भावना है, एक भयंकर आपत्ति ही है। किन्तु उन दोनों रोगी व्यक्तियों में से एक की भावना बड़ी दृढ़ थी। उसने डॉक्टर की घोषणा को सत्य स्वीकार करते हुए मृत्यु की सम्भावना को स्वीकार नहीं किया। उसने अपने इस अमृत विश्वास को नष्ट नहीं होने दिया कि मृत्यु की अपेक्षा जीवन में अधिक शक्ति है। जीवन की अपेक्षा यदि मृत्यु प्रबल होती तो संसार को श्मशान होना चाहिए था। यह जीवन की प्रबलता का ही प्रमाण है कि संसार में चहल-पहल दिखाई देती है। यदि मनुष्य के हृदय से मृत्यु का भाव सर्वथा तिरोहित हो जाये—जीवन के प्रति अविश्वास का अत्यन्ताभाव हो जाये—तो निश्चय ही वह अमर हो सकता है। जिसके हृदय में जीवन के प्रति पूर्ण, दृढ़ विश्वास रहता है, वह आज भी दीर्घ जीवी होते हैं।।

जीवन के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले रोगी ने अपनी भावनाओं को दृढ़ किया। अपना आत्मविश्वास जगाया और प्रतिदिन सायंकाल एवं प्रातःकाल शान्ति चित्त होकर अपने उत्तरोत्तर स्वस्थ होने का चिन्तन करना प्रारम्भ किया। औषधि के साथ उसने अमृत भावना के घूंट भी पीना प्रारम्भ किया। इस प्रकार प्रतिक्षण अपने स्वस्थ होने की भावना करते-करते एक दिन ऐसा आया कि वह तपेदिक का रोगी पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसके रोम-रोम में आरोग्य की पुलक उठने लगी और शीघ्र ही वह पहले से भी अधिक स्वस्थ होकर उत्साहपूर्वक अपना काम करने लगा।।

दूसरे रोगी का मन निर्बल था। डॉक्टर की घोषणा सुनकर उसका हृदय बैठ गया। जीवन के प्रति उसका विश्वास जर्जर हो गया। प्रतिक्षण उसे मृत्यु की चिन्ता रहने लगी। हर रोज वह अपने स्वास्थ्य में पहले से क्षीणता अनुभव करने लगा। इस प्रकार की भावना करते रहने का परिणाम यह हुआ कि उसे न तो किसी औषधि ने लाभ किया और न कोई पथ्य ही काम आया। शीघ्र उसने चारपाई पकड़ ली और कुछ ही समय में इस सारपूर्ण संसार को अपने जैसों के लिए असार सिद्ध करके चलता बना। एक ही घातक रोग से पीड़ित दो व्यक्तियों की यह विपरीत दशा, उनकी अपनी भावना का ही परिणाम था।।

जीवन के प्रति विश्वास रखने वाले आत्मधनी व्यक्ति अपने सिर पर मृत्यु की काली छाया कभी भी मंडराने नहीं देते। वे हर समय जीवन्त भावनाओं से ओतप्रोत संसार समर में डटा करते हैं। बड़ी से बड़ी विपरीत परिस्थिति आ जाने पर अपने मनोबल को गिरने नहीं देते। हजार बार गिरकर उठने और आगे बढ़ने का हौसला रखा करते हैं। उनके सोचने का ढंग सृजनात्मक होता है। जीवन की मनोरम पगडंडी पर चलते हुए वे कभी इस प्रकार सोचने की धृष्टता नहीं करते कि—‘‘संसार नश्वर है, जीवन क्षणभंगुर है। इस भवसागर में मनुष्य का अस्तित्व एक जल बुलबुले से अधिक कुछ भी नहीं। जब तक हवा का एक एक झोंका नहीं लगता बुल्ला पानी पर तैरता रहता है पर ज्यों ही हवा की चपेट लगी कि इसका अस्तित्व विलीन हो जाता है।’’ वे जीवन के प्रति विश्वास रखने वाले आत्मवीरों की तरह यही सोचते रहते हैं—‘‘कि जीवन एक शाश्वत सत्य है। मृत्यु इसके बीच में एक आरोपित अवकाश है, मध्यांतर है। मृत्यु की काली छाया जीवन-ज्योति को कदापि नष्ट कर नहीं सकती।’’।

कोई भी मन-मूर्छित व्यक्ति देखने में कितना ही स्वस्थ अथवा हृष्ट-पुष्ट क्यों न हो अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। मृत्यु के प्रति भयभीत नश्वरता का चिन्तन करने वाले की निर्धारित आयुष्य भी कम हो जाती है जब कि जीवन का विश्वासी व्यक्ति कम होती आयु को आत्मबल से बढ़ा लेता है।।

स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन जहां रोगों को जन्म देता है, वहां स्वास्थ्य के प्रति अविश्वास उनको घातक बना देता है। मनुष्य का अनिष्ट वास्तव में किसी परिस्थिति, विपत्ति अथवा व्याधि से नहीं होता है। वह होता है उसकी उस अशिव भावना से जिसमें अनिष्ट का चिन्तन निवास किया करता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि एलेक्जेण्डर पोप जो कि जन्मजात रोगी थे और जिनके बचने की कोई आशा नहीं की जाती थी, उन्होंने अपने स्वास्थ्य लाभ एवं दीर्घ आयु का रहस्य बतलाते हुए लिखा है— ‘‘यह बात सही है कि मैं शैशवकाल से ही रोगी रहता आया था। धीरे-धीरे रोग इतना बढ़ गया कि मेरे बचने की आशा जाती रही। बहुत कुछ दवादारू करने पर भी आरोग्य के लक्षण दृष्टिगोचर न होते थे और धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आया कि मेरे चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। आरोग्य लाभ के विषय में हर ओर से निराश्रय होकर मैंने अपने भरोसे अपना नवीन कायाकल्प कर डालने का संकल्प कर लिया।’’।

