शिष्य संजीवनी

संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति

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संवाद की पहली शर्त- वासना से मुक्ति

     शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को सुपात्र बनाते हैं। शिष्य शब्द को उसका सही अर्थ प्रदान करते हैं। इन सूत्रों के ढलकर जो सुपात्र बन गया है, उस पर अपने आप ही सद्गुरुदेव की अनुकम्पा बरस पड़ती है। उसका अन्तःकरण अपने गुरु की कृपा से लबालब भर जाता है। उसके अस्तित्त्व के कण- कण से शिष्यत्व परिभाषित होता है। ढाई अक्षर का शब्द शिष्य- प्रेम के ढाई अक्षर का पर्याय बन जाता है। गुरुप्रेम ही शिष्य का जीवन है। यही उसका पात्रता और पवित्रता की कसौटी है। शिष्य शब्द का सच्चा अर्थ भी इसी में है। जिन्होंने भी अपनी जिन्दगी में इसे ढूँढ लिया है- वे निहाल हो गए हैं। साधना पथ के शूल में भी उनके लिए फूल बन गए हैं।

     जो अभी पथ की खोज में है, उनके मार्गदर्शन के लिए अगला सूत्र प्रस्तुत है। इस सूत्र में शिष्यत्व की साधना के महासाधक बताते हैं- आन्तरिक इन्द्रियों को उपयोग में लाने की शक्ति प्राप्त करके, बाह्य इन्द्रियों की वासनाओं को जीतकर, जीवात्मा की इच्छाओं पर विजय पाकर और ज्ञान प्राप्त करके, हे शिष्य, वास्तव में मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए तैयार हो जा। मार्ग मिल गया है, उस पर चलने के लिए अपने को तैयार कर। इस मार्ग के रहस्यों का ज्ञान तू पूछ पृथ्वी से, वायु से, जल से। इन्हीं में इन रहस्यों को तेरे लिए छुपाकर रखा है। यदि तूने अपनी आन्तरिक इन्द्रियों को विकसित कर लिया है, तो तू इस काम को कर सकेगा। इन रहस्यों को तू पृथ्वी के पवित्र पुरुषों से पूछ, यदि तू शिष्यत्व की कसौटी पर खरा है, तो वे तूझे इन रहस्यों का ज्ञान देंगे। तू भरोसा कर- बाह्य इन्द्रियों की लालसाओं से मुँह मोड़ लेने भर से तूझे यह रहस्य ज्ञान पा लेने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

      इस रहस्यमय सूत्र में आध्यात्मिक जीवन में कई महत्त्वपूर्ण आयाम समाए हैं। इन्हें समझकर आत्मसात कर लिया जाय तो साधना की डगर आसान हो सकती है। इतना ही नहीं इसके शिखर पर भी पहुँचा जा सकता है। लेकिन शुरूआत वासनाओं से मुँह मोड़ने से करनी होगी। जो लालसाओं से लिपटा और वासनाओं से बंधा है, उसके लिए साधना सम्भव नहीं है। साधना के सच केवल साधक को ही मिला करते हैं। और साधक बनने के लिए वासनाओं के बन्धन तोड़ने ही पड़ते हैं। कई बार लोग सवाल करते हैं- ऐसा प्रतिबन्ध क्यों है? इनका कहना है कि कामनाएँ एवं वासनाएँ तो स्वाभाविक हैं, नैसर्गिक हैं। इनकी ओर से मुँह मोड़ने से तो जीवन अप्राकृतिक बन जाएगा। और अप्राकृतिक जीवन को रोगी जिया करते हैं।

ऊपरी तौर पर देखें तो ये तर्क ठीक नजर आते हैंलेकन थोड़ा गहराई में उतरें तो इनमें कोई दम नजर नहीं आती। प्रकृति के आधीन होकर जीना तो पशुओं का काम है। पशु सदा प्रकृति के अनुरूप जीते हैं। यद्यपि ये भी वासनाओं के लिए समर्पित नहीं होते। प्रकृति द्वारा निर्धारित किए गए समय के अनुसार ही ये इस जाल में पड़ते हैं। मनुष्य की स्थिति तो पशुओं से भिन्न है। इन्हें प्राण के साथ मन भी मिला है। और मन का उपयोग एवं अस्तित्त्व इसीलिए है कि यह प्राण को परिष्कृत करे, वासना से उसे मुक्त करे। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर प्राण प्रखर व उर्ध्वगामी बनता है। ऐसा होने पर स्नायु संस्थान दृढ़ होता है और धारणा शक्ति का विकास होता है। जो ऐसा करते हैं- उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास होता है। साथ ही उनमें ऐसी योग्यता विकसित होती है कि ये वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद कर सके।

