सुख-शांति की साधना

भाग्यवादी कायरता छोड़ें, कर्मवादी वीरता अपनावें

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जब जिस समाज के विचार-दर्शन में भाग्यवाद की प्रधानता हो जाती है तब उसका पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। कर्मवाद जहां मनुष्य को परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न की प्रेरणा देता है, वहां भाग्यवाद उसे आलस्य, अकर्मण्यता एवं अनुत्साह की ओर धकेलता है। इस प्रकार एक उन्नति और प्रकाश की ओर और दूसरा पतन एवं अन्धकार की ओर ले जाता है।

जो भाग्यवादी होता है उसकी विचार शक्ति कुंठित हो जाती है—क्योंकि भाग्यवादी किसी बात पर रचनात्मक ढंग से सोचता ही नहीं। उसके सामने तो एक मान्यता ही परदा बनी पड़ी रहती है कि जो कुछ भाग्य में बदा होगा हो जायेगा, उसके लिए प्रयत्न करना बेकार है। यद्यपि सचेतन प्राणी होने के कारण मनुष्य नितान्त निष्क्रिय नहीं हो सकता, उसे कुछ न कुछ हाथ पैर हिलाने ही पड़ेंगे—तब भी भाग्यवादी क्रियाशील होता हुआ भी अपने को निष्क्रिय ही मानता है। यहां तक कि जो कुछ स्वयं कर रहा है उसे भी भाग्य की प्रेरणा समझता है। आत्म गौरव, कर्मनिष्ठा में विश्वास न होने से वह किसी भी दिशा में वांछित फल नहीं पाता और तब असफलता के शोक से कर्मों के प्रति उसका विश्वास और भी उठ जाता है। जिससे दिन-दिन त्रास को प्राप्त होता हुआ भाग्यवादी एक दिन बुरी तरह दयनीय बन जाता है।

भाग्यवाद वास्तव में अज्ञान है—अन्धकार है। कोई सफलता-असफलता हानि-लाभ अथवा सुख-दुःख आने पर इसका ठीक-ठीक हेतु न जानने वाला अज्ञानी उसे भाग्य प्रदत्त अथवा भाग्यवादी मान लेता है। अपने अज्ञान के कारण कोई रोगी जिस प्रकार अपने रोग का ठीक-ठीक कारण न जानने से उसे काल का या भाग्याधीन आया मान लेता है और स्वयं उसका कोई उपाय अथवा उपचार नहीं कर सकता। किन्तु उसी रोग के कारण का ज्ञान रखने वाला डॉक्टर उसे भाग्याधीन नहीं मानता। वह उसके हेतु को खोज लेता है और उसी के अनुसार उपचार किया करता है। फिर भी अज्ञानी व्यक्ति ठीक हो जाने में डॉक्टर के उपचार को कोई विशेष श्रेय न देकर अपने भाग्य को ही सराहा करता है जबकि जानकार व्यक्ति उसका श्रेय भाग्य के पल्ले में न डालकर उपाय एवं उपचार को मान्यता देता है।

भाग्यवादी कर्म में विश्वास न रखने से उसकी विधि से भी अनभिज्ञ रहता है। वह यह जानता ही नहीं कि सफलता कर्म के अधीन रहा करती है और कर्म करने की एक विधि होती है, एक पद्धति होती है। केवल हाथ पैर चला देना ही कर्म करना नहीं कहा जा सकता? सफलता उद्देश्य के अनुरूप ही कार्य करने से मिलती है। केवल कुछ करते रहना ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकता। ऐसी दशा में भाग्यवादी को अधिकतर असफलता ही मिला करती है, जिसका फल यह होता है कि वह और अधिक भाग्यवाद में विश्वास करके कर्मवाद से विरत होने लगता है।

यदि कोई भाग्यवाद के अज्ञानान्धकार में न फंसा हो तो वह अपनी असफलता के कारणों की खोज करे, अपनी कार्य विधि की कमी को ढूंढ़ निकाले और उन्हें दूर करके सुधरे हुए ढंग से अधिक उत्साह से प्रयत्न करे और तब वह अवश्य ही सफलता की ओर अग्रसर हो चले। किन्तु भाग्यवाद के अज्ञान में फंसा होने से वह इन उपयोगी बातों पर विचार न करके सीधे-सीधे भाग्य को दोष देकर छुट्टी पा लेता है। यह लक्षण पतन के गर्त में जाने के सिवाय और क्या कर सकते हैं?

भाग्यवादी न तो कोई काम पूर्ण मनोयोग से करता है और न आत्म-विश्वास के साथ। क्षण-क्षण पर उसे यही ध्यान बना रहता है कि करते तो हैं किन्तु न जाने भाग्य में सफलता बदी है या नहीं? इस प्रकार काम करते रहने पर भी कर्म में अनास्था एवं भाग्य में अन्धविश्वास होने से बहुधा उसके कर्म भी विपरीत दिशा में ही फलीभूत होते हैं? जिससे वह कोई छोटा-मोटा काम करने से भी भयभीत होने लगता है।

अनास्था पूर्वक प्रयत्न करने से जब एक दो बार कर्म वांछित दिशा में फलीभूत हो जाते हैं, तब किसी में सफलता के प्रति उसका विश्वास बिल्कुल उठ जाता है और बार-बार असफलता पाने से वह अपने को एक अभागा व्यक्ति मान लेता है और आगे चल कर अपने विश्वास के अनुसार वह वास्तव में अभागा हो भी जाता है। ऐसी दशा में कोई काम करते समय दुर्भाग्य उसके आगे-आगे चलने लगता है।

भाग्यवादी अल्प प्रयत्न में बहुत बड़ी सफलता के स्वप्न देखने का भी आदी होता है। पैसे भर काम करके रुपये भर के लाभ की कामना करने वाले भाग्यवादी को बुद्धिहीन कहने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। किन्तु भाग्य का उपासक होने से वह बेचारा कार्य और उपलब्धि का अनुपात समझ ही नहीं सकता। और जब किसी काम में मनोवांछित सफलता नहीं मिलती तो स्वभावानुसार दुर्भाग्य का रोना लेकर बैठ जाता है।

भाग्यवादी एक बड़ी बात से लेकर छोटी से छोटी बात तक को तीनों कालों में भाग्य के अधीन ही मानता है। उसकी दृष्टि में पुरुषार्थ, परिश्रम, प्रयत्न, बुद्धि, विद्या, विवेक, ज्ञान, ध्यान, तप, त्याग, यश, अपयश, हानि-लाभ, पूर्व निश्चित विधान के अनुसार भाग्य के ही अधीन होते हैं। दिन-रात कर्म की महत्ता देखते और अपने जीवन का प्रत्येक क्षण कर्म से प्रेरित होने पर भी सब कुछ भाग्याधीन मानकर कर्मशीलता का अपमान करने वाले भाग्यवादियों का भविष्य अन्धकारमय ही बनता है।

भाग्यवादी अकर्मण्यों की बहुतायत हो जाने से किसी भी समाज का पतन हो जाना एक सुनिश्चित तथ्य है। जो परिस्थितियां बन रही हैं वह सब भाग्य का फल है—ऐसा विश्वास करने वाले न तो उनका प्रतिरोध करते हैं और न उनको बदलने का ही प्रयत्न किया करते हैं।
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