सुख-शांति की साधना

हमारी प्रगति उत्कृष्टता की दिशा में हो

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मनुष्य अपना शिल्पी आप है। प्रारम्भ में वह एक चेतन-पिण्ड के रूप में ही उत्पन्न होता है। अपने जन्म के साथ न तो वह गुणी होता है, न बुद्धिमान, न विद्वान और न किसी विशेषता का अधिकारी। परमात्मा उसे मानव-मूर्ति के रूप में जन्म देता है और बीज रूप में उपयोगी शक्तियों को उसके साथ कर देता है। इसके बाद का सारा काम स्वयं मनुष्य को करना होता है। अपने इस उत्तरदायित्व के अनुसार वह स्वतन्त्र है कि अपनी रचना योग्यतापूर्वक करे अथवा अयोग्यतापूर्वक। जो अपनी रचना योग्यतापूर्वक करते हैं पुरस्कार रूप में वे परम पद पाकर चिदानन्द के अधिकारी होते हैं और जो अपनी रचना में असफल होते हैं वे जन्म-मरण के चक्र में चौरासी लाख योनियों की यातना सहते हैं।

मानव-पिण्ड के रूप में आया प्रारम्भिक मनुष्य अपने वंश के अनुसार विकसित होता हुआ अपना निर्माण प्रारम्भ कर देता है। अपनी सूझ-बूझ और निर्णय के अनुसार कोई धनवान बनता है, कोई विद्वान् बनता है, कोई व्यापारी बनता है तो कोई श्रमिक। कोई पापी बनता है तो कोई पुण्यात्मा। मनुष्य अपना निर्माण अनेक प्रकार का कर सकता है। मानव-निर्माण का कोई एक स्वरूप नहीं, असंख्य स्वरूप एवं प्रकार हैं। किन्तु उन सबको बांटकर दो प्रकारों में किया जा सकता है। एक उत्कृष्ट निर्माण दूसरा निकृष्ट निर्माण। मनुष्य कुछ भी बने, किसी क्षेत्र अथवा किसी दिशा में बढ़े, विकास करे, यदि उसमें उसने श्रेष्ठता का समावेश किया हुआ है तो उसका निर्माण उत्कृष्ट निर्माण ही कहा जायेगा और यदि वह उसमें अधमता का समावेश करता है तो उसका निर्माण निकृष्ट ही माना जायेगा। उदाहरणार्थ यदि वह धन के क्षेत्र में बढ़कर अपना निर्माण धनाढ्य के रूप में करता है किन्तु इसकी सिद्धि में दुष्ट साधनों तथा उपायों का प्रयोग करता है, तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण निकृष्ट कोटि का कर रहा है। यदि वह इसकी सिद्धि में सत्य, शिव और सुन्दर से सुशोभित साधनों तथा उपायों का अवलम्बन करता है तो कहना होगा कि वह अपना निर्माण उत्कृष्ट कोटि का कर रहा है। इस प्रकार मनुष्य का कोई भी आत्म निर्माण या तो उत्कृष्ट कोटि का होता है अथवा निकृष्ट कोटि का।

