शिष्य संजीवनी

व्यवहार शुद्धि, विचारशुद्धि, संस्कारशुद्धि

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      शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को अपने अन्तरतम में छुपे जीवन के परम रहस्य को अनुभव करने का अवसर देते हैं। यह अवसर अतिदुर्लभ है। युगों की साधना और सद्गुरु कृपा के बल पर कोई विरला शिष्य इसे जानने का अधिकारी हो पाता है। सामान्यतया तो शिष्य और साधक अहंकार की भटकन भरी भूल भुलैया में उलझते- फंसते और फिसलते रहते हैं। शिष्यों का अहं उन्हें सौ चकमे देता है, सैकड़ों भ्रम खड़े करता है। कभी- कभी तो इन भ्रमों व भुलावों में पूरी जिन्दगी ही चली जाती है। अहं के इन्हीं वज्रकपाटों की वजह से अपना ही अन्तरतम अनदेखा रह जाता है। इसके भीतर झांकने और जानने की कौन कहे- इसका स्पर्श तक दुर्लभ रहता है। जबकि जीवन के परम रहस्य इसी में संजोये और समाए हैं। इसी में गूंथे और पिरोये गए हैं।

       यह अनुभव उन सभी का है जो शिष्यत्व की कठिन कसौटियों पर कसे गए हैं। जिन्होंने अनगिनत साहसिक परीक्षाओं में अपने को खरा साबित किया है। वे सभी कहते हैं- ‘पूछो अपने अन्तरतम से, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है। अनुभव कहता है कि जीवात्मा की वासनाओं को जीत लेने का कार्य बड़ा कठिन है। इसमें युगों लग जाते हैं। इसलिए उसके पुरस्कार को पाने की आशा मत करो, जब तक कि वासनाओं को जीत लेने का दुष्कर कार्य पूरा न हो जाए। इस कार्य के पूरा हो जाने पर ही इस नियम की उपयोगिता सिद्ध होती है। तभी मानव- अतिमानव अवस्था की ड्योढ़ी पर पहुँच पाता है। इस अवस्था में जो ज्ञान मिलता है वह इसी कारण मिल पाता है कि अब तुम्हारी आत्मा सभी शुद्धतम आत्माओं में से एक है। और उस परम तत्त्व से एक हो गयी है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस परमात्मा की धरोहर है। उन प्रभु के साथ तनिक सा भी विश्वासघात अथवा इस दुर्लभ ज्ञान का दुरुपयोग अथवा अवहेलना शिष्य या साधक के पतन का कारण भी हो सकता है। कई बार ऐसा होता है कि परमात्मा की ड्योढ़ी तक पहुँच जाने वाले लोग भी नीचे गिर जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा एवं भय के साथ सजग रहो।’
       
शिष्य संजीवनी के सभी सूत्रों में यह सूत्र अतिदुर्लभ है। इसके रहस्य को जान पाना, इसे प्रयोग कर पाना सबके बस की बात नहीं है। इसकी सही समझ एवं इसका सही प्रयोग केवल वही कर सकते हैं, जो अपने आप को वासनाओं से मुक्त कर चुके हैं। वासनाओं की कीचड़ से सना, इस कालिख से पुता व्यक्ति अपने अन्तरतम की गहराइयों में प्रवेश ही नहीं कर सकता। उसके पल्ले तो भ्रम- भुलावे और भटकनें ही पड़ती हैं। वह हमेशा भ्रान्तियों की भूल- भुलैया में ही भटका करता है। इससे उबरना तभी सम्भव है, जब अन्तःकरण में वासनाओं का कोई भी दाग न हो। अन्तर्मन अपनी सम्पूर्णता में शुभ्र- शुद्ध एवं पवित्र हो।

बंगाल के महान् सन्त विजयकृष्ण गोस्वामी इन भ्रमों के प्रति हमेशा अपने शिष्यों को सावधान करते रहते थे। उनका कहना था कि साधना की सर्वोच्च सिद्धि पवित्रता है। न तो इससे बढ़कर कुछ है और न इसके बराबर कुछ है। इसलिए प्रत्येक साधक को इसी की प्राप्ति के लिए सतत यत्न करना चाहिए। महात्मा विजयकृष्ण का कथन है कि साधक के शरीर और मन ही उसके अध्यात्म प्रयोगों की प्रयोगशाला है। उसका अन्तःकरण ही इस प्रयोगशाला के उपकरण हैं। अगर यह प्रयोगशाला और प्रयोग में आने वाले उपकरण ही सही नहीं है तो फिर प्रयोग के निष्कर्ष कभी सही नहीं आ सकते। इतना ही नहीं, ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक प्रयोगों की सफलता और सार्थकता भी संदिग्ध बनी रहेगी।