महाकवि पोप आगे लिखते हैं कि उन्होंने—‘‘आरोग्य नियमों से सम्मत अपनी एक छोटी-सी दिनचर्या बनाई जिसमें आहार-विहार, रहन-सहन तथा आचार-विचार का भी समावेश था। अपनी दिनचर्या के अनुसार उन्होंने अनिवार्य एवं अतीव्र दवाओं के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की दवा लेना बन्द कर दिया। वे नित्यप्रति प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठते और खुली हवा में सामर्थ्यानुसार घूमने जाने लगे। नियमित रूप से रात में समय पर सोते। रात्रि में सोने से पूर्व तथा प्रभात में जगने के बाद वे ईश्वर का चिन्तन करते और अपनी प्रार्थना में कहते—‘‘प्रभु, मुझे स्वास्थ्य एवं आयु प्रदानकर, जिससे कि मैं साहित्य द्वारा मानव समाज की सेवा कर सकूं। मुझे स्वास्थ्य एवं आयु की कामना इसलिए नहीं है कि मैं इस दुनिया के भोग भोगना चाहता हूं। शुद्ध सात्विक आहार और कल्याणकारी विचारधारा ने उनके रोग को दूर करना प्रारम्भ कर दिया। पोप का कहना है कि उन्होंने अच्छी प्रकार अनुभव कर लिया था कि उनके स्वास्थ्य को रोगों की अपेक्षा दुर्बल स्वास्थ्य के निरन्तर चिन्तन ने अधिक क्षीण बना दिया था। उनके अनिष्ट विचार ही उनकी हर विपत्ति का मुख्य कारण होते थे। चिन्ता, निराशा, अविश्वास अथवा मृत्यु की कल्पना उन्हें दिन-दिन गिराती चली गई। किन्तु जिस दिन से उन्होंने आत्म-भावना का सहारा लेकर अपने को निरोग तथा आयुष्मान् मानना प्रारम्भ किया, उनके स्वास्थ्य में चमत्कारी परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। स्वास्थ्य के नियमों का पालन युक्ताहार-विहार तथा पुष्टकर भावना ने उन्हें शीघ्र ही स्वस्थ बना दिया। उनके आशापूर्ण विचारों तथा प्रसन्न चिन्तन ने शीघ्र ही वरदान सिद्ध होकर उन्हें स्वास्थ्य तथा दीर्घ आयु प्रदान की जिससे वे एक लम्बे समय तक काव्य द्वारा मानवता की सेवा करते रहे।।

दुर्बल भावना एवं निर्बल विश्वास रखने वाले व्यक्तियों को इस उदाहरण से शिक्षा लेनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हमारे अनिष्टकर विचार ही हमको बीमार, विवश, संतप्त एवं अल्पायु बनाया करते हैं। हमारे अनिष्ट में परिस्थितियों अथवा कुसंयोगों का हाथ बहुत कम रहा करता है। किसी भी रोग अथवा विपत्ति के आ पड़ने पर यदि मनुष्य अपनी आशा, उत्साह एवं आत्म-विश्वास को त्याग कर चिन्तित, असंतुलित, निराश, भयभीत अथवा शंकाकुल न हो तो कोई कारण नहीं कि वह अपने शुभ संकल्पों के बल पर बड़े से बड़े संकट पर विजय प्राप्त न कर सके।।

मनुष्य की भावना ही मृत्यु है और वही अमृत। भावना की तेजस्विता मनुष्य में ओज, तेज तथा आयुष्य की वृद्धि करती है जबकि उनकी मलीनता जीवित रहने पर भी निर्जीव जैसा बना देती है।।

शारीरिक दृष्टि से निर्बल हो जाने पर भी मनुष्य को मानसिक रूप से सबल बना रहना चाहिए। अपने मनोबल को बनाये रखने से शीघ्र ही ऐसा समझ में आ जायेगा और मनुष्य शारीरिक दृष्टि से भी सबल बन जायेगा। हमारे विचारों का प्रवाह जिस ओर होगा निश्चय ही हम उसी ओर बढ़ेंगे। उद्वेग, शोक, दुःख, चिन्ता, निराशा अथवा जीवन के प्रति अविश्वास की भावना रखने वाले संसार में कदापि सफल अथवा सुखी नहीं रह सकते। आत्मविश्वास के साथ शक्ति भर प्रयास करने, आशापूर्ण दृष्टिकोण से देखने और साहस के साथ संघर्ष करने वाले कर्मवीर सारी कठिनाइयों को जीतकर जीवन के रंग-मंच पर प्रतिष्ठित होते हैं। जरा-सी कठिनाई आ जाने पर रोने लगने वाले, घबराकर हाथ पैर छोड़ देने वाले अथवा अपनी शक्तियों में अविश्वास करने वाले संसार के हर सुख से वंचित रहकर शोक संताप से भरा जीवन काटने के ही अधिकारी बन सकते हैं। अपने प्रति उच्च भावना रखिये, छोटे से छोटे काम को भी महान भावना से करिये बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी निराश न होइये। आत्म-विश्वास एवं आशा का प्रकाश लेकर आगे बढ़िये, जीवन के प्रति अखण्ड निष्ठा रखिये और देखिये कि आप एक स्वस्थ, सुन्दर, सफल एवं दीर्घजीवन के अधिकारी बनते हैं या नहीं?
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118