निर्माण निर्माण है। वह कैसा भी हो—आखिर वह निर्माण ही है—इस उक्ति को मान्यता नहीं दी जा सकती। यदि निकृष्ट निर्माण को भी मान्यता दी जाने लगेगी, तो संसार में उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता का कोई मूल्य, महत्व ही न रह जायेगा। निर्माण संज्ञा का वास्तविक अधिकारी उत्कृष्ट निर्माण ही हो सकता है, निकृष्ट निर्माण नहीं। अपने को धनवान् अथवा विद्वान् निर्माण करने में जिसने अयोग्य तथा अनुचित उपायों का प्रयोग किया है उसे यदि धनवान और विद्वान् मान लिया जायेगा तो फिर चोर, धूर्त अथवा ठग किसे कहा जाएगा और इस तथाकथित धनवान तथा विद्वान् में क्या अन्तर रह जायेगा। जिसने परिश्रम, पुरुषार्थ, अध्यवसाय एवं तपस्या के आधार पर अपना निर्माण किया है। शिव और अशिव के दो विरोधी उपायों से अर्जित उपलब्धियों को समान श्रेय नहीं दिया जा सकता। यदि कोई ऐसा करता अथवा मानता है तो वह या तो अज्ञानी है अथवा अधम प्रकृति का व्यक्ति। उत्कृष्ट निर्माण ही निर्माण है और निकृष्ट निर्माण मिथ्या क्रियाकलाप। अस्तु, उचित यही है कि वह जिस क्षेत्र में अपना निर्माण करे तो उत्कृष्ट रीति से ही करे, नहीं तो कंचन के रूप में पापों की गठरी बांधने से कहीं अच्छा है कि वह निर्धन और गरीब बना रहे।

उत्कृष्ट निर्माण का आधार धर्म है। धर्म का अर्थ अधिकतर लोग पूजा-पाठ, जप, उपासना, कीर्तन, भक्ति आदि ही मानते हैं। इसीलिये जीवन के अन्य कार्यक्रमों के साथ एक छोटा-सा धार्मिक कार्यक्रम और जोड़कर समझते हैं कि दुनियादारी के साथ-साथ धर्म का भी निर्वाह करते हैं। पूजा-पाठ आदिक कार्यक्रम को धर्म मानने वाले यह नहीं समझ पाते कि संसार का हर काम का एक धर्म होता है। उसके कुछ आदर्श और नियम होते हैं। पूजा-पाठ के कार्यक्रम के साथ जीवन क्रम के हर काम के आदर्श और नियम निर्वाह करने वाले को ही सच्चा धार्मिक कहा जा सकता है। केवल मात्र पूजा-पाठ, जप-तप तक ही सीमित रहकर यदि कोई चाहे कि वह अपना उत्कृष्ट निर्माण कर लेगा, तो उसे निराश ही रहना होगा। उत्कृष्ट निर्माण तभी सम्भव होगा जब जीवन की प्रत्येक गतिविधि का धर्म-निर्वाह किया जायेगा। कोई पूजा-पाठ तो करता रहे, साथ ही कार-रोजगार, आचार-व्यवहार में असत्य, मिथ्या और बेईमान बना रहे तो उसका निर्माण निकृष्ट कोटि का ही हो सकेगा। जीवन क्रम में पग-पग पर ईमानदार, सत्यपरायण और आदर्शवान बने रहने पर यदि कोई पूजा-पाठ वाले धर्म के लिये समय नहीं दे पाता तो भी उसका निर्माण उत्कृष्ट ही होगा। उस छोटी-सी कमी के कारण उसकी जीवन तपस्या असफल नहीं हो सकती।

जीवन-निर्माता धर्म का आधार है सत्य और ईमानदारी। मनुष्य जो कुछ कहे, करे और सोचे उसका आधार सत्य ही होना चाहिये। जिसने आत्म-निर्माण के लिये धनाढ्यता को आदर्श बनाया है उसे चाहिये कि वह धन के लिये जिस व्यवसाय को अपनाता है उसमें पूरी तरह ईमानदार रहे। यदि दुकानदारी करता है तो पूरा तोले, उचित मूल्य ले। खरा माल दे, ठीक पैसे बतलाये। वस्तु, मूल्य तथा उसके गुण बतलाते समय सच बोले। जिस कीमत में किसी एक ग्राहक को वस्तु दे उसी कीमत में दूसरे को। मुनाफा कमाने के लिये वस्तुएं छिपाकर न रखे। होते हुए किसी से इनकार न करे। आबाल वृद्ध सभी के साथ उसकी इसी प्रकार की एक जैसी ही नीति रहनी चाहिए। किसी अनजान, अबोध अथवा निर्बल से चीज होते हुए भी इनकार कर देना अथवा ज्यादा दाम लेकर देना और किसी जानकार, बुद्धिमान अथवा बलवान व्यक्ति को अलभ्य वस्तुएं भी ठीक दामों पर दे देना, व्यापार जैसे पवित्र काम में एक बड़ा कलंक है।

