हिन्दू धर्म में आत्मा के रूप में मनुष्य की सर्वांगपूर्ण सुन्दर कल्पना की गई है और यह कहा गया है कि मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता इस महत्व को पहचानना ही है। शास्त्रों के पन्नों-पन्नों पर ऐसे आदेश हैं—‘‘मनुष्य अपनी आत्मा का पतन न होने दो, धन देकर परिवार की रक्षा करो और परिवार को भी देकर आत्मा की रक्षा करो’’, ‘‘अपनी आत्मा का उद्धार आप करो।’’ इन आप्त वचनों में जो शिक्षा भरी हुई है, उसका सम्पूर्ण सार यही है कि मनुष्य पाप न करे। पाप व्यक्ति की पवित्रता और समाज की सुव्यवस्था को बिगाड़ता है। पापी व्यक्ति व्यष्टि और समष्टि दोनों के लिये अभिशाप सिद्ध होता है। इसलिये पूर्व पुरुषों द्वारा दी गई ये चेतावनियां मनुष्य के लिये निःसन्देह कल्याण कारक मानी जानी चाहिये।
तात्विक रूप में इस कल्पना का आधार; कि मनुष्य शरीर नहीं आत्मा है—इस बात का संकेत है कि लोग संसार में रहकर भी इस बात के लिये सावधान रहें कि नितान्त सांसारिकता ही उनके जीवन का लक्ष्य नहीं है और न ही उससे दूर रहकर आत्म-विकास की गति को बन्द कर देना ही चाहिये। इन दोनों स्थितियों में सामंजस्य होना चाहिये। अर्थात् मनुष्य अपनी, अपने कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र और विश्व के प्रति कर्तव्यों का पालन करे, पर उनमें वह आसक्त न हो। आसक्ति का अर्थ स्वार्थ और अहंकार के वश में आकर दोषपूर्ण कार्य करना है। यह दृष्टिकोण समाज के लिये भी उतना ही घातक है। स्वार्थी लोगों की मीठी बातें भी अपना मतलब सिद्धि के लिये होती हैं। परिणाम यह होता है कि वे औरों को भी इसी रूप में देखते हैं और इस तरह मनुष्य, मनुष्य के बीच खाई पैदा होती है। आत्मा को बन्धन में डालने का सूत्रपात यहीं से होता है।
खुदगर्ज लोगों की इच्छायें चाहे कितनी ही घृणित हों, पर वे उसे अपने लिये धर्म की तरह ही देखते हैं और उस कार्य में यदि कुछ व्यवधान उत्पन्न होता है तो वे उसका दोष भी दूसरों पर मढ़ते हैं। दूसरों को मनुष्यता से हीन, अनुदार, असहयोगी बताते हैं, पर भले आदमी कभी अपनी ओर दृष्टि नहीं डालते। यह नहीं देखते कि उनकी स्वयं की इच्छा कितनी अमानवतापूर्ण और दूसरों को कष्ट में डालने वाली है?
