सुख-शांति की साधना

आप घाटे में हैं, इसका दुःख मत मानिए

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इसमें किसी प्रकार के शंका, सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि दुःख का कारण परिस्थितियां नहीं मनुष्य की अपनी आन्तरिक स्थिति ही है। यदि आपके मानसिक यन्त्र की गति दुःखानुभूति की दिशा में है तो जरा-जरा सी बात में आप क्षुब्ध एवं व्यग्र हो उठेंगे, और यदि उसकी गति अनुकूल दिशा में है तो बड़ी से बड़ा कारण आने पर भी आपको दुःख का अनुभव नहीं होगा।

मनुष्य के मानसिक यन्त्र की यह दुःख-सुखमय दिशायें क्या हैं? निराशा, विषाद, अधीरता, असन्तोष आदि की दिशायें दुःखमयी हैं और आशा, प्रसन्नता, अविचलता, गम्भीरता तथा सन्तोष सुखपूर्ण दिशायें मानी गई हैं।

व्यापार में घाटा, योग्यता का अवमूल्यन, आवश्यकता की आपूर्ति, इच्छाओं का हनन, उद्योग अथवा प्रयास में असफलता आदि अप्रिय परिस्थितियां मोटे रूप से दुःख का कारण मानी जाती हैं।

मान लीजिए आपको व्यापार में घाटा हो गया है, तो क्या उसके लिए रोने-कलपने और हाय-हाय करने से वह पूरा हो जाएगा। जब आपने व्यापार में पदार्पण किया था तब घाटे की कल्पना आपके लिए असम्भाव्य नहीं थी। नफा-नुकसान को समान रूप से अंगीकार करने का व्रत लेकर ही आपने व्यापार क्षेत्र में प्रवेश किया होगा। घाटा आपके लिए कोई असम्भाव्य घटना नहीं है फिर आप उसके लिए क्यों रोते कलपते हैं? ऐसा करने से तो एक प्रकार से आप अपनी आत्मा के सम्मुख दिए वचन से फिरते हैं।

पचास बार मुनाफा उठाकर जो कमाई आपने की है उससे कौन-सा ऐसा बड़ा काम कर डाला है जो अब घाटे की अवस्था में न करने से आप दुखी हो रहे हैं। माना घाटा आपको गरीब बना देगा—तब भी ऐसी कौन-सी विचित्रता हो जाएगी। व्यापार करने से पहले भी आप गरीब ही थे और उसी गरीबी ने आप को प्रेरणा देकर अमीर बनाया था, तो फिर यदि वह प्रेरक गरीबी एक बार फिर आ गई तो इसमें दुःखी होने की क्या बात है? साथ ही जब आप गरीब थे, अभावग्रस्त थे तब इतना दुःखी न होते थे जितना कि आज घाटा होने पर हो रहे हैं। इसका ठीक-ठीक यही अर्थ है कि जिस सम्पन्नता के लिए आप रोते हैं वह वास्तव में ऐसा रोग है जो आपको अन्दर ही अन्दर कमजोर बना रहा है। मुनाफा उठाते-उठाते आप पैसे के इतने गुलाम बन गए हैं, कि उसकी कमी होते ही मृत पुत्र विधवा की तरह आंसू बहाने लगे।

एक कारण यह भी हो सकता है कि घाटा हो जाने से आपका पैसा चला गया। समाज में आपकी साख कम हो गई प्रतिष्ठा चली जायेगी, इस विचार से आप दुःखी हो रहे हैं। व्यापार के प्रारम्भिक दिनों में जब आपके पास पैसा नहीं था तब आप की साख समाज में कैसे बनी? ईमानदारी ही तो उस समय आपकी सहायक रही थी। यदि आज आप अपनी उस ईमानदारी पर भरोसा नहीं करते तो इसका तो यही अर्थ है कि या तो आप उसे खो चुके हैं या कलंकित कर चुके हैं। आप अपनी गैर ईमानदारी की याद करते हैं और रोते हैं कि आप पर कोई विश्वास नहीं करेगा। क्या धन का उपार्जन गैर ईमानदार और बेईमान बनने के लिये किया जाता है? यदि ऐसा है तो उस धन को धिक्कार है। जहां तक समाज में प्रतिष्ठा का प्रश्न है। अव्वल तो धन द्वारा कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलती और यदि मिलती भी है तो वह झूंठी ही होती है। मनुष्य को वास्तविक प्रतिष्ठा उसके उपयोगी एवं सत्कर्मों से मिलती है। यदि आपने अपने सुकाल में जनोपयोगी कार्य किये होते तो आज निर्धन होने पर आपको अपनी प्रतिष्ठा की ओर से कोई शंका नहीं होती।

इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि प्रतिष्ठा की आकांक्षा लेकर रोने से प्रकट होता है कि आप में अहंकार की मात्रा बहुत बढ़ गई है। यह वास्तव में आप प्रतिष्ठा के लिये नहीं बेचैन हैं बल्कि अपने ‘अहं’ की पुष्टि से उत्पन्न होने वाले असात्विक सुख के लिये लालायित हैं। यदि लाभानुलाभ का यही परिणाम है कि मनुष्य बेईमान, अहंकारी और निर्बल बने तो जीवन में घाटा आना बहुत आवश्यक ही नहीं उपयोगी भी है। व्यापार में बहुत अधिक धन पाने से जब मनुष्य में विविध दोषों का समावेश हो जाता है तब उसका सुधार करने के लिये घाटा ईश्वर का भेजा हुआ दूत ही होता है, ऐसा समझना चाहिए।

