इन दिनों सबसे बड़ा, और सबसे आवश्यक कार्य यह है कि विचार क्रान्ति का व्यापक आयोजन किया जाए। अवांछनीयता के विरुद्ध संघर्ष खड़ा किया जाए और मानवीय गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन अपनाने के लिए हर किसी को बाधित किया जाए। नवयुग के अवतरण का-सतयुग की वापसी का यही एक मात्र उपाय है, जिसे संसार के समस्त युगों और क्षेत्रों पर लागू किया जाना चाहिए। यही है धर्म की धारणा और सत्य, पे्रम, न्याय की आराधना। इससे बड़ा कोई पुण्य-परमार्थ और दूसरा हो नहीं सकता। यही है वह महाभारत जिसके लिए महाकाल ने प्रत्येक प्राणवान् को कटिबद्ध होने के लिए पुकारा है। यह मोर्चा जीतते ही उज्ज्वल भविष्य की संरचना में तनिक भी सन्देह रह नहीं जाएगा। इक्कीसवीं सदी की ज्ञान गंगा तब स्वर्ग में अवस्थित रह कर दुर्लभ न रहेगी। हर किसी को उससे लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा।
हमें व्यापक विचार क्रान्ति की तैयारी करनी चाहिए। समझदारों के सिर पर चढ़ी हुई नासमझी का उन्माद उतरना चाहिए। इसके लिए लोहा से लोहा काटने की, काँटे से काँटा निकालने की नीति अपनानी पड़ेगी। सद्विचारों का इतना उत्पादन और वितरण करना पड़ेगा कि शोक, सन्ताप कहीं ढूँढ़े भी न मिलें।
कार्य बड़ा है-व्यापक है। ६०० करोड़ मनुष्यों की ‘‘ब्रेन वाशिंग’’ का प्रश्न है। उसमें अवांछनीयता की गर्दन काटने के साथ-साथ, मानवीय गौरव के अनुरूप उदारता से भरी-पूरी विवेकशीलता की स्थापना की जानी चाहिए। एकता और समता की छत्रछाया में आने के लिए हर किसी को आमन्त्रित ही नहीं बाधित भी किया जाना है।
इसके लिए शुभारम्भ कैसे और कहाँ से हो? यह बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने जैसा टेढ़ा प्रश्न है। इसके लिए आत्मदानी, प्रचण्ड साहस के धनी प्राणवान् चाहिए। उन्हें कहाँ से ढूँढ़ा जाए? कौन उनमें प्राण फूँके, कौन उन्हें जुझारू संकल्पों से ओत-प्रोत करे? चारों ओर दृष्टि पसारने के उपरान्त एक यही उपाय सूझा कि-‘‘खोज घर से आरम्भ करनी चाहिए।’’ दशरथ ने विश्वामित्र की याचना पर अपने ही पुत्र सुपुर्द किए थे। गुरु गोविन्द सिंह के पाँचों पुत्र अग्रगामी बने थे। हरिश्चन्द्र ने स्वयं ही गुरु की आवश्यकता पूरी की थी। यह परम्परा आज फिर जीवित जाग्रत किए जाने की आवश्यकता है। अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही दूसरों को आदर्शवादिता अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।