आत्म भावना से शून्य व्यक्ति दूसरों के सुख-दुःख को अपने सुख-दुःख की तरह नहीं अनुभव करता। प्राणी-मात्र के साथ सद्व्यवहार की मानवीय सभ्यता से वह दूर रहता है और अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिये निर्दयतापूर्ण व्यवहार करता है। लोग खाद्यान्नों से ऐसे पदार्थ मिला देते हैं, जो लोगों की पहचान में नहीं आते, पर वे स्वास्थ्य पर बड़ा बुरा असर डालने वाले होते हैं। दवाओं में, बाजार में बिकने वाली चीजों में ऐसी मिलावट से कितनी ही घटनायें रोज घटती हैं और अनजाने में न जाने कितने लोगों को भारी क्षति पहुंचती है।
उचित तो यह था कि मनुष्य अपने घर वालों, मुहल्ले, गांव, देश और विश्व के अन्य मानवों के साथ ही नहीं, प्रत्युत पशु-पक्षी तथा अन्य छोटे-बड़े जीवों के साथ भी दया का व्यवहार करता। वे भी आत्म-सत्ता के ही रूप हैं। किन्तु दुःख है कि सब कुछ उल्टा हो रहा है। हम अपने मानवीय कर्तव्यों को भुलाकर आसुरी दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न हो रहे हैं।
ईर्ष्या की प्रवृत्ति भी मनुष्य के लिए वैसी ही घातक और समाज में विग्रह उत्पन्न करने वाली है। परमात्मा संसार के सभी लोगों को नैसर्गिक साधन प्रायः एक जैसे ही देता है। हाथ, पांव, नाक, मुंह प्रायः सभी को एक जैसे ही उपलब्ध होते हैं, पर मनुष्य को अपनी उन्नति से कभी सन्तोष नहीं होता। वह चाहता है कि उसे करना कम पड़े और धन, बल, विद्या तथा बुद्धि में सबसे बड़ा रहे। जो लोग ईश्वर-प्रदत्त साधनों का समुचित प्रयोग करते हैं, श्रम और शक्ति लगाते हैं उन्हें अपेक्षाकृत अधिक उन्नति का अवसर मिलता है, पर दूसरे ऐसे भी लोग होते हैं, जो पराई उन्नति फूटी आंखों नहीं देख सकते। अनेक प्रकार से उन्हें अकारण नीचा दिखाने की कोशिश में रहते हैं। ईर्ष्यालु मनुष्य समाज में विष सिद्ध होते हैं, जो कहीं न कहीं, कोई न कोई उत्पात ही खड़ा रखते हैं। ऐसे कार्यों से चाहे दूसरों को हानि कुछ कम हो, पर उसकी अपनी शक्ति और सामर्थ्य तो बर्बाद हो ही जाती है।
ईर्ष्या और निर्दयता की ही कोटि का एक अन्य सामाजिक अपराध है—लोभ। लोभ को पाप का मूल बताया गया है। कमाना और उसे सत्कार्य में लगाना अच्छी बात है, पर ऐसा सोचना कि संसार में जितनी सम्पत्ति है, वह सब मेरे घर आ जाय, यह न तो व्यावहारिक ही है, और न मानवीय ही। लोभ—लौकिक तथा पारलौकिक दृष्टि से भी मनुष्य की आत्मा को गिराने वाला है।
समाज की शान्ति और सुव्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने वाले पापों में कटु-भाषण भी बड़ा प्रबल है। कटु-भाषण जहां मनुष्य की व्यक्तिगत असहिष्णुता प्रकट करता है, वहां समाज की असभ्यता का भी उससे पता चलता है। समय-कुसमय, उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक का विचार न करके सभी से कठोरता, रूखेपन और अहंकार से बात करने से अप्रसन्नता, खिन्नता और रुष्टता बढ़ती है और लोगों के मधुर सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में पारस्परिक सहयोग सहानुभूति और आत्मीयता जैसे सद्गुणों का विनाश होने लगता है और लोगों की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। कटु-भाषण व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में बाधा पहुंचाने वाला दुर्गुण है।
यह दुर्गुण मनुष्य को कई प्रकार से प्रत्यक्ष हानि पहुंचाते हुये उसकी आत्मा को पतित और निर्बल बनाते हैं। आत्मघात मनुष्य और समाज दोनों के लिए पतनकारी होता है। जिस देश के नागरिक इन छोटे छोटे दुर्गुणों के शिकार होते हैं, उनकी सामूहिक प्रगति अवरुद्ध ही पड़ी रहती है। हमें इस आत्म-प्रवंचना से बचना ही चाहिए और व्यक्तिगत जीवन में सद्गुणों की अभिवृद्धि कर समाज की अभिनव रचना का मार्ग प्रशस्त करना ही चाहिए।