इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

भावी संभावनाएँ—भविष्य कथन

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इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाओं से भरी है। उसमें समता और एकता का बोलबाला होगा। यह स्फुरणा मूल चेतना सम्पन्न विशिष्ट व्यक्तित्वों के अन्त:करण में चिरकाल से प्रस्फुटित होती रही है। कुछ विश्वविख्यात भविष्यविद् संसार के विभिन्न भागों में ऐसे हो चुके हैं, जिन्होंने विश्व- समस्या और उनके बदलाव के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है और वह प्राय: समय पर सही सिद्ध होता रहा है। अब से कोई चार सौ पचास वर्ष पूर्व फ्रांस में एक नेस्ट्राडामस नामक व्यक्ति हुए थे। उन्होंने अब तक की घटी विश्व घटनाओं के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है और वह कथन हर कसौटी पर खरा उतरा है। उन्होंने सन् २००० के उपरान्त आने वाले समय को ‘एज ऑफ ट्रूथ’ के नाम से वर्णित किया है और नव संरचना में भारत की प्रमुख भूमिका होने का उल्लेख किया है। उसकी पुस्तक पर एक सुविस्तृत व्याख्या लिखते हुए, जॉन हॉग नामक मनीषी ने एक नया ग्रंथ लिखा है- ‘नेस्ट्राडामस एण्ड दि मिलेनियम’। उसमें भारत के सन्दर्भ में उनके कथन का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक नई चेतना का उद्भव सन् १९९० से आरम्भ होने जा रहा है, जो समस्त विश्व को प्रभावित करेगी; किन्तु वह उदित भारत से होगी।

    डॉ० मार्गरेट मीड, हरमन कॉन, पीटर हरकोस, विलियम जैसे विश्वविख्यात भविष्य वक्ताओं ने भी ऐसी सम्भावनाएँ घोषित की हैं कि इक्कीसवीं सदी में मनुष्य की सभी समस्याओं का समाधान होगा और ऐसी परम्पराओं का प्रचलन चल पड़ेगा, जिससे प्रगति और शान्ति का आधार खड़ा हो सके। प्रोफेसर हरार भी इस विषय के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने कहा है- ‘‘भारत एक विराट् शक्ति के रूप में उभरेगा और उसे नवसृजन के क्षेत्र में अनेक देशों और विशेषज्ञों का समर्थन प्राप्त होगा। जीन डिक्सन की ‘‘माई लाइफ एण्ड प्रोफेसीज’’ पुस्तक में लिखा है बीसवीं सदी के अन्तिम बारह वर्षों में पाश्चात्य सभ्यता भोगवाद छोड़कर पूर्वात्य सभ्यता की शरण में आएगी। नीति की विजय होगी। विश्वशान्ति की स्थापना में भारत की विशेष भूमिका होगी। प्रो० कीरो ने भी ठीक इसी प्रकार का अभिमत व्यक्त किया है।

    महामनीषी हक्सले कामा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेव न्यू वल्र्ड’ में लिखा है- पिछली सभी क्रान्तियों से बढ़कर अगले दिनों एकता और समता स्थापित करने वाली ‘‘विश्व क्रान्ति’’ उभर कर आ रही है। इसके लक्षण बीसवीं सदी कें अन्तिम बारह वर्षों में प्रत्यक्ष होने लगेंगे। ‘‘इस्लाम भविष्य की आशा’’ पुस्तक में सैयद कुत्व ने लिखा है कि २१ वीं सदी का प्रारम्भ धर्म और विज्ञान के समन्वय से होगा। महर्षि अरविन्द के अनुसार सन् २००० से पूर्व ही, आत्मबल सम्पन्न प्रतिभाओं में उत्कृष्ट (सुपर) चेतना का अवतरण होगा, जो व्यक्ति के विचारों में भारी परिवर्तन लाएगी। स्वामी विवेकानन्द ने सन् १८९७ में एक भाषण में कहा था कि भारत के प्रज्ञावान् आगे आएँगे और वे एकता- समता वाली विश्व संस्कृति को- भारतीय संस्कृति को विश्व भर में फैलाएँगे।

    संसार भर में पढ़े जाने वाले प्रतिष्ठित पत्र ‘‘टाइम’’ में लिखा है- भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाले प्रयास अब तेजी से आरम्भ हो गए हैं। इसी पत्रिका का २ अप्रैल १९८९ का अंक पूरी तरह भारत को समर्पित किया गया है और लिखा है कि ‘‘ एक नया नेतृत्व भारत के रूप में उभर रहा है।’’ भारत अपनी आध्यात्मिक विरासत, युवाशक्ति, बुद्धिजीवियों और प्रतिभावानों की प्रचुर संख्या के आधार पर अगले दिनों विश्व का नेतृत्व करेगा।’’ वाशिंगटन पोस्ट में छपे एक आँकलन के अनुसार, ‘‘सूर्य में इन दिनों असाधारण उभार आ रहा है। उनका प्रभाव १९८९ तक असाधारण रूप से प्रकट होता देखा जाएगा। अन्य प्रभावों के अतिरिक्त इस कारण भारत को शीर्ष शिखर पर पहुँचता देखा जा सकेगा। इसी प्रकार अन्य विशेषज्ञों के मतानुसार भविष्य ध्वंस के निरस्त होने और विकास के समुन्नत होने से संसार में सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न होने का उल्लेख जगह- जगह मिलता है।

    जिन दिनों इंग्लैण्ड पर जर्मनी के लगातार वायुयान आक्रमण की बम वर्षा हो रही थी, उसके कारण उत्पन्न हुए ध्वंस को देखते हुए सर्वत्र बेचैनी निराशा छाई हुई थी, उन दिनों उस देश के प्रधानमन्त्री ‘चर्चिल’ थे। उन्होंने उसी निराशा के बीच एक नया नारा दिया, जो चप्पे- चप्पे पर अंकित कर दिया गया। नारा था- ‘वी’ फॉर विक्ट्री, जिसका उद्देश्य था कि इंग्लैण्ड अन्ततः: विजय होकर रहेगा। जीत हमारी ही निश्चित है। इस उद्घोष ने उस क्षेत्र में एक नया उत्साह भर दिया और लोग पलायन की, निराशा की बात छोड़कर कठिनाइयों से निपटने के लिए एक जुट हो गए। जीत अन्ततः: मित्र राष्ट्रों की ही हुई।

    पिछले तीन सौ वर्षों में हुए शक्ति के असाधारण दुरुपयोग को देखते हुए, इन दिनों जन- जन में भावी सम्भावनाओं के प्रति आशंका और दु:खद समस्याओं की कल्पनाएँ जड़ जमाती जा रही हैं। मनोबल टूटने का दुष्परिणाम सर्वविदित है स्थिति को देखते हुए इन दिनों सृजनात्मक नया उत्साह उत्पन्न करने और सृजन के लिए जुट पड़ने का वातावरण बनाने की नितान्त आवश्यकता है। इस दृष्टि से भी इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के उद्घोष को अधिकाधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए शान्तिकुञ्ज द्वारा जो वातावरण बनाया जा रहा है, उसकी महत्ता समझी जानी चाहिए। विश्वासपूर्वक ऐसे प्रयत्नों को अपनाना चाहिए, जो पिछले दिनों के बिगाड़ की क्षतिपूर्ति अगले ही दिनों कर सकने में समर्थ हो सकें।
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