इन्हीं के लिए कहा गया है कि तुम पूछो पृथ्वी, वायु और जल से। जिनकी भावचेतना इन्द्रिय के इन्द्रजाल से मुक्त नहीं है, वे वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद नहीं कर सकते। धरती इन्हें धूल कणों का ढेर मालूम होगी। और हवा के झोंके इन्हें केवल गर्द- गुबार एवं गन्ध उड़ाते नजर आएँगे। जल के बहते स्रोत इन्हें प्यास बुझाने के साधन लगेंगे। लेकिन यदि नजरें बदले तो नजारे बदल सकते हैं। धरती की धूल महत्त्वपूर्ण हो सकती है। महत्त्वपूर्ण न होती तो तीर्थों की रज का इतना महिमागान न होता। धरती के जिस कोने में ऋषियों ने तप किया, महायोगियों ने साधनाएँ की और फिर साधना से पवित्र उनकी देह उसी धूल में विलीन हो गयी। उस धूल के पास बहुत कुछ कहने को है। बस सही ढंग से सुनने वाला होना चाहिए।

जो सुनना जानते हैं, उन्हें तो शान्तिकुञ्ज की धरती से साधना का संगीत उभरता नजर आता है। जहाँ गुरुदेव और वन्दनीया माता जी जैसे महायोगी रहे, चले और यहीं धूल में उन्होंने अपनी देह विलीन कर दी, वह धरती साधारण कैसे हो सकती है? बस जरूरत सुनने वालों की है। अगर ये हो तो फिर हवाओं में भी उन्हें महर्षियों के स्वर गुंजते सुनायी देंगे। ध्वनि हवाओं से ही तो बहती है और किसी भी हाल में यह मरती मिटती नहीं। यदि हमने अपनी श्रवण शक्ति को सूक्ष्म कर लिया है तो युगों पूर्व के स्वरों को भी सुना जा सकता है। इतना ही नहीं हवाओं की मरमर में दैवी वाणी भी सुनायी पड़ सकती है।

रही बात जल की तो इसकी महिमा तो धरती और वायु से भी ज्यादा है। जल की ग्रहणशीलता अति सूक्ष्म है। आध्यात्मि शक्ति के लिए, जल से बड़ा सुचालक और कोई नहीं। यही वजह है मंत्र से अभिमंत्रित जल चमत्कारी औषधि का काम करता है। यही कारण है कि प्राचीन महर्षियों ने नदियों के किनारे अपने आश्रम बनाये थे। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि उनकी तप शक्ति नदियों के जल में चिरकाल तक संरक्षित रह सके। और युगों- युगों तक लोग उसमें स्नान करके धन्यभागी हो सके। तीर्थ जल आज भी साधक से संवाद करते हैं। गंगा- यमुना की सूक्ष्म चेतना का अस्तित्त्व अभी है। हां उनकी स्थूल कलेवर को इन्सान ने आज अवश्य बरबाद कर दिया है।

         यदि अभी किसी में इतनी पात्रता नहीं है, तो उसको पवित्र पुरुषों के पास जाकर सत्य को सीखना चाहिए। पवित्र पुरुष सभी बन्धनों से मुक्त होते हैं। उनकी स्थूल देह केवल छाया भर होती है। इसलिए पूछने वालों को उनके दैहिक व्यापारों एवं व्यवहारों पर नजर नहीं रखनी चाहिए। अन्यथा अनेकों तरह के भ्रम व सन्देह की गुंजाइश बनी रहती है। जो इन पवित्र पुरुषों को देह के पार देख सकता है, उनकी परा चेतना की अनुभूति कर सकता है, वही उनसे संवाद कर सकता है। अगर ऐसा नहीं है तो उसे संसार भर के पवित्र पुरुष उसे अपनी ही भांति साधारण रोगी या वासनाओं से भरे नजर आएँगे। यही वजह है कि इनसे संवाद की पहली शर्त है कि हम स्वयं वासना मुक्त हों। वासना मुक्त होने पर इस संवाद के स्वर हमसे क्या कहेंगे- आइये इसे अगले सूत्र में जानें।
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