सन् १९५८ में गायत्री तपोभूमि मथुरा के तत्वावधान में, एक सहस्र कुण्डीय
गायत्री महायज्ञ सम्पन्न हुआ था, जिसमें चार लाख साधक आए थे। दर्शक तो कुल
पन्द्रह लाख थे। इन साधकों को सम्मिलित करके प्राय: छ: हजार शाखा- संगठन
बनाए गए थे और भारत की देव संस्कृति को नवजीवन प्रदान करने का सभी के
द्वारा सङ्कल्प लिया गया था। विगत तीस वर्षों में अब तक जो भी महत्त्वपूर्ण
नवसृजन कार्य सम्पन्न हुए हैं, वे उसी के सत्परिणाम हैं। सन् २००१ में जो
एक करोड़ साधकों द्वारा व्रतशील पूर्णाहुति होने जा रही है, उसका धक्का
पूरे एक सौ वर्षों तक अपनी शक्ति का परिचय देता रहेगा और युग परिवर्तन की
प्रतिक्रिया को काल्पनिक नहीं, सर्वथा सार्थक बनाकर रहेगा। इस आयोजन में
उपस्थित जनों में से प्रत्येक को नवनिर्माण के लिए वह काम सौंपे जाएँगे,
जिन्हें वे अपनी योग्यता और परिस्थतियों के अनुरूप करते रह सकें।
इसी अवधि में एक लाख लोकसेवी विनिर्मित, प्रशिक्षित कर लेने की बात कठिन
एवं असम्भव जैसी लगती तो है, पर यदि उसके लिए तूफानी आन्दोलन खड़ा किया जा
सके और प्रचलन का वैसा ही प्रवाह उगाया जा सके, तो एक को देखकर दूसरा
व्यक्ति बुरी ही नहीं, अच्छी परम्पराएँ भी अपना सकता है। संसार में कोई भी
ऐसा आदमी नहीं, जो यदि सच्चे मन से चाहे, तो गुजारे के पश्चात् जनकल्याण का
कुछ न कुछ काम न करता रह सके। बिहार प्रान्त के हजारी किसान ने आम के
उद्यान लगाए जाने की उपयोगिता समझी और उस कार्य में परिपूर्ण लगन के साथ
जुट पड़ा। फलतः: उसने अपने जीवनकाल में उस क्षेत्र में गाँव- गाँव घूमकर एक
हजार आम्र उद्यान लगवाए। लगन का चमत्कार देखते हुए लोगों ने उस इलाके का
नाम हजारी बाग रखा। हजार बागों वाला- हजारी बाग। प्रश्न योग्यता या सुविधा
का नहीं, लगन का है। यदि वह सच्चे मन से लगी हो, तो शीरी का प्रेमी फरहाद
अकेले पुरुषार्थ से भी बत्तीस मील लम्बी नहर पहाड़ों से होकर खोद लाने की
चुनौती पूरी कर सकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीरों में जकड़े हुए
लोगों के लिए अपनी तृष्णा पूरी कर सकना भी कठिन है, पर उदारचेता तो ढेरों
समय, श्रम और मनोयोग उससे बचाकर, उससे ढेरों महत्त्वपूर्ण कार्य करते रह
सकते हैं और अपना इतिहास अमर बना सकते हैं। विश्वास है कि ऐसा ही वातावरण
इक्कीसवीं सदी आने से पूर्व बना लिया जाएगा।