व्यापारियों और कारखानेदारों को चाहिए कि वे खरा माल बेचे-बनायें, नकली अथवा निकृष्ट माल बाजार में न भेजें, अधिक मुनाफाखोरी से बचें। लागत के अनुसार कीमत लें। मजदूरों तथा कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक दें। शोषण, मुनाफाखोरी और कालाबाज़ारी की नीति से बचें। इन सब आदर्शों के साथ धनाढ्यता का लक्ष्य पाने वाले ही उस दिशा में अपने निर्माता माने जाएंगे।

जिसका लक्ष्य एक अच्छा श्रमिक बनना हो वह किसी भी काम को पूरे तन-मन के साथ पूरे समय भर करे। पारिश्रमिक की मात्रा के अनुसार अपने श्रम की मात्रा घटाने-बढ़ाने के बजाय हर स्थिति में पूरी ईमानदारी बरतें अर्थात् पारिश्रमिक भले ही कम हो लेकिन अपने श्रमदान की मात्रा पूरी रखें। कर्मचारियों को चाहिए कि वे अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व का निर्वाह पूरी ईमानदारी के साथ करें। उनके काम पर आने का जो नियत समय हो, अकारण ही उससे देर न करें। पूरे समय पर एकनिष्ठ भाव से काम करें। समय पूरा होने से पहले काम न छोड़ें। कामचोरी, रहस्योद्घाटन, चुगली, पिशुनता आदि से बचे रहें। इस प्रकार अपने साधारण कामों में भी पूरी ईमानदारी और सत्य का निर्वाह करके आत्म-निर्माण किया जा सकता है।

उपर्युक्त कतिपय बातें तो अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व निर्वाह के सम्बन्ध में हैं। अब सबसे विस्तृत क्षेत्र आता है व्यवहार जगत। इस क्षेत्र में तो मनुष्य को अधिकाधिक सावधान तथा संयमित रहना चाहिए। यही वह क्षेत्र है जिसमें मनुष्य के असभ्य व्यवहारी होने की सबसे अधिक सम्भावना रहती है। आजकल विश्वासघात, दगाबाजी और वचनाघात अर्थात् कुछ कहना, कुछ करना, जो कुछ कहना उसे पूरा न करना एक सामान्य-सा चलन बन गया है। विश्वासघात अथवा वचनघात को पाप के स्थान पर चतुरता मानी जाने लगी है। लोग दूसरे के साथ विश्वासघात कर अपने को होशियार समझने लगे हैं। सोचते हैं कि काम बनाने को लोगों को इसी प्रकार बेवकूफ बनाया जाता है, जबकि अपने दिये वचन का पालन न करना, विश्वास देकर पूरा न करना बहुत ही भयानक पाप है। सभी धर्मों और सभी शास्त्रों में इसकी घोर निन्दा की गई है। आचार्यों ने धर्म का मूल सत्य को ही माना है। विश्वास की रक्षा और वचन का पालन न करने वाले चाहे सौ जन्मों तक धर्म करते रहें तब भी वे उन्नति अथवा विकास की ओर एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकते। सत्य निष्ठा ही वह प्रथम सोपान है जिस पर चढ़कर ही कोई व्यक्ति धर्म की ओर, उच्चता और श्रेष्ठता की ओर, अध्यात्म तथा ईश्वर की ओर बढ़ सकता है। सत्य, लोक से लेकर परलोक तक के सारे धर्मों का मूल है। हर विषय, हर बात और हर व्यवहार में वास्तविक रूप में सच्चे रहने वाले व्यक्ति ही किसी दिशा में अपना यथार्थ आत्म-निर्माण कर सकते हैं।

