शिष्य संजीवनी

सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी

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           शिष्य संजीवनी के सूत्र जब शिष्यों के जीवन में घुलते हैं तो साधना का शास्त्र जन्म लेता है। यह शास्त्र दूसरे तमाम शास्त्रों से एकदम अलग है। क्योंकि इससे कागद कारे होने की बजाय जीवन उजला होता है। जहाँ अन्य शास्त्र निर्जीव होते हैं, वहीं इसमें जीवन छलकता है, जागृति चमकती है। इस फर्क का कारण केवल इतना है कि दूसरे शास्त्रों का लेखन कागज के पन्नों पर किया जाता है। लेकिन यहाँ तो जिन्दगी के फलक पर कर्म के अक्षर उकेरे जाते हैं। जिन्होंने ऐसा करने का साहस किया है, वे इसके महत्त्व और महिमा को पहचानते हैं। उन्हें यह अनुभव हुए बिना नहीं रहता कि शिष्यत्व की साधना का सुफल कितने आश्चर्यों से भरा है। हां इतना जरूर है कि इसके लिए जीवन संग्राम में युद्ध करने की कुशलता सीखनी पड़ती है।

             जीवन का यह महासंग्राम अन्य युद्धों से काफी अलग है। साधना के इस महासमर में अपूर्व कुशलता चाहिए। यह कुशलता कैसी हो इसके लिए शिष्य संजीवनी के दसवें सूत्र को अपने जीवन में घोलना होगा। इसमें शिष्यत्व की साधना के विशेषज्ञ जन कहते हैं- भावी साधना समर में साक्षी भाव रखो। और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना। हां यह सच है कि वह तुम्ही हो, फिर भी अभी की स्थिति में तुम सीमित हो। अभी तुमसे भूल सम्भव है। लेकिन वह शाश्वत और निःसंशय है। जब वह एक बार तुममे प्रवेश करके तुम्हारा योद्धा बन गया, तो समझो कि वह कभी भी तुम्हारा त्याग न करेगा और महाशान्ति के दिन तुम से एकात्म हो जाएगा।

          अपने भीतर उस महासेनापति का आह्वान करो और उन्हें युद्ध की बागडोर सौंप दो। उन्हें बुलाने में सतर्क रहो, नहीं तो लड़ाई के उतावलेपन में तुम उन्हें भूल जाओगे। और याद रहे जब तक उन्हें तुम अपनी बागडोर नहीं सौंपोगे वे तुम्हारा दायित्व स्वीकार नहीं करेंगे। यदि उन तक तुम्हारी प्रार्थना के स्वर पहुँचेंगे तभी वह तुम्हारे भीतर लड़ेंगे और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देंगे। साधना के महासंग्राम में उन्हीं का आदेश पाना है और उसका पालन करना है। उन्हीं के प्रति समर्पण के स्वरों को अपनी साधना के संगीत में पिरोकर ही यह महायुद्ध जीता जा सकता है।

                 इस सूत्र को जीवन साधना में ढालने के लिए गहरा चिन्तन जरूरी है। इसके एक- एक वाक्य में सारगर्भित अर्थ पिरोए हैं। इसमें पहली और अनिवार्य बात है कि साधना समर में वे विजयी होते हैं- जो साक्षी होने का साहस करते हैं। जिन्होंने आध्यात्म विद्या के परम शास्त्र श्रीमद्भगवद् गीता को पढ़ा है, वे जानते हैं कि गीता का गायन दोनों सेनाओं के मध्य में हुआ था। गीता श्रवण से पहले अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण से यह प्रार्थना करनी पड़ी थी- सेनयोसूभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥ हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरा रथ खड़ा कीजिए। सबसे पहले साक्षी भाव, फिर साधक। यहाँ तक कि साधना के परम शास्त्र को साक्षी भाव के बिना समझा भी नहीं जा सकता।