     इस पथ पर एक बड़ा खतरा और भी है। और यह खतरा है अन्तरात्मा की आवाज का। आमतौर पर जिसे लोग अन्तरात्मा की आवाज कहते हैं वह केवल उनके मन की कल्पनाएँ होती हैं। अपने मन के कल्पना जाल को ही वे अन्तरात्मा की आवाज अथवा अन्तरतम की वाणी कहते हैं। इस मिथ्या छलावे में फँसकर वे हमेशा अपने लक्ष्य से दूर रहते हैं। उनकी भटकने अन्तहीन बनी रहती हैं। ध्यान रहे यदि मन में अभी भी कहीं आसक्तियाँ हैं तो अन्तरतम की आवाज नहीं सुनी जा सकती है। वासनामुक्त हुए बिना जीवन के परम रहस्य को नहीं जाना जा सकता।

      इस सम्बन्ध में गौर करने वाली विशेष बात यह है कि लोग व्यवहार शुद्धि को ही सब कुछ मान लेते हैं। सांसारिक प्रचलन भी इसका साथ देता है। जो व्यवहार में ठीक है उसे नैतिक एवं उत्कृष्ट माना जा सकता है। पर सत्य इतने तक ठीक नहीं है। नैतिकता की उपयोगिता केवल सामाजिक दायरे तक है। आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए यह निरी अर्थहीन है। इसका मतलब यह नहीं है कि आध्यात्मिक व्यक्ति अनैतिक होते हैं। अरे नहीं, वे तो केवल अतिनैतिक होते हैं। वे नैतिकता की पहली कक्षा पास करके अन्य उच्च स्तरीय कक्षाओं को पास करने लगते हैं। ये उच्चस्तरीय कक्षाएँ विचार शुद्धि एवं संस्कार शुद्धि तक हैं। जो इन्हें कर सका वही अन्तरतम में छुपे हुए परम रहस्य को जानने का अधिकारी होती है।

       शुद्धि व्यवहार की, यह केवल पहला कदम है, जो नैतिक नियमों को मानने से हो जाती है। शुद्धि विचारों की, यह किसी पवित्र विचार, भाव, सूत्र अथवा अपने आराध्य या परमवीतराग गुरुसत्ता का ध्यान व चिन्तन करने से हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति किसी परम वीतराग व्यक्ति का ध्यान- चिन्तन करते रहे तो उसे विचार शुद्धि की कक्षा पास करने में कोई भी कठिनाई न होगी। इसके बाद संस्कार शुद्धि का क्रम है। यह प्रक्रिया काफी जटिल और दुरूह है। इसे ध्यान की दुर्गम राह पर चल कर ही पाया जा सकता है। इसमें वर्षों का समय लगता है। संक्षेप में इसकी कोई भी समय सीमा नहीं है। सब कुछ साधक के द्वारा किए जाने वाले आध्यात्मिक प्रयोगों की समर्थता व तीव्रता पर निर्भर करता है।

          मां गायत्री का ध्यान व गायत्री मंत्र का जप इसके लिए एक सर्वमान्य उपाय है। जो इसे करते हैं उनका अनुभव है कि गायत्री सर्व पापनाशिनी है। इससे सभी संस्कारों का आसानी से क्षय हो जाता है। यदि कोई निरन्तर बारह वर्षों तक भी यह साधना निष्काम भाव से करता रहे तो उसे अन्तरतम में छुपे हुए रहस्य की पहली झलक मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है। लेकिन इस प्रयोग में एक सावधानी भी है कि इन पूरे बारह वर्षों तक गायत्री साधना के विरोधी भाव को अंकुरित नहीं होना चाहिए। यदि इस साधना में भक्ति और अनुरक्ति का अभिसिंचन होता रहा तो सफलता सर्वथा निश्चित रहती है। इस सफलता से अदृश्य के दर्शन का द्वार खुलता है। इसकी प्रक्रिया क्या है इसे अगले सूत्र में पढ़ा जा सकेगा।
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