इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

सदुपयोग न हो पाने की विडंबना

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प्रगति के नाम पर जो पाया गया था, यदि उसका सदुपयोग सत्प्रयोजन के लिए सर्वजनीन हित साधन के लिए किया गया होता, तो आज दुनिया कितनी सुन्दर और समुन्नत होती, इसकी कल्पना सहज ही हो सकती है। पर दुर्भाग्य तो देखिए, जिसने समझदार कहलाने वालों को संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीर में कसकर बाँध लिया और जो हाथ लगा, उसे दुरुपयोग करने के लिए ही प्रेरित किया; फल सामने है। क्या गरीब क्या अमीर, सभी साधनों की दृष्टि से असन्तुष्ट हैं और कुबेर जैसे वैभववान् बनना चाहते हैं। मिल बाँटकर खाने की किसी को इच्छा नहीं। एक दूसरे का शोषण-दोहन करने के लिए ही आतुर हैं और निरन्तर चिन्तित असन्तुष्ट, उद्विग्न और आकुल-व्याकुल बने रहते हैं। ऊपर की चमक देखकर प्रगति का भ्रम तो हो जाता है, पर वस्तुत: मनुष्य अपना शारीरिक, मानसिक आर्थिक और सामाजिक स्वास्थ्य पूरी तरह गँवा चुका है। मरघट के भूत-पलीतों की तरह आशंकाओं और उद्विग्नताओं के बीच डरता-डराता जीवन जीता है। यह समूचा जाल-जंजाल मात्र भ्रान्तियों के समुच्चय पर आधारित है। यदि सही विचार करने और सही जीवन जीने की कला समझी और अपनाई गई होती, तो आज संसार में सर्वत्र प्रगति, प्रसन्नता और सुख शान्ति का वातावरण ही बिखरा पड़ा होता। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव और सहयोग के वातावरण में, यहाँ हर किसी को उल्लास और आनन्द का ही अनुभव होता रहता।

    इसके विपरीत आज सर्वत्र अनाचार का ही बोलबाला दीखता है। जो शान्ति और सन्तोषपूर्वक जी रहे हैं, वे अँगुलियों पर गिने जाने जितनी स्वल्प संख्या में ही हैं। कुकृत्य, कुविचारों की ही देन है। विक्षोभ, भ्रान्तियों से ग्रसित होने पर ही सताता है। आज की प्रमुख समस्या है-विचार विकृति, आस्था संकट, भ्रान्तियों का घटाटोप और कुविचारों का साम्राज्य। इस जड़ को काटे बिना काँटों की तरह बिखरे कष्टों से छुटकारा नहीं मिलेगा। विषवृक्ष को काटे बिना सुख शान्ति की आशा कैसे की जा सकेगी?

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