शिष्य संजीवनी

गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें

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            शिष्य संजीवनी के सेवन का अनुभव जिन्हें है, वे इसके प्रभावों से भी परीचित हो गए हैं। अनुभूति यही कहती है कि शिष्य संजीवनी के नियमित सेवन से भावों के विकार, विचारों के दोष अनायास ही दूर होने लगते हैं। मनोभूमि का बंजरपन उर्वरता में रूपान्तरित होता है। स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि शिष्यत्व के बीज अंकुरित हो सके। साधना जीवन में यह बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि जो शिष्य है, गुरु की गुरुता वही पहचान पाता है। जहाँ शिष्यत्व होता है, वहीं पर सद्गुरु की कृपा का अवतरण होता है। शिष्यत्व के अभाव में सद्गुरु की कृपा वर्षण के कोई आसार नहीं होते। जो शिष्यत्व से वंचित है, वंचना ही उसके गले पड़ती है।

       अपने सद्गुरु की कृपा का अमृत हम पर बरसे और हम उसमें भीगें। शिष्य संजीवनी के सूत्र इसी सुयोग को साधने के लिए हैं। बादलों की बरसात तो मौसम आने पर होती है, पर उसका लाभ केवल चतुर किसान ही ले पाते हैं। अन्यथा बरसात का पानी तो बस नदी- नालों के रास्ते बह जाता है। इस जल प्रवाह को लहलहाती फसल में बदलने के लिए सुयोग्य कृषक का विवेकपूर्ण एवं साहस भरा श्रम चाहिए। ठीक यही बात सद्गुरु की कृपा के बारे में है, यदि हमने अपने अन्तःकरण को उर्वर बनाया है, उसमें शिष्यत्व के बीज बोए है, फिर सद्गुरु कृपा के मेघ हमें वंचित नहीं रखेंगे। हमारे भीतर साधना की फसलें लहलहाए बिना नहीं रहेंगी।

यह सुयोग कैसे बनें? इसके लिए शिष्य संजीवनी के ग्यारहवें सूत्र को अपने जीवन रस में घोलना होगा। इसमें शिष्यत्व साधना में प्रवीण जन कहते हैं- जीवन का संगीत सुनो। इस संगीत को सुनने के लिए तुम्हें अपने दिल की गहराइयों में उतरना होगा। यह काम आसान नहीं है। शुरुआत में यही अहसास होगा कि यहाँ तो ऐसा कोई संगीत नहीं है। कितना ही खोजो पर एक बेसुरे कोलाहल के सिवा और कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता। पर तुम्हें थकना नहीं है, बस और अधिक गहराइयों में उतरना है। इसके बावजूद भी यदि निष्फलता हाथ लगे तो हारे नहीं, बल्कि और ज्यादा गहरे में उतर कर फिर से ढूंढो। भरोसा करो, एक नैसर्गिक संगीत का दिव्य स्त्रोत हम सभी के हृदयों में है।

         भले ही अभी यह छिपा हो, ढंका हो और यहाँ अभी केवल शून्यता नजर आती हो, पर है यह अवश्य। इसके स्पर्श मात्र से हृदय श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से भर उठेगा। स्थिति इसके उलट भी है, यदि हम अपने हृदय को श्रद्धा, आशा एवं प्रेम से से भर दें, तो भी यह दिव्य संगीत हमारे अन्तस में गुंजने लगेगा। ध्यान रहे यदि हमने भूल से पाप के पथ पर पाँव रख दिए तो फिर इस संगीत को कभी भी न सुना जा सकेगा। क्योंकि जो पाप पथ पर चलता है, वह अपने अन्तस की गहराइयों में कभी नहीं उतर पाता। वह अपने कानों को इस दिव्य संगीत के प्रति मूंद लेता है। अपनी आँखों को वह अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधी कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना आसान जान पड़ता है।

         तभी वह ऐसा करता है। दरअसल ऐसा व्यक्ति परम आलसी होता है। वह जीवन की ऊपरी पथरीली सतह को ही सब कुछ मान लेता है। उस बेचारे को नहीं मालुम कि जिन्दगी की इस पथरीली की जमीन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है। समस्त कोलाहल के अन्तस में सुरीला संगीत प्रवाहित हो रहा है। यह अविरल प्रवाह न तो कभी रुकता है और न कभी थमता है। सचमुच ही गहरा स्रोत मौजूद है, उसे खोज निकालो। तुम इतना जान लो कि तुम्हारे अन्दर निःसन्देह वह परम संगीत मौजूद है। उसे ढुंढने में लग जाओ, थको- हारो मत। यदि एक बार भी तुम उसे अपने में सुन सके, तो फिर तुम्हें यह संगीत अपने आस- पास के लोगों के अन्तस में झरता- उफनता नजर आएगा।

