शिष्य
संजीवनी की यह सूत्र- माला एक लम्बे समय से शिष्यों को
शिष्यत्व की साधना का मर्म समझाती आयी है। उन्हें अपने सद्गुरु
की कृपा का अधिकारी बनाती आयी है। अब इस सूत्र- माला का आखिरी
छोर आ पहुँचा है। माला के सुमेरू
तक हम आ पहुँचे हैं। केवल अन्तिम सूत्र कहा जाना है। यह अन्तिम
सूत्र पहले गये सभी सूत्रों का सार है, उनकी चरम परिणति है। इस
सूत्र में शिष्यत्व की साधना का चरम है। इसमें साधना के परम
शिखर का दर्शन है। इसे समझ पाना केवल उन्हीं के बूते की बात
है। जो इस साधना में रमे हैं, जिन्होंने पिछले दिनों शिष्यों
संजीवनी को बूंद- बूंद
पिया है, इस औषधि पान के अनुभव को पल- पल जिया है। इस सूत्र
को समझने के लिए वे ही सुपात्र हैं, जिन्होंने अपने शिष्यत्व को
सिद्ध करने के लिए अपने सब कुछ को दांव पर लगा रखा है।
इस अन्तिम सूत्र में पथ की नहीं मन्दिर की झलक है। पथ तो समाप्त हुआ, अब मंगलमय प्रभु के महाअस्तित्त्व में समा जाना है। बूंद- समुद्र में समाने जा रही है। सभी द्वन्द्वों को यहाँ विसॢजत होकर द्वन्द्वातीत होना है। शिष्यत्व के इस परम सुफल को जिन्होंने चखा है, जो इस स्वाद में डूबे हैं, ऐसे महासाधकों का कहना है- ‘जो
दिव्यता के द्वार तक पहुँच चुका है, उसके लिए कोई भी नियम
नहीं बनाया जा सकता। और न कोई पथ प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता
है। फिर भी शिष्यों को संकेत देने के लिए कुछ संकेत दिए गए
हैं, कुछ शब्द उचारे गए हैं- ‘जो
मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। केवल
नाद रहित वाणी ही सुनो। जो बाह्य और अन्तर दोनों चक्षुओं से
अदृश्य है, केवल उसी का दर्शन करो। तुम्हें शान्ति प्राप्त हो।’
शिष्यत्व की साधना का यह अन्तिम छोर अतिदिव्य है। यहाँ किसी भी तरह के सांसारिक ज्ञान, भाव या बोध की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ शुद्ध अध्यात्म है। यहां केवल शुद्धतम चेतना का परम विस्तार है। यहाँ अस्तित्त्व
के केन्द्र में प्रवेश है। यहाँ न तो विधि है, न निषेध। कोई
नियम- विधान यहाँ नहीं है। हो भी कैसे सकते हैं, कोई नियम यहाँ
पर? नियम तो वहाँ लागू किए जाते हैं, जहाँ द्वैत और द्वन्द्व
होते हैं। और द्वैत और द्वन्द्व का स्थान परिधि है, केन्द्र नहीं।
उपनिषद् में यही अवस्था नेति- नेति कही गयी है।
बात भी सही है, जो सीखा गया था, जो जाना गया था, वह तो संसार
के लिए था। अब जब चेतना का आयाम ही बदल गया तो सीखे गए, जाने
गए तत्त्वों की जरूरत क्या रही। इसीलिए यहाँ कोई नहीं है और न
ही पथ प्रदर्शन की जरूरत। यह तो मंजिल है, और मंजिल में तो
सारे पथ विलीन हो जाते हैं। जब पथ ही नहीं तब किस तरह का पथ-
प्रदर्शन। यहाँ तो स्वयं को प्रभु में विलीन कर देने का साहस
करना है। बूंद
को समुद्र में समाने का साहस करना है। जो अपने को सम्पूर्ण
रूप से खोने का दुस्साहस करता है, वही प्रवेश करता है। इसीलिए
सूत्र कहता है कि यहाँ न तो कोई नियम है और न कोई पथ
प्रदर्शक।
यहाँ खड़े होकर- जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका
अवलम्बन लो। मूर्त यानि कि पदार्थ अर्थात् साकार। और अमूर्त
अर्थात् यानि कि निराकार। सूत्र कहता है कि इन दोनों को छोड़ो। और
दोनों से पार चले जाओ। यह सूत्र थोड़ा समझने में अबूझ है।
परन्तु बड़ा गहरा है। मूर्त और अमूर्त ये दोनों एक दूसरे के
विपरीत है। इन विरोधो
में द्वन्द्व है। और शिष्य को अब द्वन्द्वों से पार जाना है।
इसलिए उसे इन दोनों के पार जाना होगा। सच तो यह है कि मूर्त
और अमूर्त में बड़ा भारी विवाद छिड़ा रहता है। कोई कहता है कि परमात्मा साकार है तो कोई उसे निराकार बताता है। और साकारवादी और निराकारवादी दोनों झगड़ते
रहते हैं। जो अनुभवी हैं- वे कहते हैं कि परमात्मा इस झगड़े के
