शिष्य संजीवनी के सेवन से शिष्यों को नवप्राण मिलते हैं। उनकी
साधना में नया निखार आता है। अन्तःकरण में श्रद्धा व भक्ति की तरंगे उठती हैं। अस्तित्त्व
में गुरुकृपा की अजस्र वर्षा होती है। यह ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव
है जिसे असंख्यों ने अनुभव किया है, और असंख्य जन अनुभव की राह
पर चल रहे हैं। जिन्होंने निरन्तर अध्यात्म साधना के मान सरोवर
में अवगाहन किया है, वे जानते हैं कि शिष्यत्व से श्रेष्ठ और
कुछ भी नहीं है। शिष्यत्व के मंदराचल से ही अध्यात्म का महासागर
मथा जाता है। प्रखरता और सजलता की बलिष्ठ भुजाएँ ही इसे संचालित
करती हैं। शिष्य- साधक की जिन्दगी में यदि ऐसा सुयोग बन पाए तो
फिर जैसे अध्यात्म के महारत्नों की बाढ़ आ जाती है। शक्तियाँ, सिद्धियाँ और विभूतियाँ ऐसे शिष्य- साधक की चरण- चेरी बनकर रहती हैं।
यह दिव्य अनुभव पाने के लिए प्रत्येक साधक को अपने अन्तःकरण में मार्ग की प्राप्ति करनी होगी। यह महाकर्म आसान नहीं है। जन्म- जन्मान्तर के अनगिनत संस्कारों, प्रवृत्तियों से भरे इस भीषण अरण्य में यह महाकठिन पुरुषार्थ है। यह महापराक्रम किस तरह से किया जाय इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह आठवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें शिष्यत्व की महासाधना के परम साधक कहते हैं- ‘भयंकर
आँधी के बाद जो नीरव- निस्तब्धता छाती है, उसी में फूलों के
खिलने का इन्तजार करो। उससे पहले यह शुभ क्षण नहीं आएगा। क्योंकि
जब तक आँधी उठ रही है, बवंडर उठ रहे हैं, महाचक्रवातों
का वेग तीव्र है, तब तक तो बस महायुद्ध के प्रचण्ड क्षण हैं।
ऐसे में तो केवल साधना का अंकुर फूटेगा, बढ़ेगा। उसमें शाखाएँ और
कलियाँ फूटेंगी।’
लेकिन जब तक शिष्य का सम्पूर्ण देहभाव विघटित होकर घुल न जाएगा, जब तक समूची अन्तःप्रकृति
आत्म सत्ता से पूर्ण हार मानकर उसके अधिकार में न आ जाएगी तब
तक महासिद्धि के फूल नहीं खिल सकते। यह पुण्य क्षण तो तब आता
है जब एक ऐसी शान्ति का उदय होता है, जो गर्म प्रदेश में भारी
वर्षा के पश्चात
छाती है। इस गहन और नीरव शान्ति में ही यह रहस्यमय घटना घटित
होती है। जो सिद्ध कर देती है कि मार्ग प्राप्ति हो गयी है।
यह क्षण बड़ा मार्मिक
है। सिद्धि के ये फूल बड़े अनोखे हैं। इनकी महक भी बड़ी अनूठी
है। इन क्षणों के मर्म को वही अनुभव करते हैं जो इन्हें जी रहे
हैं। जिनके हृदय अपने सद्गुरु के प्रति श्रद्धा व समर्पण की
सघनता से भरे हुए हैं। वे ही इस सत्य की संवेदना का स्पर्श कर
पाते हैं। क्योंकि यही वे क्षण हैं जब शिष्यत्व का कमल सुविकसित
व सुवासित होता है। इन्हीं क्षणों में शिष्य की ग्रहण शक्ति
जाग्रत् होती है। इस जागृति के साथ- साथ विश्वास, बोध और निश्चय
भी प्राप्त होते हैं। ध्यान रहे, ज्यों ही शिष्य सीखने के योग्य
हो जाता है, त्यों ही वह स्वीकृत हो जाता है। वह शिष्य मान लिया
जाता है और परम पूज्य गुरुदेव उसे अपनी आत्म चेतना में ग्रहण
कर लेते हैं।
यह घटना विरल होने पर भी सुनिश्चित है। क्योंकि जिस किसी
शिष्य ने अपने शिष्यत्व का दीप जला लिया है, उसकी धन्यता छुपी
नहीं रहती। उसके दीप की सुप्रकाशित ज्योति सब ओर फैले बिना नहीं
रहती। अभी तक इस सूत्र के पहले जो भी नियम बताए गए हैं, वे
नियम प्रारम्भिक हैं। ये और बाद में बताए जाने वाले अन्य सभी
नियम परम- प्रज्ञा के मन्दिर की दीवारों पर लिखे हैं। जो शिष्य
हैं- वे अच्छी तरह से जान लें कि जो मांगेंगे
उन्हें जरूर मिलेंगे। जो पढ़ना चाहेंगे, वे अवश्य पढ़ेंगे और जो