         यह साक्षी भाव जिन्दगी की गहनता में पहुँचे बिना नहीं मिलता। वह साक्षी अपना ही अन्तरतम है। यहीं सद्गुरु के वचनों का मर्म समझ में आता है। परिधि पर भूल की जा सकती है, पर केन्द्र पर भूल नहीं होती। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी विकृत हुई है। जीवन अनुभवों ने, रास्तों ने, मार्गों ने, संसार ने, अनेक- अनेक जन्मों ने, संस्कारों ने इस जीवन को विकृत किया है। परिधि पर होने के कारण ही जिन्दगी में धूल- ध्वांस भर गयी है। इसी के कारण हमसे बार- बार भूलें होती हैं। बार- बार हम चूकते हैं और चूकते ही रहते हैं। वर्तमान के जीवन में यदि कुछ खोया है तो साक्षी भाव खो गया है। हम कर्त्ता हो गए हैं और यह कर्त्ता कर्म के निकट खड़ा हो गया है, जबकि उसे अन्तरात्मा में स्थित होना चाहिए। बस इसी वजह से जिन्दगी दुष्चक्र बनकर रह गयी है।

            साक्षी भाव की खोज होते हुए हमें वह भी मिल जाता है, जो हमारा सेनापति है। हमारा सद्गुरु है। इन्हें पहचानना, इनकी मानना साधना समर का अनिवार्य धर्म है। जिसने अपने सद्गुरु को पा लिया, उन्हें पहचान लिया, समझो उसने अपनी महाविजय को सुनिश्चित कर लिया। यह काम आसान दिखते हुए भी आसान नहीं है। सद्गुरु मनुष्य के वेश में आते हैं। इस वजह से साधकों से, शिष्यों से उन्हें पहचानने में प्रायः भूलें होती हैं। बार- बार उनके प्रति अपने मानवीय भावों का आरोपण होता है और अगर ऐसा न हो तो भी उनकी बातों को अपनाने में कठिनाई आती है।

          इस कठिनाई से वही उबरते हैं जो सद्गुरु के चरणों में स्वयं को विसर्जित करने का साहस करते हैं। यह काम आसान नहीं है। अपमान, तिरस्कार, द्वेष, पीड़ा आदि अनेकों दारुण यातनाओं को प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हुए सद्गुरु की आज्ञा पालन में निरत रहना ही वह रहस्य है, जिसे सच्चे शिष्य जान पाते हैं। सद्गुरु की हर चोट अहंकार पर होती है। वे अपने हर प्रहार से अहंकार को तोड़ते हैं, मनोग्रन्थियों को खोलते हैं। उनकी हर चोट से कर्म संस्कार क्षय होते हैं। हालांकि यह प्रक्रिया कहने में, लिखने में जितनी आसान है, किन्तु है यह भारी पीड़ादायक

          जो अनुभवी हैं वे जानते हैं कि यह कठिन यातना एक बार प्रारम्भ होने पर वर्षों तक समाप्त ही नहीं होती। कभी- कभी तो यह लगातार बिना रुके, बिना थमे पच्चीस- तीस साल भी चलती रहती है। हालांकि इसकी अन्तिम परिणति साधना के महासमर में विजय ही होती है। पर ऐसे अवसर भी आते हैं कि यह सब शरीर की समाप्ति के साथ ही होता है। ये बातें आश्चर्य भी पैदा कर सकती हैं, और अविश्वसनीय भी लग सकती हैं। पर जो इसे जी रहे हैं वे इसकी सच्चाई पर रंच मात्र भर भी सन्देह नहीं कर सकते। उनके लिए तो यह रोज जिया जाने वाला सच है।

            इस सम्बन्ध में जरूरत अधिक कहने की नहीं, अधिक से अधिक जीने की है। सद्गुरु को प्रति पल अपने हृदय में अनुभव करने की जरूरत है। एक बार यदि गुरु ने शिष्य के हृदय में आसन जमा लिया तो फिर प्रक्रिया कितनी भी जटिल एवं दारूण क्यों न हो, पर अन्तिम परिणाम शुभ के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। इसलिए सतत उनका आह्वान, सतत उनसे प्रार्थना ही एकमात्र उपाय है। ऐसा हो जाय तो परम सौभाग्य है, परम सदभाग्य है। वे जब अन्तर चेतना में अस्तित्त्व के अन्तरतम में मिलेंगे, तो सब कुछ स्वतः सुलभ होने लगेगा। स्वतः ही आदेश एवं संकेत प्राप्त होंगे। यही नहीं विजय का पथ भी प्रशस्त होगा। जीवन का मार्ग भी मिलेगा। तो करते रहें उन परम कृपालु सद्गुरु का आह्वान, निवेदित करते रहे उनसे अपनी प्रार्थना। इसके आगे क्या करना है, इसकी चर्चा अगले सूत्र में किया गया है।
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