शिष्य संजीवनी

सदगुरु से संवाद की स्थिति कैसे बनें

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     शिष्य संजीवनी के प्रत्येक सूत्र में अपनी एक खास विशिष्टता है। इसकी गहनता में जीवन का सुरीला संगीत है। संगीत का अर्थ है कि जीवन का परम रहस्य, स्वरों की भीड़- भाड़ नहीं है, न ही एक अराजकता है, न ही एक अव्यवस्था है, बल्कि सभी स्वर मिलकर एक ही तरंग, एक ही लय, एक ही इंगित, एक ही इशारा कर रहे हैं। जिन्दगी के परम केन्द्र में सभी स्वर परस्पर घुले- मिले हैं। कहीं कोई बैर- विरोध नहीं है। यह जो अव्यवस्था दिखाई पड़ती है, यह हमारे अन्धेपन के कारण है। और जो स्वरों का उपद्रव दिख रहा है, वह हमारे बहरेपन के कारण है। अपनी स्वयं की अक्षमता के कारण हम सभी स्वरों के बीच में बहती हुई समस्वरता का अनुभव नहीं कर पाते।

     जबकि इसी अनुभूति में साधना है। इसी में शिष्य और सद्गुरु का मिलन है। इसी के रहस्य को उजागर करते हुए शिष्यत्व के साधना शिखर पर विराजमान जन कहते हैं- ‘‘सुने गए स्वर माधुर्य को अपनी स्मृति में अंकित करो। जब तक तुम केवल मानव हो, तब तक उस महागीत के कुछ अंश ही तुम्हारे कानों तक पहुँचते हैं। परन्तु यदि तुम ध्यान देकर सुनते हो, तो उन्हें ठीक- ठीक स्मरण रखो; जिससे कि जो कुछ तुम तक पहुंचा है, वह खो न जाए। और उससे उस रहस्य का आशय समझने का प्रयत्न करो, जो रहस्य तुम्हें चारों ओर से घेरे हुए है। एक समय आएगा जब तुम अपनी अन्तर्चेतना में सद्गुरु की वाणी की अनुभूति कर सकोगे। इसी परमवाणी में सर्वव्यापी अस्तित्त्व के संकेत हैं।

    इन दिव्य संकेतों की स्वर लहरियों से स्वरबद्धता का पाठ सीखो। ध्यान दो इस सत्य पर कि जीवन की अपनी भाषा है और वह कभी मूक नहीं रहती और उसकी वाणी एक चीत्कार नहीं है, जैसा कि तुम भूलवश समझ लेते हो। वह तो एक महागीत है। उसे सुनो और उससे सीखो कि तुम स्वयं उस सुस्वरता के अंश हो। और उससे उस सुस्वरता के नियमों का पालन करना सीखो।’’ साधना का यह परम सूत्र सम्मोहक है और रहस्यमय भी। इसमें प्रवेश करने पर यात्रा का पथ मिलता है, सद्गुरु का द्वार खुलता है।

     इस परम सूत्र में जिस महागीत का इशारा किया गया है, निश्चित ही उसे आज की स्थिति में सम्पूर्ण रूप से नहीं सुना जा सकता है। इसे पूरी तरह से सुनने के लिए हमें भी धीरे- धीरे भीतर लयबद्ध होना पड़ेगा। क्योंकि समान ही समान का अनुभव कर सकता है। अगर हमें उस महासंगीत की अनुभूति करनी है तो खुद भी संगीतपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर हम उस परम प्रकाश को देखना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें प्रकाशपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर उस दिव्य अमृततत्त्व का स्वाद चखना है तो मृत्यु के रहस्य के पार जाना होगा।

दरअसल हम जिसको जानना चाहते हैं, उसके जैसा हमें होना भी पड़ता है। क्योंकि समान की ही अनुभूति पायी जा सकती है। असमान की अनुभूति का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए साधना के शिखर को पहुँचे हुए अनुभवी जनों ने कहा है- कि आँख हमारे भीतर सूरज का हिस्सा है, इसीलिए यह प्रकाश की अनुभूति पाने में सक्षम है। कान हमारे भीतर ध्वनि का हिस्सा है, इसीलिए यह सुन पाने में सक्षम है। कामवासना हमारे भीतर पृथ्वी का हिस्सा है, इसीलिए यह हमेशा नीचे की ओर खींचती रहती है। जबकि ध्यान हमारे भीतर परमात्मा का अंश है, इसीलिए हमें परमात्मा की ओर ले जाता है। यह बात जिन्दगी में बार- बार अनुभव होती है कि जो जिससे जुड़ा है, उसी का यात्रा पथ बन जाता है।