इस प्रकार का उज्ज्वल एवं आशाजनक भाव रखने वाले को घाटे का दुःख, अभाव का कष्ट अथवा निर्धनता की ग्लनि कदापि प्रभावित नहीं कर सकती।

अब योग्यता के अवमूल्यन का प्रश्न ले लिया जाये। हजारों, लाखों व्यक्ति इस बात को लेकर दुःखी देखे जाते हैं कि समाज ने उनकी योग्यता का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं किया। उनको वह पद व प्रतिष्ठा नहीं दी गई जिसके वे अधिकारी हैं और जो कुछ उन्हें दिया गया है वह बहुत कम है उससे कहीं अधिक उन्हें मिलना चाहिये।

जिसकी योग्यता असंदिग्ध है, उपयोगी है, उसके लिये कोई ऐसा कारण नहीं कि समाज में उसका कम मूल्य लगाया जाये। फिर भी यदि संयोगवश उसको अपनी योग्यता से कम वाले पद पर कार्य करना पड़ता है और पारिश्रमिक भी कम मिलता है तब भी दुखी होने का कोई कारण नहीं। ऐसी स्थिति में दुख तभी होता है जब अवमूल्यन के साथ-साथ आपका अपना असन्तोष भी सम्मिलित रहता है। वास्तव में वह अवमूल्यनात्मक संयोग दुःख नहीं देता, दुःख देता है मनुष्य का वह असन्तोष, जिसको लेकर वह अपने से ऊंचे पदों पर के व्यक्तियों की ओर दृष्टिपात करता हुआ ईर्ष्या करता है और सोचता है कि मुझसे कम योग्यता वाले व्यक्ति ऊंचे पद पर हैं और मैं निम्न पर पर काम कर रहा हूं।

ऐसी दशा में यदि आप परिस्थिति पर सन्तोष कर अपनी सम्पूर्ण योग्यता लगाकर अपने छोटे काम को भी इस दक्षता के साथ करते हैं कि वह महान बन जाय तो निम्न पद पर होते हुये भी आप का महत्व बढ़ जायेगा। अन्य श्रेष्ठ पदाधिकारी भी आपका आदर तथा लिहाज करने लगेंगे। बात-बात में आपसे परामर्श मांगेंगे, राय लेंगे और निर्देशानुसार कार्य करेंगे। इस प्रकार वे आप को एक प्रकार से अपने से ऊंचा पद ही दे देंगे। योग्यताओं का मूल्य मुद्रा ही में मिले न तो ऐसा अनिवार्य ही है और न वांछनीय ही। योग्यता का मूल्य आदर, सम्मान एवं महत्व के रूप में मिलना भी कम श्रेयस्कर नहीं है।

इतना सब आदर होने पर भी यदि आप फिर भी दुःखी रहते हैं तो वास्तव में दया के पात्र हैं। आप मुद्रा चाहते हैं महत्व नहीं। जो व्यसनी नहीं है, विलासी नहीं है, प्रदर्शन प्रिय नहीं है और अपव्ययी नहीं है उसमें पैसे की प्यास बहुत कम होगी। यदि आप इन सब दोषों की तुष्टि के लिये अधिक पैसा चाहते हैं तो कृपया अपने पर दया कीजिये, प्राप्त में सन्तोष कीजिये, योग्यता से अपना महत्व बढ़ाइये और पतन के गर्त में गिरने से अपने को बचाइये। यदि आप ईमानदार हैं, समाज के प्रति सच्चे हैं, अन्दर से निर्दोष हैं तो योग्यता का अवमूल्यन आपके लिये एक वरदान है जो बिना किसी विशेषता के एक विशेष क्षेत्र में आपका महत्व बढ़ाकर समादृत बना देता है। यह दुःख का नहीं हर्ष का विषय है।

इसी प्रकार यदि आवश्यकता अथवा अभाव की आपूर्ति, किसी प्रयत्न में असफलता अथवा अप्रिय परिस्थितियों को ले लिया जाये तो भी इसमें दुःख का कारण दृष्टिकोण का ही दोष होगा। इच्छाओं की वृद्धि, आवश्यकताओं का अनौचित्य ही दुःख का कारण हुआ करता है। उचित इच्छाओं एवं वांछनीय आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य ही होती रहती है। किसी मनुष्य को इनकी आपूर्ति तभी दिखाई देती है जब वह इनकी पूर्ति की कोई सीमा नहीं बांधता, मर्यादित नहीं करता।

और यदि किसी कारणवश एक बार उचित इच्छाओं अथवा आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं भी होती तो उनके लिये दुःखी होना पुरुषार्थ नहीं कायरता है। इस आपूर्ति के कारण की खोज करें और उसे दूर करने का प्रयत्न करें। दुःखी होने से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि बुद्धि विलुप्त हो जाने से समस्यायें और अधिक बढ़ जाती हैं। बाहुओं में पुरुषार्थ, मस्तिष्क में सन्तुलन और हृदय में सन्तोष रखकर जीवन संघर्ष में भाग लीजिये और आशा का सम्बल लेकर उत्साह के साथ बढ़े चलिये, दुःख आपके समीप नहीं आ सकता।
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