शिष्य संजीवनी

देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
          शिष्य संजीवनी के नियमित सेवन से शिष्यों को नव स्फूर्ति मिल रही है। वे अपने अन्तःकरण में सद्गुरु प्रेम के ज्वार को अनुभव करने लगे हैं। उनकी अन्तर्चेतना में नित्य- नवीन दिव्य अनुभूतियों के अंकुरण यह जता रहे हैं कि उन्हें उपयुक्त औषधि मिल गयी है। अपने देव परिवार के परिजनों में यह चाहत सदा से थी कि सद्गुरु के सच्चे शिष्य बने। पर कैसे? यही महाप्रश्र उन्हें हैरानी में डाले था। हृदय की विकलता, अन्तर्भावनाओं की तड़प के बीच वे जिस समाधान सूत्र की खोज कर रहे थे, वह अब मिल गया है। शिष्य संजीवनी के द्वारा शिष्यों को, उनके शिष्यत्व को नव प्राण मिल रहे हैं।

         इसके प्रत्येक सूत्र में सारगर्भित निर्देश हैं। इन सूत्रों में शिष्यत्व की महासाधना में पारंगत सिद्ध जनों की अनुभूति संजोयी है। इन सूत्रों में जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसके प्रत्येक अक्षर में एक गहरी सार्थकता है। सार्थक निर्देश के यही स्वर चौथे सूत्र में भी ध्वनित हैं। इसमें कहा गया है- उत्तेजना की इच्छा को दूर करो। इसके लिए इन्द्रियजन्य अनुभवों से शिक्षा लो और उसका निरीक्षण करो, क्योंकि आत्मविद्या का पाठ इसी तरह शुरु किया जाता है और इसी तरह तुम इस पथ की पहली सीढ़ी पर अपना पाँव जमा सकते हो।

उन्नति की आकाँक्षा को भी पूरी तरह से दूर करो। तुम फूल के समान खिलो और विकसित होओ। फूल को अपने खिलने का भान नहीं रहता। किन्तु वह अपनी आत्मा को वायु के समक्ष उन्मुक्त करने को उत्सुक रहता है। तुम भी उसी प्रकार अपनी आत्मा को शाश्वत के प्रति खोल देने के लिए उत्सुक रहो, परन्तु उन्नति की किसी महत्त्वाकाँक्षा से नहीं। शाश्वत ही तुम्हारी शक्ति और तुम्हारे सौन्दर्य को आकृष्ट करे, क्योंकि शाश्वत के आकर्षण से तो तुम पवित्रता के साथ आगे बढ़ोगे, पनपोगे, किन्तु व्यक्तिगत उन्नति की बलवती कामना तुम्हें केवल जड़, कठोर, संवदेनहीन व आध्यात्मिक अनुभवों से शून्य बना देगी।

           इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जिनके दिलों में अपने गुरुवर के लिए दीवानापन है। जो गुरु प्रेम के लिए अपना सर्वस्व वारने, न्यौछावर करने के लिए उतावले हैं। जिनका हृदय पल- पल प्रगाढ़ आध्यात्मिक अनुभवों के लिए तड़पता रहता है। इस सूत्र में उनकी तड़प का उत्तर है। सभी महान् साधक अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि आध्यात्मिक अनुभवों के लिए बड़ी ही शुद्ध एवं सूक्ष्म भावचेतना चाहिए। ध्यान रहे सद्गुरु प्रेम का आनन्द अति सूक्ष्म है। गुरुदेव की चेतना से निरन्तर स्पन्दित हो रहे अन्तर्स्वर बहुत धीमे हैं। इन्हें केवल वही सुन सकते हैं, जिन्होंने बेकार की आवाजों और उसके आकर्षण से अपने आपको मुक्त कर लिया है। सद्गुरु की कृपा का स्वाद बहुत ही सूक्ष्म है। इसे केवल वही अनुभव कर सकेंगे, जिनकी स्वाद लेने की क्षमता उत्तेजना की दौड़ ने अभी बर्बाद नहीं हुई है।

साधारण तौर पर सभी इन्द्रियाँ और मन उत्तेजना के लिए आतुर हैं। और उत्तेजना का यह सामान्य नियम है कि उत्तेजना को जितनी बढ़ाओ उतनी ही और ज्यादा उत्तेजना की जरूरत पड़ती है। स्थिति यहाँ तक आ खड़ी होती है कि उत्तेजना की यह दौड़ हमें जड़ बना देती है। उदाहरण के लिए भोजन में तेज उत्तेजनाएँ मन को बहुत भाती है। ज्यादा मिर्च, ज्यादा खटाई का परिणाम और ज्यादा चाहिए बनकर प्रकट होता है। यहाँ तक कि यदि हम बाद में बिना मिर्च या बिना खटाई का भोजन लें तो ऐसा लगता है कि मानो मिट्टी खा रहे हैं। भोजन का सहज स्वाद लुप्त हो जाता है। सभी मानसिक व इन्द्रिय अनुभवों के बारे में भी यही सच है। तेज संगीत सुनने वाले कभी भी प्रकृति के संगीत का आनन्द नहीं ले सकते।