      विचार करो, अहसास करने की कोशिश करो कि अपना खुद का जुड़ाव कहाँ और किससे है? अगर हम सर्वव्यापी परमचेतना के संगीत को सुनना चाहते हैं, तो उससे जुड़ना भी होगा। यह जुड़ाव कठिन तो है पर एकदम असम्भव नहीं है। भावनाएँ उस ओर बहें तो यह सम्भव है। उन भावनाओं की, उन भावानुभूतियों की स्मृति का स्मरण होता रहे तो यह सम्भव है।

      कभी- कभी अचानक ही ये भावानुभूतियाँ हमें जीवन में घेर लेती हैं। जैसे किसी दिन सुबह सूरज को उगते देखकर रोम- रोम में शान्ति की लहर दौड़ने लगती है या फिर किसी रोज आकाश में तारे भरे हों और हम उन्हें जमीन पर लेटे हुए देख रहे हों, तभी अचानक अन्तर्चेतना में मौन उतर गया हो। ऐसी और भी अनेकों भावानुभूतियाँ हैं जो किसी खास क्षण में उपजती और उतरती हैं। इन अनुभूतियों का स्मरण हमें बार- बार करते रहना चाहिए। इस स्मरण के झरोखे से परम तत्त्व की झांकी उतरती है।

      भावानुभूतियों के इस क्रम में अपने सद्गुरु के साथ बिताए क्षणों का सुयोग भी है। उनके दर्शन की प्यारी झलक, उनके श्री चरणों का सुकोमल स्पर्श अथवा फिर उनकी कही हुई बातें। इस सबका अवसर जीवन में कम आया हो, तो स्वप्र भी झरोखे बन सकते हैं। स्वप्रों में भी दिव्यता उतरती है। धन्य होते हैं, वे पल जब स्वप्र में सद्गुरु की झलक मिलती है। स्वप्र में जब उनके स्पर्श का अहसास मिला- तब यह सब विशेष हो जाता है। क्योंकि ऐसे क्षणों में हमारी अन्तर्चेतना सद्गुरु के साथ लयबद्ध स्थिति में होती है।

इन क्षणों का यदि बारम्बार स्मरण हो सके तो सद्गुरु से संवाद सम्भव बन पड़ता है। ईसाइयों की पुरातन कथाओं में प्रायः ईसेन सम्प्रदाय का जिक्र होता है। कहते हैं कि इसी सम्प्रदाय में ईसा मसीह को दीक्षा मिली थी। इस सम्प्रदाय में साधना की कई अनूठी बातों की चर्चा मिलती है। शोध की जिज्ञासा हो तो यहाँ अध्यात्म की अनेकों खास तकनीकें ढूँढी जा सकती हैं। इन सभी में ध्यान का विशेष महत्त्व है। वैसे भी कहते हैं कि यह सम्पूर्ण सम्प्रदाय ध्यान पर ही टिका हुआ था।

     इसके पुरातन आचार्यों का कहना था कि यदि तुम्हारे जीवन में अगर कभी कोई ऐसा क्षण घटा हो, जिस क्षण में विचार न रहे हों और तुम आनन्द से भर गए हो, तो उस क्षण को तुम पुनः पुनः स्मरण करो। उन क्षणों को अपने ध्यान का विषय बनाओ। वह क्षण कोई भी रहा हो, उसी को बार- बार स्मरण करके उस पर ध्यान करो, क्योंकि उस क्षण में तुम अपनी श्रेष्ठतम ऊँचाई पर थे। अब उन्हीं क्षणों में, उसी स्थान में मेहनत करने की आवश्यकता है।
ऐसे क्षण हम सभी के जीवन में आते हैं। बस हम इन्हें सम्हाल कर नहीं रख पाते। इन्हें सम्हालने की जरूरत है। क्योंकि नीरवता में घुले, आनन्द से भरे इन्हीं क्षणों में हमारी भावचेतना शिखर पर होती है। इन्हीं में सद्गुरु से संवाद की स्थिति बनती है परम चेतना के संकेतों को पाने का सौभाग्य जगता है।
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