सुख-शांति की साधना

वार्तालाप और व्यवहार में यह भी ध्यान रखिए

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समाज का सहयोग प्राप्त करना, लोकप्रिय बनना मानव जीवन में एक आवश्यक बात है। वर्तमान युग में जबकि विस्तृत मानव-समाज परस्पर निकट सम्पर्क में आता जा रहा है, राष्ट्रों, द्वीपों, महाद्वीपों की दूरी घटकर उनका सम्बन्ध पड़ौसियों की तरह होता जा रहा है, विज्ञान और बौद्धिक प्रगति ने मनुष्य का कार्यक्षेत्र व्यापक बना दिया है, ऐसी स्थिति में लोकप्रियता की बात भी व्यापक और महत्वपूर्ण बन गई।

जो व्यक्ति जितना लोकप्रिय होगा, जिसको समाज का सहयोग जितने बड़े रूप में मिलेगा वह उतना ही महान बन सकेगा। समाज का सहयोग, लोकप्रियता, मनुष्य के अपने ही प्रयत्न, व्यवहार, दूसरों से मधुर सम्बन्ध, सहयोग, सहिष्णुता की भावना तथा अन्य सद्गुणों पर निर्भर है। इसलिए अपने सोचने में, काम करने में, दैनिक व्यवहार में, बहुत सुधार करना पड़ता है।

अपने पड़ौसियों, मिलने-जुलने वालों तथा सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से निकट सम्बन्ध बढ़ाये जायं। उनके सुख, दुःख, हानि, लाभ, चिन्ता, समस्याओं आदि में अपनी अभिरुचि प्रकट करते हुए उनके लिए सहानुभूति, सहयोग के प्रयास करना, उन्हें उचित सलाह देकर सहृदयतापूर्वक उनके दुःख दर्द को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे दूसरों को अपना बनाया जा सकता है। यदि किसी के दुःख दर्द दूर करने में इस तरह मदद की जाय तो उस व्यक्ति की सहानुभूति, आत्मीयता, सहयोग स्वतः ही मिल जाते हैं। जब इस तरह के व्यक्तियों का क्षेत्र व्यापक हो जाता है तो मनुष्य उतना ही लोकप्रिय बन जाता है।

देखा जाता है कि दफ्तरों, कारखानों में काम करने वाले व्यक्तियों का व्यवहारिक सम्बन्ध केवल दफ्तर तक ही होता है। एक अध्यापक स्कूल की सीमा तक ही बच्चों से सम्बन्ध रखता है बाद में नहीं। ऐसी हालत में दूसरों से भी किसी तरह के सहयोग की आशा नहीं की जा सकती। एक दूसरे के प्रति हमदर्दी, दिलचस्पी, हार्दिक सम्बन्ध रखने पर ही आत्मीयता की नींव लगती है। महापुरुषों की जीवनियों से मालूम होता है कि वे पर-दुःख-कातर हो, दूसरों के दुःख द्वन्द्वों में सहायता करते थे। गिरे हुए को उठाने भूले भटकों को मार्ग दर्शन देने, उलझनों में दूसरों का साथ देने वाले ही लोकप्रिय बनते हैं, दूसरों को अपना बनाते हैं। महापुरुषों की यह विशेषता रही है कि वे एक बार भी जिससे मिले वह उन्हें कभी नहीं भूला। इसका कारण है उनका दूसरों के प्रति सहज प्रेम, गहरी सहानुभूति, निश्छल आत्मीयता। जिनके हृदय में अपने पराये का कोई भेद भाव नहीं वे लोकप्रियता प्राप्त करते हैं। स्वार्थी, औपचारिक व्यवहार करने वाला, शुष्क हृदय व्यक्ति दूसरों को अपना नहीं बना सकता।

जब किसी में कोई सद्गुण देखें, उसे कोई सत्कर्म करता पावें तो उसकी उचित प्रशंसा करने में भी न चूका जाय। इसके लिए अपना दृष्टिकोण सदैव शुभदर्शी और उदार बनाया जाय। यदि इस तरह का दृष्टिकोण बन जाय तो किसी भी व्यक्ति में कुछ न कुछ बातें ऐसी अवश्य मिल ही जायेंगी जिसके कारण उसकी प्रशंसा की जा सके। सर्वथा बुरे व्यक्ति में भी कुछ न कुछ अच्छाइयां भी होती हैं। यदि मनुष्य की अच्छाइयों को महत्व देकर उन्हें प्रोत्साहन दिया जाय, प्रशंसा की जाय तो दूसरों के दृष्टिकोण को भी सरस और उदार बनाया जा सकता है। इसमें सुधार की सम्भावनायें निहित हैं। साथ ही बुरा व्यक्ति अपनी प्रशंसा सुनकर अनन्य मित्र, सहयोगी, साथी बन सकता है। दोष दर्शन छिद्रान्वेषण का दृष्टिकोण हेय है। इससे परस्पर दुर्भावना और कटुता ही बढ़ती है। सुधार के बजाय बिगाड़ को ही प्रोत्साहन और उत्तेजना मिलती है। वस्तुतः विवेकपूर्वक देखा जाय तो कुछ न कुछ कमी, बुराई हर जगह होती ही है। आवश्यकता इस बात की है कि अपना दृष्टिकोण अच्छाइयों को देखने का हो और उनके लिए उचित प्रशंसा करने की उदारता हो। इसके लिए तनिक भी कंजूसी न रखी जाये।

