पिछले तीन सौ वर्षों में भौतिक विज्ञान और प्रत्यक्षवादी ज्ञान का असाधारण विकास-विस्तार हुआ है। यदि उपलब्धियों का सदुपयोग न बन पड़े, तो वह एक बड़े दुर्भाग्य का कारण बन जाता है। यही इन शताब्दियों में होता रहा है। फलस्वरूप हम, अभावों वाले पुरातन काल की अपेक्षा कहीं अधिक विपन्न एवं उद्विग्न परिस्थितियों में रह रहे हैं।
वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घातक विकिरण, बढ़ता तापमान, आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहे हैं, जिसमें मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा कठिन हो जाएगी। ध्रुव पिघलने लगें, समुद्रों में भयंकर बाढ़ आ जाए, हिमयुग लौट पड़े, पृथ्वी के रक्षा कवच ओजोन में बढ़ते जाने वाले छेद, पृथ्वी पर घातक ब्रह्माण्डीय किरणें बरसाएँ और जो कुछ यहाँ सुन्दर दीख रहा है, वह सभी जल-भुनकर खाक हो जाए—ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाले विज्ञान-विकास को किस प्रकार सराहा जाए? भले ही उसने थोड़े सुविधा साधन बढ़ाएँ हों।
इसे विज्ञान-विकास से उत्पन्न हुआ उन्माद ही कहना चाहिए, जिसने इसी शताब्दी में दो विश्व युद्ध खड़े किए और अपार धन-जन की हानि की। छिटपुट युद्धों की संख्या तो इसी अवधि में सैकड़ों तक जा पहुँचती है। धरती की समूची खनिज-सम्पदा का दोहन कर लेने की भी योजना है। अन्तरिक्ष युद्ध का वह नियोजन चल रहा है, जिससे धरती और आसमान पर रहने वाले प्राणियों, वनस्पतियों का कहीं कोई नाम-निशान ही न रहे।
प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, नैतिकता, निष्ठा आदि मानवीय आदर्शों की गरिमा को एक कोने पर उठाकर रख दिया है। तात्कालिक लाभ ही सब कुछ बन गया है, भले ही उसके लिए कितनी ही प्रवंचना और निष्ठुरता क्यों न अपनानी पड़े। लगता है वर्तमान की विचारधारा मनुष्य को पशु बताने जा रही है, जिस पर मर्यादाओं और वर्जनाओं का कोई अंकुश नहीं होता।
विनोद का प्रमुख माध्यम कामुकता ही बन चला है, जिसने नर-नारी के बीच बचे हुए मर्यादाओं के पुल को तो विखंडित किया ही है, यौनाचार की प्रवंचना में भी उलझा दिया है। कारण सामने है। गर्भ निरोध के प्रयत्न चलते रहने पर भी जनसंख्या इस तेजी से बढ़ रही है कि भावी पीढ़ी के लिए खाद्य, निवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि का प्रबन्ध मुश्किल हो जाएगा और सड़कों पर चलने के लिए गाडिय़ाँ तक बन्द करनी पड़ेंगी। इस अभिवृद्धि के रहते, विकास के निमित बन रही योजनाओं में से एक के भी सफल होने की सम्भावना नहीं है। भूखे भेडि़ए आपस में ही एक दूसरे को चीर-फाड़ डालते हैं। बढ़ी हुई जनसंख्या की स्थिति में मनुष्य भी उसी स्तर तक गिर सकता है।