सत्य और ईमानदारी जीवन की सर्वोपरि उत्तम नीति है। इसकी सर्वोपरिता का कारण यह है कि इसमें निष्ठा रखने वाले लोगों के लिये न तो भय होता है और न शंका। सत्यनिष्ठ पुरुषों के चरित्र में दीनता, दयनीयता और हीनता जैसे दुर्गुण नहीं आते। जो सच बोलता है, सत्य व्यवहार करता है, यथार्थ सोचता है और सबके प्रति ईमानदार रहता है, उसके लिये किसी भी प्रकार का डर हो भी कैसे सकता है? सत्यनिष्ठ पुरुष संसार में निर्भयतापूर्वक विचरण करता और सबसे असंदिग्ध व्यवहार करता हुआ आनन्द मनाया करता है। उसे न किसी से डरने की आवश्यकता होती है और न दबने की। जो न किसी को धोखा देता है न किसी प्रकार की चोरी करता है, जितना जो कुछ कहता है उसे पूरा करता है। विश्वासघात और दगाबाजी जैसे जघन्य पापों से जिनकी आत्मा मुक्त है, जो न तो किसी के लिये दुर्भाव रखता है और न किसी को वंचित करने का प्रयत्न करता है। ऐसे सत्पुरुष को संसार में किसी भी देव, दानव अथवा मनुष्य से डरने का कारण भी क्या हो सकता है। डर का निवास तो असत्य और मिथ्यात्व में होता है। सत्यनिष्ठ सिंह पुरुष सदैव निर्भय और निर्भीक ही रहा करते हैं।

भय और मलीनता से मुक्त रहने वालों की आत्मा तेजोपूत और उज्ज्वल रहा करती है। उसकी शक्ति बढ़ती और प्रभावपूर्ण बनती जाती है। उज्ज्वल और सत्यपूत आत्मा वाला व्यक्ति हजार दुष्टों तथा धूर्तों में भी ठीक उसी प्रकार प्रचण्ड और निर्भय बना रहता है जिस प्रकार एक अकेला केसरी शृंगालों और शूकरों के झुण्ड में। निर्भयता में अनन्त व अनिवर्चनीय आनन्द है। इसकी प्राप्ति सत्याचरण, सत्य वचन और सत्य व्यवहार द्वारा ही होती है। सत्य जीवन की सर्वोत्तम नीति है। इसका पालन करने वाला निश्चय ही किसी भी क्षेत्र में अपना श्रेष्ठतम निर्माण कर सकने में सफल हो जाता है।

मनुष्य की आत्मा ही सर्वोत्तम तत्व और उसका सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है। आत्मा की रक्षा करना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताया गया है। जिसने परमात्मा के प्रधान अंश आत्मा की रक्षा कर ली, उसे अपने आचरण, व्यवहार और क्रियाओं की सत्यता द्वारा पुष्ट और बलिष्ठ बना लिया और उसे मल विक्षेप अथवा कुटिलता के कलुष से मुक्त कर उसके मूल तत्व परमात्मा की ओर उत्सुक कर दिया। उसने मानों अपना ठीक-ठीक निर्माण कर लिया। वह अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व में पूरी तरह उत्तीर्ण माना जाता है, जिसके पुरस्कार स्वरूप उसे भवसागर से पार उतार कर सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा की गोद में पहुंचा दिया जाता है।

मनुष्य अपना शिल्पी आप है। वह स्वयं ही अपना निर्माण करता है। उत्कृष्ट निर्माण ही निर्माण है। आत्म-तत्व की रक्षा ही सर्वोत्कृष्ट निर्माण माना गया है। इस निर्माण के लिये मनुष्य को सत्य तथा वास्तविक नीति का अवलम्बन करना चाहिये। सत्य मानव-जीवन की सफलता के लिये सर्वोत्तम नीति है। इसको अपनाकर चलने वाले किसी भी दिशा और किसी भी क्षेत्र में अपना स्थान बनाकर अन्त में परम पद के अधिकारी बनते हैं।
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