शिष्य संजीवनी में सद्गुरु प्रेम का रस है। जो भी इसका सेवन कर
रहे हैं, उन्हें इस सत्य की रसानुभूति हो रही है। गुरु भक्ति
के भीगे नयन- गुरु प्रेम से रोमांचित तन- मन यही तो शिष्य का
परिचय है। जो शिष्यत्व की साधना कर रहे हैं, उनकी अन्तर्चेतना
में दिन- प्रतिदिन अपने गुरुदेव की छवि उजली होती जाती है।
बाह्य जगत् में भी सभी रूपों और आकारों में सद्गुरु की चेतना
ही बसती है। गुरु प्रेम में डूबने वालों के अस्तित्व से द्वैत
का आभास मिट जाता है। दो विरोधी भाव, दो विरोधी अस्तित्व एक ही
स्थान पर, एक ही समय प्रगाढ़ रूप से नहीं रह सकते। प्रेम से
छलकते हुए हृदय में घृणा कभी नहीं पनप सकती। जहाँ भक्ति है, वहाँ
द्वेष ठहर नहीं सकता। समर्पित भावनाओं के प्रकाश पुञ्ज में ईर्ष्या के अँधियारों के लिए कोई जगह नहीं है।
संक्षेप में द्वैत की दुर्बलता का शिष्य की चेतना में कोई
स्थान नहीं है। अपने- पराये का भेद, मैं और तू की लकीरें यहाँ
नहीं खींची जा सकती। यदि किसी वजह से अन्तर्मन के किसी कोने में
इसके निशान पड़े हुए हैं तो उन्हें जल्द से जल्द मिटा देना
चाहिए। क्योंकि इनके धूमिल एवं धुँधले चिन्ह
भी गुरु प्रेम में बाधक है। द्वैत की भावना किसी भी रूप में
क्यों न हो, शिष्यत्व की विरोधी है, क्योंकि द्वैत केवल बाह्य
जगत् को ही नहीं बाँटता, बल्कि अन्तर्जगत् को भी विभाजित करता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि जिसकी अन्तर्चेतना
विभाजित है, बँटी- बिखरी है, वही बाहरी दुनिया में द्वैत का
दुर्भाव देख पाता है। आखिर अन्तर्जगत् की प्रतिच्छाया ही तो बाह्य
जगत् है।
इसीलिए शिष्यत्व की महासाधना के सिद्धजनों
में इस मार्ग पर चलने वाले पथिकों को चेतावनी भरे स्वरों में
शिष्य संजीवनी के तीसरे सूत्र का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा
है- ‘‘द्वैत भाव को समग्र रूप से दूर करो। यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो। अरे!
वे तो तुम्हारे ही रूप हैं। भले ही तुम्हारे भिन्न अथवा
गुरुदेव से कुछ कम तुम्हारे रूप हों, फिर भी हैं वे तुम्हारे ही
रूप। याद रहे कि सारे संसार का पाप व उसकी लज्जा, तुम्हारी
अपनी लज्जा व तुम्हारा अपना पाप है। स्मरण रहे कि तुम संसार के
एक अंग हो, सर्वथा अभिन्न अंग और तुम्हारे कर्मफल उस महान्
कर्मफल से अकाट्य रूप से सम्बद्ध हैं। ज्ञान प्राप्त करने के
पहले तुम्हें सभी स्थानों में से होकर निकलना है, अपवित्र एवं
पवित्र स्थानों से एक ही समान।’’
इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जो अपने गुरुदेव के प्रेम में
डूबे हैं। जो इस अनुभव के रस को चख रहे हैं, वे जानते हैं कि
जब प्रेम गहरा होता है तो प्रेम करने वाले खो जाते हैं, बस
प्रेम ही बचता है। जब भक्त अपनी पूरी लीनता
में होता है, तो भगवान् और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर
फासला हो तो भक्ति अधूरी है, सच कहें तो भक्ति है ही नहीं।
वहाँ भक्त और भगवान् परस्पर घुल- मिल जाते हैं। दोनों के बीच एक
ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों घोर लीन हो जाते हैं और एक
ही अस्तित्व रह जाता है। प्रेम और भक्ति में अद्वैत ही छलकता एवं झलकता है।
सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस
अस्तित्व से अलग- थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी
सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते।
सच कहें तो कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर दूसरे के साथ जो घट
रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही,
लेकिन घट अपने ही साथ रहा है। भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध अथवा महर्षी पतंजलि ने जो अहिंसा
की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका कुल
मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट
पहुँचा रहे हो, या दुःख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो तो
दरअसल तुम गुरु घात या आत्म घात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर
की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की
चेतना समाहित है।
ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो
सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में
उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा
नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा यह
रूप भले ही खो जाये, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाये, हमारा यह
नाम भले ही मिट जाये। हमारा नामोनिशाँ
भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया
था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनायी थी, वह सब की
सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई
यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा। हम
यहाँ से भले ही खो जायें, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से
अंकुरित हो जायेगा।
हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी
खोता नहीं है। क्योंकि हम एक विराट् के हिस्से हैं। लहर मिट
जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गयी है, उसका जल
भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है,
दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई
हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर उसी जल से गिरने वाली
लहर वापस लौट रही है। इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला
नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी से देर के लिए लहर ने
एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप बचा रहता है। हम सब
भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत् में सभी कुछ लहरवत्
हैं। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य
भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष
यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।
परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति
है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं
विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न
किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचती है, दुःख पहुँचाते
हैं, तो हम किसी और को नहीं सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं
को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है। महान् शिष्यों
के जीवन की जीवन्त अनुभूति है- श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य
ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव
की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव
उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।
महान् शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको।
क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे
मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे
अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो
या पुण्यात्मा हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं
है। क्योंकि सभी में हमारे गु़रुदेव
ही समाये हैं। अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों
पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी
के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत्
में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी
हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए
शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।