पार है। वह बस है, और जो है उसे अनुभव किया जा सकता है। उसे
जिया जा सकता है, पर उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
जो नहीं कहा जा सकता, उसी में लय होना है।
अगली बात इस सूत्र की और भी गहरी है। इसमें कहा गया है- केवल
नाद रहित वाणी सुनो। बड़ा विलक्षण सच है यह। जो भी वाणी हम
सुनते हैं, वह सब आघात से पैदा होती है। दो चीजों की टक्कर से,
द्वन्द्व से पैदा होती है। हवाओं की सरसराहट में वृक्षों के
झूमने, पत्तियों के टकराने का द्वन्द्व है। ताली बजाने में दोनों
हाथों की टकराहट है। हमारी वाणी भी कण्ठ की टकराहट का परिणाम
है। जहाँ- जहाँ स्वर है, नाद है, वहाँ- वहाँ आहत होने का आघात है।
परन्तु सन्तों ने कहा है कि एक नाद ऐसा भी है, जहाँ कोई किसी
से आहत नहीं होता। यहाँ नाद तो है, पर अनाहत है।
भगवान् बुद्ध कहते हैं जो आघात से, संघात से पैदा होता है,
आहत होने से जिसकी उत्पत्ति होती है, वह मरणशील है। उसे मरना ही
है। इसके विपरीत जो अनाहत है, वह शाश्वत है। मंत्र शास्त्र ने
इसके श्रवण की व्यवस्था की है। इन पंक्तियों में हम अपने पाठकों
को एक अनुभव की बात बताना चाहते हैं। बात गायत्री मंत्र की है,
जिसे हम रोज बोलते हैं। यह बोलना दो तरह का होता है, पहला-
जिह्वा से, दूसरा विचारों से। इन दोनों अवस्थाओं में संघात है।
परन्तु जो निरन्तर इस प्रक्रिया में रमे रहते हैं, उनमें एक नया
स्रोत पैदा होता है। निरन्तर के संघात से एक नया स्रोत फूटता
है। अन्तस् के स्वर। ऐसा होने पर हमें गायत्री मंत्र बोलना नहीं
पड़ता, बस सुनना पड़ता है।
फिर तो हमारा रोम- रोम गायत्री जपता है। हवाओं, फिजाओं में गायत्री की गूंज
उठती है। सारी सृष्टि गायत्री का गायन करती है। यह अनुभव की
सच्चाई है। इसमें बौद्धिक तर्क की या फिर किताबी ज्ञान की कोई
बात नहीं है। ऐसा होने पर गायत्री का जीवन का स्वर बन जाता है,
जो निरन्तर साधना कर रहे हैं, उन्हें एक दिन यह अनुभव अवश्य
होता है। यह अनुभव दरअसल अपनी साधना के पकने की पहचान है। इन
अनाहत स्वरों को जो सुनता है, वह शाश्वत में प्रवेश करता है।
थोड़ा सा अलंकारिक भाषा में कहें तो ये स्वर प्रभु के परम
मन्दिर में घण्टा ध्वनि है, जो इस मंदिर में प्रवेश करते हैं, वे
इस मधुर ध्वनि को भी सुनते हैं।
इस सूत्र की आखिरी बात है, जो बाहरी और आन्तरिक दोनों चक्षुओं
से अदृश्य है, उसका दर्शन करो। इस सूत्र का सच यह है कि हमारी
आँखें दो है और दृश्य भी दो हैं। पहली आँख हमारी दृश्येन्द्रिय
है, जो घटनाओं को देखती है। वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, संसार इससे
दिखाई देता है। जबकि दूसरी आँख हमारे मन की है- यह विचारों को
देखती है। तर्क और निर्णय की साक्षी होती है। भगवान् का सच,
अध्यात्म का अन्तिम छोर इन घटनाओं और विचारों दोनों के ही पार
है। इसके लिए हमें मन के पार जाना पड़ता है। जो मन के पार जाते
हैं, वहाँ उस अदृश्य का दर्शन करते हैं। और अनुभव तो यह कहता
है कि अपना मन ही उस अदृश्य में विलीन हो जाता है।
इस विलीनता
में ही शान्ति की अनुभूति है, जो शिष्य को अपने गुरु के कृपा-
प्रसाद से मिलती है। यह सब कुछ स्वयमेव शान्त हो जाता है। साधना
के सारे संघर्ष, जीवन के सभी तूफान यहाँ आकर शान्त हो जाते
हैं। बस यहाँ तक शिष्य और गुरु का द्वैत भी समाप्त हो जाता है।
शिष्य दिखता है होता नहीं है। अस्तित्त्व
तो उसी परम सद्गुरु का होता है। यह परम शान्ति की भावदशा
शिष्य, सद्गुरु एवं परमेश्वर को परम एकात्म होने की भाव दशा है।
यह अकथ कथा कही नहीं जा सकती बस इसका अनुभव किया जा सकता है। बड़भागी हैं वे जो इस अनुभव में जीते हैं और अपने शिष्यत्व की सार्थकता, कृतार्थता का अनुभव करते हैं।