सीखना चाहेंगे, वे निश्चित रूप से सीखेंगे। इस सूत्र को पढ़ने वाले
शिष्यों- इस पर गहन मनन करो। इस पर मनन करते हुए तुम्हें अविचल
शान्ति प्राप्ति हो।
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र जितना गहन है, उतना ही रहस्यमय भी।
इसे सही- सही वही अनुभव कर सकते हैं, जो अपने अन्तःकरण के महारण्य
में मार्ग खोजने में लगे हैं। जो इस महत्कार्य में सम्पूर्ण
तल्लीनता व तन्मयता से तत्पर हैं, उन्हीं में इस सूत्र से बिखर
रही प्रकाश किरणें अवतरित हो पाएँगी। इस सूत्र के पहले जो भी
सूत्र बताए गए थे, यह सूत्र उन सभी की अपेक्षा अति विशिष्ट है।
इसकी पहली पंक्ति ‘भयंकर आँधी के पश्चात् जो निस्तब्धता छा जाती है, उसी में फूल खिलने की प्रतीक्षा करो, उससे पहले नहीं।’ सभी पंक्तियों का सार है।
हम सभी साधक- जो वर्षों से साधना कर रहे हैं, उनमें से प्रायः सभी को आँधियों का अनुभव है। हम सभी के अन्तर्गगन
आँधियों के धूल- गुबार से भरे हुए हैं। संस्कारों, प्रवृत्तियों
एवं कर्मों के भयावह जंगल में ये आँधियाँ जोर- शोर से उठती
हैं। शुरूआती
दौर में हम ज्यों- ज्यों साधना करते हैं, त्यों- त्यों इनका शोर
बढ़ता है। आँधी की गर्द- गुबार तेज होती है। कभी- कभी तो इनके
बढ़ने की दर साधना के बढ़ने के हिसाब से ही तेज होती है। बड़ी
विकट एवं विपन्न स्थिति होती है इस समय साधक की। ऐसे में उसके
लिए गुरुभक्ति का ही सहारा होता है। गुरुभक्ति का रक्षा कवच ही
उसे सुरक्षा प्रदान करता है। जो इस सुरक्षा का सम्बल बनाए अन्त
तक टिके रहते हैं, उनके जीवन में आँधियों का यह शोर कम हो जाता
है और इसका स्थान एक नीरव- निस्तब्धता ले लेती है।
शोर का रूपान्तरण शान्ति में- यह शिष्य की श्रद्धा का सुफल
है। यह उसकी भक्ति का सत्परिणाम है। जो इस नीरवता में अविचल भाव
से अपने सद्गुरु को पुकारता रहता है। उसे ही मार्ग की सिद्धि
मिलती है। यह मार्ग बाहरी दुनिया का मार्ग नहीं है। यह अन्तजर्गत
की यात्रा का पथ है। यह ऐसा मार्ग है, जो शिष्य की चेतना को
सद्गुरु की चेतना से जोड़ता है। बड़ा दुर्लभ पथ है यह। जिसे मिल
चुका है, वे परम सौभाग्यशाली हैं क्योंकि वे सतत्- निरन्तर अपने सद्गुरु के सम्पर्क में रहते हैं। उनकी कृपा वर्षा को अनुभव करते हैं।
इस मार्ग को उपलब्ध करने वाले साधकों का अनुभव यही कहता है
कि उनके सद्गुरु इस लोक में हों, या फिर किसी सुदूर लोक में,
कोई अन्तर नहीं पड़ता। जिसे मार्ग मिल सका है, उसके कई चिह्न उनके
जीवन में प्रकट हो जाते हैं। इन चिह्नों में सबसे महत्त्वपूर्ण
चिह्न है, देहभाव का विलीन हो जाना। आचार्य शंकर कहते हैं देहादिभाव परिवर्तयन्त, परिवर्तित
हो गए हैं देहभाव जिसके। इसका सार अर्थ इतना ही है कि उस पर
बरसने वाली सद्गुरु की कृपा चेतना उसकी जैविक प्रवृत्तियों को
आमूल- चूल बदल देती है। सच्चे शिष्य की देह दिखने में तो जस की
तस बनी रहती है, पर उसकी प्रवृत्तियाँ घुल जाती हैं, धुल जाती हैं।
जैविक प्रवृत्तियों के रूपान्तरण के साथ ही शिष्य सतत्
और निरन्तर अपने सद्गुरु की चेतना के लिए ग्रहणशील होता है।
उसमें प्रकट होता है अडिग विश्वास, प्रबल निश्चय और व्यापक
आत्मबोध। गुरुदेव उसे अपनी आत्मचेतना में स्वीकार लेते हैं। शिष्य
उनकी सर्वव्यापी चेतना का अभिन्न अंश बन जाता है। उसके व्यक्तित्व
से ऐसा प्रकाश फूटता है, जिससे कि उससे मिलने वालों का जीवन
प्रकाशित हो जाता है। जिन्हें भी इसकी प्राप्ति हो सकी है, उन
सभी के अन्तःकरण शान्ति से आप्लावित हो उठते हैं। इस सत्य के
भेद और भी हैं। अगला सूत्र इस सत्य के नए आयाम उद्घाटित करेगा।