आज अधिकांश लोग बड़े कष्ट में हैं। साधन और सुविधायें जितना बढ़ते दिखाई दे रहे हैं उससे भी कहीं अधिक दुःख की वृद्धि हो रही है। दुःखों को मिटाने के लिये राजनैतिक और सामाजिक स्तर के अनेक प्रयोग भी चल रहे हैं किन्तु इनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। दुःख का मूल है—पाप। पाप का परिणाम है तपन और दुःख, कष्ट, कलह, विषाद। यह सब अनीति के अवश्यम्भावी परिणाम हैं।
वृक्ष की शाखायें, टहनियां या पत्ते तोड़े जायं तो इतने से यह आशा नहीं कर लेनी चाहिये कि वह वृक्ष सूख जायगा। वृक्ष को नष्ट करने के लिए उसे निर्मूल करना पड़ेगा, उसकी जड़ खोद कर बाहर फेंकना होगा। जड़ बनी रही तो वृक्ष पुनः हरा हो जायगा। मनुष्य के सामाजिक जीवन के दुःख मिटाने के लिये भी पापों की जड़ ढूंढ़ना और उसे नष्ट करना—यही एक सच्चा तरीका है। अन्य प्रयोग तो बाह्योपचार मात्र हैं। उनसे किसी ठोस निष्कर्ष की आशा नहीं की जानी चाहिये।
प्रमाद पूर्ण आचरण, विषयों में लोलुपता, चित्त की कलुषता, औरों को सताना या किसी पर मिथ्या आरोप लगाना इनसे पापों का विकास होता है। मनुष्य का स्वभाव इस तरह का बना है कि वह कभी चुपचाप नहीं बैठ सकता। उसे हर घड़ी कुछ न कुछ काम चाहिये। अच्छा नहीं, तो बुरा काम वह करेगा ही। अच्छे बुरे कर्मों का मूल्य और महत्व भी वैसा ही होगा। मुख्य प्रश्न यह है कि काम की दिशा कैसी है, स्फूर्ति कितनी है और वह कितने उत्साह और आत्मीयतापूर्वक किया जा रहा है। यदि उसमें आलस्य, आसक्ति और असावधानी का बर्ताव किया गया तो वही कर्म पाप बन जायगा। इससे मनुष्य की चेष्टायें अधोगामी बनती हैं जिससे स्वयं भी दुःख भोगना पड़ता है औरों को भी असुविधा होती है।
आलस्य से शारीरिक शक्ति तो घटती ही है साथ ही अनेकों मानसिक दूषण और खुराफात की बातें सूझती हैं। अस्वस्थ मन से उत्पन्न कार्य भी अस्वस्थ ही होंगे। दुराव, छिपाव भी करना पड़ेगा। झूठ बोलना पड़ेगा। परिजनों की समुचित व्यवस्था न हो सकेगी। समृद्धि रुक जायगी। इस तरह एक ही अपराध की अनेकों शाखा-प्रशाखायें बढ़ती जायेंगी और उससे व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन विषाक्त ही बनेगा। आलस्य से आत्मा मैली और गन्दी होती है इसलिये अपनी स्वच्छता, पवित्रता, क्रियाशीलता और पूर्ण शक्तिमत्ता का आचरण नहीं कर पाती फलतः वातावरण दुःखमय बना रहता है।
आलस्य अभिशाप है, आसक्ति संकुचित वृत्ति है। समान भाव से आत्मीयता पूर्वक कर्त्तव्य कर्मों का पालन किया जाना मनुष्य का धर्म है इसे ठुकराया नहीं जाना चाहिये। वात्सल्य, स्नेह, प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा यह सब सद्गुण भी जीवन व्यापार के आवश्यक अंग हैं, इनसे मधुरता बढ़ती, सरसता आती और आनन्दमय जीवन का निर्माण होता है किन्तु जब मनुष्य किसी सुख, भोग, व्यक्ति या साधन के प्रति आसक्ति प्रकट करता है तो वह युगीय कर्म भी पाप की श्रेणी में आ जाते हैं।
पाप की एक शाखा है असावधानी। विश्रृंखलित मन से इधर उधर के काम करते रहने पर भी कोई पूरा नहीं होता। स्वच्छता, सुचड़ता क्रम बहता, अनुशासन आदि में असावधानी के कारण विकृति आती है। यह जरूरी है कि प्रत्येक कार्य पूरे मन से किया जाय। अधूरे मन से कोई काम पूरा नहीं होता और परेशानी बढ़ती है। असावधानी एक तरह का प्रमाद है जिससे अनेकों तरह के अपराध होते रहते हैं। मनुष्य थोड़ी-सी भी बुद्धि और जागरूकता से काम ले तो वह स्वयं भी परेशानियों से बच सकता है और इसका लाभ दूसरों को भी पहुंचा सकता है।
जब तक मनुष्य का लक्ष्य भोग रहेगा तब तक पाप की यह जड़ें भी विकसित होती रहेंगी। इन तीनों के वश में होकर मनुष्य पाप करेगा। राजनैतिक दबाव या कानून द्वारा इन्हें मिटाया नहीं जा सकता। धार्मिक भावों की जागृति से जब मन बदलेगा तभी पापों से घृणा होगी। मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-विज्ञान की जानकारी हुये बिना यह सम्भव नहीं है कि मनुष्य दुष्कर्मों का परित्याग करे। अधोगामी प्रवृत्तियां और आज का विषैला वातावरण उसे प्रभावित करेगा ही। इनसे वह तभी बच सकेगा। जब धर्म के प्रति उसे गहन आस्था होगी। उन्नति, प्रगति और विकास का अर्थ ही है—मनुष्य के चरित्र में, उसके जीवन में, उच्च सात्विक विचार, श्रेष्ठ कर्म और व्यवहार में विशिष्टता, सरसता एवं माधुर्य का उदय होना।
धार्मिक जीवन ही सच्चा जीवन है। सद्गुणों के विकास में ही सच्चा सुख है। पाप और पतन की जड़ें जब बढ़ती और विकसित होने लगती हैं तभी लोगों के दुःख बढ़ जाते हैं। सुखी जीवन के लिये साधन जुटाये जाना ठीक है, इनका एक अंश तक महत्व भी है किन्तु स्थिर सुख और चिर-स्थायी शान्ति के लिये तो पाप के कारणों को ढूंढ़ना और उन्हें मिटाना ही पड़ेगा।