इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

पिछले तीन सौ वर्षों में भौतिक विज्ञान और प्रत्यक्षवादी ज्ञान का असाधारण विकास-विस्तार हुआ है। यदि उपलब्धियों का सदुपयोग न बन पड़े, तो वह एक बड़े दुर्भाग्य का कारण बन जाता है। यही इन शताब्दियों में होता रहा है। फलस्वरूप हम, अभावों वाले पुरातन काल की अपेक्षा कहीं अधिक विपन्न एवं उद्विग्न परिस्थितियों में रह रहे हैं। 

वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घातक विकिरण, बढ़ता तापमान, आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहे हैं, जिसमें मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा कठिन हो जाएगी। ध्रुव पिघलने लगें, समुद्रों में भयंकर बाढ़ आ जाए, हिमयुग लौट पड़े, पृथ्वी के रक्षा कवच ओजोन में बढ़ते जाने वाले छेद, पृथ्वी पर घातक ब्रह्माण्डीय किरणें बरसाएँ और जो कुछ यहाँ सुन्दर दीख रहा है, वह सभी जल-भुनकर खाक हो जाए—ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाले विज्ञान-विकास को किस प्रकार सराहा जाए? भले ही उसने थोड़े सुविधा साधन बढ़ाएँ हों। 

इसे विज्ञान-विकास से उत्पन्न हुआ उन्माद ही कहना चाहिए, जिसने इसी शताब्दी में दो विश्व युद्ध खड़े किए और अपार धन-जन की हानि की। छिटपुट युद्धों की संख्या तो इसी अवधि में सैकड़ों तक जा पहुँचती है। धरती की समूची खनिज-सम्पदा का दोहन कर लेने की भी योजना है। अन्तरिक्ष युद्ध का वह नियोजन चल रहा है, जिससे धरती और आसमान पर रहने वाले प्राणियों, वनस्पतियों का कहीं कोई नाम-निशान ही न रहे। 

1. इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण 
2. सदुपयोग न हो पाने की विडंबना 
3. आज की सबसे प्रमुख आवश्यकता 
4. प्रयोग का शुभारंभ और विस्तार 
5. प्रखर प्रेरणा का जीवंत तंत्र 
6. लोक सेवी कार्यकर्ताओं का उत्पादन 
7. विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय 
8. घर-घर अलख जगाने की प्रक्रिया दीप यज्ञों के माध्यम से 
9. संधि बेला एवं इक्कीसवीं सदी का अवतरण 
10. भावी संभावनाएँ—भविष्य कथन 
11. 21वीं सदी की आध्यात्मिक गंगोत्री 
12. इस पूर्णाहुति के सत्परिणाम 
13. शिक्षण सत्र व्यवस्था 
14. अपने समय का महान आन्दोलन-नारी जागरण 
15. विचार क्रांति-जनमानस का परिष्कार 
16. सृजन प्रयोजनों के निमित्त समयदान 
17. दैवी सत्ता का सूत्र संचालन 
" name="txtdata" type="hidden" lang="english" /> पिछले तीन सौ वर्षों में भौतिक विज्ञान और प्रत्यक्षवादी ज्ञान का असाधारण विकास-विस्तार हुआ है। यदि उपलब्धियों का सदुपयोग न बन पड़े, तो वह एक बड़े दुर्भाग्य का कारण बन जाता है। यही इन शताब्दियों में होता रहा है। फलस्वरूप हम, अभावों वाले पुरातन काल की अपेक्षा कहीं अधिक विपन्न एवं उद्विग्न परिस्थितियों में रह रहे हैं। 

वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घातक विकिरण, बढ़ता तापमान, आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्र ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहे हैं, जिसमें मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा कठिन हो जाएगी। ध्रुव पिघलने लगें, समुद्रों में भयंकर बाढ़ आ जाए, हिमयुग लौट पड़े, पृथ्वी के रक्षा कवच ओजोन में बढ़ते जाने वाले छेद, पृथ्वी पर घातक ब्रह्माण्डीय किरणें बरसाएँ और जो कुछ यहाँ सुन्दर दीख रहा है, वह सभी जल-भुनकर खाक हो

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