इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

प्रयोग का शुभारंभ और विस्तार

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इस तथ्य को युग निर्माण मिशन के संस्थापक पूज्य आचार्य जी ने अपनाते हुए, नव सृजन का श्रीगणेश किया। निजी सम्पत्ति की एक- एक पाई जनता- जनार्दन को सौंपते हुए अन्यान्यों को प्रोत्साहित किया कि वे भी लोभ, मोह और अहंकार के बन्धन शिथिल करके जो समय, श्रम, कौशल, मनोयोग बच सके, उसे लोक मंगल की युग की आवश्यकता, विचारक्रान्ति के लिए यथा सम्भव नियोजित करें।

    पन्द्रह वर्ष की आयु से लेकर ८० वर्ष की आयु तक उन्होंने यही काम अपनाया है। अपना, आदर्श प्रस्तुत करते हुए, सम्पर्क क्षेत्र के हर परिजन को अपेक्षाकृत अधिक उत्कृष्टता अपनाने और आदर्शवादी मार्ग पर चलने के लिए उत्साहित किया है। यह कार्य उन्होंने एक अध्यापक के रूप में किया है। हिन्दी की ‘‘अखण्ड ज्योति’’, ‘युग निर्माण योजना’ पत्रिका तथा सात अन्य भारतीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं द्वारा उन्होंने मात्र वाचन की सामग्री ही नहीं दी; वरन् पाठकों के अन्तरालों को इस सीमा तक झकझोरा है, कि वे युग समस्याओं से जूझने के लिए अपना योगदान किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करें ही। इन दिनों उनके द्वारा सम्पादित, प्रकाशित पत्रिकाओं की संख्या लाखों में है। हर अंक को न्यूनतम पाँच व्यक्ति निश्चित रूप से पढ़ते हैं। इसलिए उनसे लाभ उठाने वालों की मिशन के साथ आत्मीयता स्थापित करने वालों की संख्या बहुत बड़ी हो जाती है। इसी जन शक्ति के माध्यम से, विचारक्रान्ति के शुभारम्भ से लेकर इक्कीसवीं सदी के गंगावतरण तक की विशालकाय योजनाएँ बनाई और सक्रिय क्रियान्वयन की स्थिति तक पहुँचाई गई हैं।

    एक से पाँच, पाँच से पच्चीस का अपना विस्तार तन्त्र है। पाँच लाख स्थायी सदस्यों के पच्चीस लाख पाठक हैं। इनमें से प्रत्येक को अपने पाँच- पाँच साथी और तैयार करने का भार सौंपा गया है। इस प्रकार यह प्रयास, दूसरी छलाँग में ही एक करोड़ के करीब प्राणवानों एवं सृजन शिल्पियों को समेट लेने की सम्भावनाओं से भरा- पूरा है। यही क्रम बढ़ते- बढ़ते संसार भर के ६०० करोड़ मनुष्यों को अपनी भुजाओं में जकड़ ले, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए और न इस अपेक्षा के प्रति अनास्था ही व्यक्त करनी चाहिए। इसका बढ़ता हुआ परिकर यदि युग परिवर्तन का वातावरण बनाकर खड़ा कर दे, तो इसमें अनहोनी जैसी कोई बात नहीं |
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