           इसीलिए अनुभवी साधक कहते हैं कि यदि सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम तत्त्व को अनुभव करना है तो अपने मन एवं इन्द्रियों को उत्तेजना की दौड़ से बचाये रखो। मानसिक चेतना एवं इन्द्रिय चेतना ज्यों- ज्यों सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम होगी, उसे सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम का स्वाद मिलने लगेगा। शिष्यों का, साधकों का यह चिरपरिचित महावाक्य है कि ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःख योनय एवते’ अर्थात् उत्तेजना से जो सुख मिलता है, वह प्रकारान्तर से दुःख को ही बढ़ाता है। उत्तेजना की इच्छा को दूर किये बिना कोई भी व्यक्ति साधना के जगत् में प्रवेश नहीं पा सकता। क्योंकि साधना का तो अर्थ ही सूक्ष्मतम एवं शुद्धतम का अनुभव है और यह अनुभव स्वयं को सूक्ष्म एवं शुद्ध बनाकर ही पाया जा सकता है।

           उत्तेजना की चाहत केवल इन्द्रियों तक सीमित नहीं है। मन के महादेश में भी इसके अंकुर उगते हैं। मानसिक उत्तेजना उन्नति की महत्त्वाकाँक्षा बनकर प्रकट होती है। अनुभवी साधक कहते हैं कि यह शिष्यत्व की प्रबल विरोधी है। उन्नति की चाहत रखने वाले कभी भी अपने गुरुदेव के दीवाने नहीं हो सकते। उन्हें कभी भी प्रेम एवं समर्पण का स्वाद नहीं मिल सकता। इसलिए शिष्यों के लिए किसी भी तरह की उन्नति की चाहत वर्जित है। उन्हें सभी तरह की लौकिक उन्नति या आध्यात्मिक उन्नति की चाहत से दूर रहना चाहिए। आध्यात्मिक उन्नति की चाहत से दूर रहने की बात थोड़ी विचित्र लग सकती है। पर है यह पूरी तरह से सही। दरअसल सारी चाहतें अहंता के इर्द- गिर्द घूमती रहती हैं और प्रकारान्तर से अहंकार को मजबूत करती हैं। जबकि आध्यात्मिकता सिरे से अहंकार की विरोधी है।

यह फूल की तरह खिलना और विकसित होना है। फूल को तो अपने खिलने का भान भी नहीं होता। सच यही है कि कली कब फूल बन जाती है पता ही नहीं चलता। हाँ यह जरूर है कि वह सदा ही अपनी आत्मा को वायु के समक्ष- प्रकाश के समक्ष खोलने को उत्सुक रहती है। कली समर्पित होती है, प्रकाश के प्रति, हवा के प्रति, समूची प्रकृति के प्रति। इसके अलावा वह कोई और चेष्टा नहीं करती। उसमें तो बस इतनी आतुरता होती है, सिर्फ इतनी प्यास होती है कि उसके भीतर जो सुगन्ध है, वह हवाओं में लुट जाये। इस क्रम में जो सबसे बेशकीमती बात है, वह यह है कि आतुरता के क्षणों में भी कली कोई चेष्टा नहीं करती, बस प्रतीक्षा करती रहती है। निरन्तर एवं अनवरत प्रतीक्षा। उसकी प्रतीक्षा होती है कि सूरज उगेगा, हवायें आयेंगी और फिर वह फूल बन जायेगी। फूल बनकर वह सारी सुगन्ध को हवाओं में लुटा देगी।

          बस शिष्यों के लिए भी यही राह है। उत्तेजना एवं उन्नति की चाहत को त्याग कर अपने गुरुदेव के होकर रहना। उन्हें निरन्तर एवं अनवरत समर्पण करते रहना। शिष्य की बस एक ही टेक- एक ही रटन होनी चाहिए- देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी। शिष्य में होना चाहिए अपने गुरुदेव की कृपा पर अनवरत विश्वास। गुरुकृपा के प्रति उन्मुक्त होकर ही शिष्य की चेतना कली से फूल बनती है, तभी उसके जीवन को सार्थकता मिलती है। यही रहस्य है शिष्य के जीवन का। रहस्य के आयाम और भी हैं।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118