अक्सर कई बार दूसरे लोगों से लड़ाई झगड़े हो जाते हैं। किन्तु इससे किसी की निन्दा इधर-उधर नहीं करनी चाहिए। स्वभाववश लड़ाई झगड़े हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। किन्तु ईर्ष्यावश दूसरे की किसी बुराई या गल्ती को लेकर उसके सम्बन्ध में दूषित प्रचार करना ठीक नहीं। लड़ाई शान्त होने पर पुनः मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं। किन्तु इस तरह का घृणापूर्ण प्रचार एक विषैली प्रतिक्रिया पैदा कर देता है। इससे दूसरे पक्ष के लोग तो कट्टर दुश्मन बन ही जाते हैं साथ ही अन्य लोग भी दूषित प्रचार से प्रचारक को सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हैं और कोई जिम्मेदारी या सहयोग देने में हिचकिचाते हैं। कीचड़ के छींटे और उसकी बदबू से सभी दूर ही रहना चाहते हैं। प्रयत्न तो यह करना चाहिए कि कोई लड़ाई झगड़ा ही न हो। इसके बावजूद भी ईर्ष्या, द्वेष को स्थायी बनाने, उसे प्रोत्साहन देने के लिए कोई हथकण्डे न अपनाये जायें। क्योंकि बढ़ा हुआ ईर्ष्या, द्वेष कभी न कभी मौका लगने पर अपने दुष्परिणाम अवश्य पैदा करता है। आवश्यकता इस बात की है कि किसी भी कारण दूसरों से हुए लड़ाई, झगड़े, मनोमालिन्य की खाई को पाट कर पुनः प्रेम सम्बन्ध बनाये जायं। अपनी कोई भूल हो तो उस पर विचार करके शुद्ध हृदय को क्षमा मांग लेना चाहिए। कहीं कुछ विरोध भी करना पड़े तो वह द्वेष बुद्धि से रहित होकर नम्र एवं दृढ़ शब्दों में किया जाय। सदुद्देश्य और सदाशयता से किया गया विरोध भी सत्परिणाम पैदा करता है। वह शत्रु के हृदय में भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त करता है।

सदैव सबसे मीठा बोला जाय। किसी ने कहा भी है— कागा काको धन हरे, कोयल काको देय । मीठी वाणी बोलकर, जग बस में कर लेय ।।

वास्तव में मीठे वचन बोलकर सारे जग को अपने वश में किया जा सकता है। दूसरों को अपना बनाया जा सकता है। लोगों के हृदय में स्थान पाया जा सकता है। नम्र और मीठे शब्दों से दुश्मन भी अपने बन जाते हैं। इसके विपरीत कटु, तीक्ष्ण, जली-कटी बातें, व्यंग-वाणों से मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।

लोकप्रियता के इच्छुकों को आलोचना नहीं करनी चाहिए। यदि किसी का कोई व्यवहार आपको नहीं जंचता हो तो आप उसकी आलोचना न करें। सम्भव है वह गलती पर न हो और आप ही गलती पर हों। आपकी आलोचना वृत्ति से लाभ नहीं हानि ही होगी। सम्भव है कोई व्यक्ति भूलवश या स्वाभाविक असमर्थता अथवा किसी अन्य कारण से कुछ गलती पर हो, जिसे समझने पर वह उसे दूर भी कर लेगा किन्तु की गई आलोचना से कोई लाभ न होगा। उल्टा दोनों में मनोमालिन्य पैदा हो जायगा। आज के बौद्धिक युग में प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से सोचता है और जो ठीक समझता है वही करता है। इसलिये दूसरों को आज्ञा देने की प्रवृत्ति नहीं रखनी चाहिए। यदि किसी से कुछ कराना हो तो उसे आज्ञा न देकर अपनी बात सुझाव के रूप में प्रकट करनी चाहिए और उस पर विचार करके करने की स्वतन्त्रता दूसरों पर ही छोड़ देनी चाहिए। बात-चीत के दौरान में दूसरों को कोई महत्व न देकर अपनी बात धुंआधार रूप में कहना भी ठीक नहीं। इससे कहा-सुनी और उत्तेजना की स्थिति पैदा होती है। बात-चीत के समय बहुत संयम और समझदारी से काम लेना चाहिए। यदि कोई बात सही और तर्क संगत है तो अपनी हठवादिता छोड़कर उसे मान लेना चाहिए, इससे दूसरों की दृष्टि में मूल्य बढ़ जाता है और प्रतिपक्षी का भी सहयोग, आत्मीयता मिल जाती है। अपने मित्र सहयोगी सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के स्वभाव, आदतों का अध्ययन कर उनके अनुकूल बात करने का ध्यान रखना चाहिए। ऐसी कोई भी बात यकायक नहीं कहनी चाहिए जो दूसरों को बुरी लगे।

अपने मित्रों, परिचितों, पड़ौसियों से लेन-देन का व्यवहार नहीं ही करना चाहिए। पैसा सारे विरोध मनोमालिन्य द्वेष की जड़ है पैसे के सम्बन्ध में सतर्कता से काम लेना चाहिए। पैसे के लेन-देन के सम्बन्ध में अपना सीमित क्षेत्र रखा जाय। आवश्यकता पड़ने पर दूसरों की सहायता करना बुरा नहीं है न पैसा लेना ही बुरा है, क्योंकि परस्पर सहयोग सहायता से ही काम चलते हैं। किन्तु आर्थिक कठिनाई की विवशता, स्वभाव की ढील-ढाल या अन्य कारणों से यदि उधार लिया हुआ पैसा समय पर न लौटाया जा सका तो मित्रता खटाई में पड़ जाती है।

लोकप्रियता, लोकमत की अनुकूलता, सहयोग प्राप्त करना मनुष्य के अपने ही व्यवहार, विचार, कार्यपद्धति पर निर्भर करते हैं। मनुष्य अपने बुरे व्यवहार, बुरे आचरण से अपने दुश्मन पैदा कर सकता है और वही अच्छे व्यवहार से अपने प्रशंसक मित्र सहयोगी बना लेता है।
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