        इस सूत्र में साधना का परम स्वर है। इसमें जो कहा गया है, जीवन की परिस्थितियाँ उससे एकदम उलट हैं। हमारे जीवन में संगीत नहीं कोलाहल भरा हुआ है। बाहर भी शोर है और अन्तस में भी शोर मचा हुआ है। चीख, पुकारों के बीच हम जी रहे हैं। ऐसे में जीवन के संगीत की बात अटपटी लगती है। लेकिन इस अटपटे पन के भीतर सच है। पर गहरे में उरतने की जरुरत है। गहरे में उतरा जा सके तो ऊपरी दुनियाँ को भी संवारा जा सकता है, सजाया जा सकता है। सन्त कबीर ने भी यही बात अपने दोहे में कही है-

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठि।
मैं बपुरा बुढ़नडरा, रह किनारे बैठि॥

      यानि कि जो खोजते हैं, वे पाते हैं। पर उन्हें गहरे में डुबकी लगानी पड़ती है। जो डुबने से डरते है, वे तो बस किनारे बैठे रह जाते हैं।
बाबा कबीर के एक शिष्य थे- शेख रसूल। साधना करने की प्रगाढ़ चाहत लिए हुए वे कबीर बाबा के पास आए। उनकी चाहत थी कि बाबा उन्हें मंत्र दें। जप की कोई विधि बताएंअक्कड़- फक्कड़ कबीर के निराले जीवन की विधियाँ भी निराली थी। उन्होंने शेख रसूल को देखा फिर हंसे और हंसते हुए उन्होंने कहा- देख मैं तुझे मंत्र तो दूंगा, पर तब जब तू सुनने लायक हो जाएगा। अभी तो तू बहरा है, पहले अपने बहरेपन को ठीक कर। अपनी उलटबासियों के लिए विख्यात कबीर की यह उलटबांसी रसूल को समझ में न आयी। क्योंकि उनके कान तो ठीक थे। उन्हें सुनायी भी सही देता है।

      समझने के फेर में पड़े शेख रसूल को बाबा कबीर ने चेताया, अरे भाई ये जो कान है, वे तो दुनियां की बातों को सुनने के लिए हैं। गुरु की बातों को दिल से सुना जाता है। दिल कहे और दिल सुने। ऐसा हो तो गुरु और शिष्य के बीच संवाद पनपता है। बात रसूल को समझ में आ गयी। उसी क्षण से उन्होंने कानों की सुनी पर मन की हटाकर दिल की गहराइयों में प्रवेश करने की तैयारी करने लगे। गुरु के लिए उफनता प्रेम, सच्ची श्रद्धा, वे ही मेरा उद्धार करेंगे, यह वे ही एक मात्र आशा उनकी चेतना की गहराइयों में सघन होने लगी। इस सघनता को लिए वह जीवन के उथलेपन से गहरेपन में प्रविष्ट होने लगे।

         दिन गुजरे, रातें बीतीं। पहले तो सांसारिक कोलाहल ने उनकी राह रोकी। सतही पथरीलापन उनकी राहों में आड़े आया, पर श्रद्धा उनका सम्बल थी, उनके हृदय में आशा का प्रदीप था। सद्गुरु के प्रति अथाह प्रेम उनका पाथेय था। शेख रसूल अपनी गहराइयों में उतरते गए। उन्हें अचरज तब हुआ, जब उन्होंने पाया कि अन्तस की गहराइयों में न तो कोलाहल का अस्तित्व है और न पथरीली ठोकरों का। वहाँ तो बस पवित्र जीवन संगीत प्रवाहित है। यही गहराइयों में उन्होंने अपने सद्गुरु बाबा कबीर की मुस्कराती छबि देखी।

         इस अन्तरदर्शन ने उन्हें जीवन की सार्थकता दे दी। उन्होंने अपने सद्गुरु की प्रेममयी परावाणी को अपने हृदय में सुना- बेटा! जो अपने गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में पहचान लेता है, वही सच्चा शिष्य है। इस घटना के बाद शेख रसूल कबीर के पास काफी दिनों तक नहीं आए। जब किसी ने उन्हें यह बात कही, तो वे जोर से हंस पड़े। उनकी इस हंसी में गुरु की कृपा, और शिष्य साधना का सम्मिलित संगीत था। इस स्वर माधुर्य की स्मृति कैसे बनी रहे? इसकी चर्चा, इसका मनन उन्हें जीवन संगीत का नया बोध देगा।
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