इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

21वीं सदी की आध्यात्मिक गंगोत्री

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    शान्तिकुञ्ज में युगसन्धि महापुरश्चरण आरम्भ करने का संकेत उतरा है। यह बारह वर्ष तक चलेगा। एक मत के अनुसार बारह वर्ष का एक युग भी होता है। सूक्ष्म जगत् में हर बारह वर्ष में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन भी होते हैं। कितनी ही तप साधनाओं का विधान भी ऐसा है जो बारह वर्ष में पूरा होता है। युग सन्धि भी बारह वर्ष की है। इसमें शान्तिकुञ्ज द्वारा एक व्यापक धर्मानुष्ठान भी चल पड़ा है और कितने ही सृजनात्मक, सुधारात्मक प्रयोजनों का शुभारम्भ परिपूर्ण शक्ति का नियोजन करते हुए किया गया है।

    नौ दिन के और एक महीने के सत्र इस भूमि में सुनियोजित रूप से चल पड़े हैं, जिनमें साधनात्मक तपश्चर्या का भी समावेश है और प्रतिभा परिष्कार का प्रशिक्षण तथा प्रेरणा प्रवाह का अनुपम समन्वय भी हर महीने एक मास के सत्र चलते हैं। जिनके पास अवकाश कम है, वे नौ दिन में ही इस प्रक्रिया को पूरी कर लेते हैं। यह दोनों ही सत्र साधना प्रधान हैं। इनमें शिक्षण की ऐसी व्यवस्था है, जो व्यक्तित्व को निखारने और प्रतिभा को परिष्कृत करने में काम आ सके।

    साधना बारह वर्ष की है, इसलिए लोग सत्रों में इसका शुभारम्भ करने के उपरान्त, अपने- अपने यहाँ साप्ताहिक सत्संगों के रूप में सामूहिक उपासना का क्रम चलाते हैं। उनमें अधिक से अधिक लोगों को आमन्त्रित और सम्मिलित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस प्रकार यह उपक्रम अधिकाधिक विस्तृत होता जाता है। लाखों लोकसेवी इस क्रम में अगले दिनों सक्रिय दिखाई देंगे।

    प्राचीनकाल में जनमानस में उत्कृष्टता बनाए रखने के लिए वानप्रस्थ परम्परा चलती रहने से लोकसेवियों की कहीं भी कमी नहीं पड़ती थी। फिर इन दिनों भी क्या मुश्किल है, जो जन कल्याण में निरत होने की महत्त्वाकाँक्षा, अनेकानेक उदारचेताओं में उत्पन्न न की जा सके ?? बुद्ध, और गाँधी के आन्दोलनों में सम्मिलित होने वालों की संख्या अनायास ही लाखों में पहुँची थी। अब फिर वैसी ही परम्परा समय की माँग पूरी करने के लिए न चल सके, ऐसी कोई बात नहीं है। विशेषतया तब, जब कि अदृश्य जगत् से निस्सृत होने वाले दैवी प्रवाह का उसमें योगदान जुड़ रहा हो। अकेला भगीरथ जब गंगा का अवतरण स्वर्ग से धरती पर कर सकता है, तो अनेकों अद्भुत प्रतिभाओं का कौशल हर क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखा सकता है। तो कोई कारण नहीं कि नव सृजन के लिए युगशिल्पी विनिर्मित करने की दैवेच्छा पूरी हो सकना सम्भव न हो सके। समय पर वासन्ती पुष्पों की तरह प्रतिभाएँ पुण्य- प्रयोजन के हित अनायास ही उभरती और निखरती देखी जाती हैं।

    इक्कीसवीं सदी को भी दूसरा गंगावतरण ही कहा जा सकता है। इसका उद्गम ढूँढ़ना हो तो गंगोत्री की समता शान्तिकुञ्ज से दी जा सकती है। यमुनोत्री से यमुना निकलती है। अमरकण्टक से नर्मदा, ब्रह्मपुत्र मानसरोवर से निकलती है। बाद में उनका विस्तार और प्रवाह क्रमश: बढ़ता ही चला गया है। इक्कीसवीं सदी बनाम उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष जिस पाञ्चजन्य से अन्तरिक्ष को गुंजित करने लगा है, उसे यदि कोई चाहे, तो शान्तिकुञ्ज भी कह सकता है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों की तपस्थली के अतिरिक्त, इस भूमि को दिव्य साधनाओं और यज्ञ कृत्यों से पवित्र एवं सशक्त बनाया गया है। दिव्य संरक्षण एवं दिव्य वातावरण की भी यहाँ कमी नहीं हैं। ऐसे ही अनेक कारणों से दैवी चेतना ने यदि इस आश्रम को युग अवतरण के लिए भागीरथी प्रयत्न करने का कार्यभार सौंपा है, तो वह उचित ही है।

    अत्यन्त व्यस्त, असमर्थ लोगों के लिए एक प्रतीक साधना भी युग- सन्धि पुरश्चरण के अन्तर्गत नियोजन की गई है। प्रात:काल आँख खुलते ही पाँच मिनट की इस मानसिक ध्यान धारणा को सम्पन्न किया जा सकता है।

    अपने स्थान से ध्यान में ही हरिद्वार पहुँचा जाए। गंगा में डुबकी लगाई जाए। शान्तिकुञ्ज में प्रवेश किया जाए। गायत्री मन्दिर और यज्ञशाला की परिक्रमा की जाए। अखण्ड दीपक के निकट पहुँचा जाए। कम से कम दस बार वहाँ बैठकर जप किया जाय। माताजी से भक्ति का और गुरुदेव से शक्ति का अनुदान लेकर अपनी जगह लौट आया जाए। इस प्रक्रिया में प्राय: पाँच मिनट लगते हैं एवं महापुरश्चरण की छोटी भागीदारी इतने से भी निभ जाती है। जिसके पास समय है वे गायत्री का जप और सूर्य का ध्यान सुविधानुरूप अधिक समय तक करें।

    यह क्रम सन् २००० के अन्त तक चलेगा। इस महापुरश्चरण की पूर्णाहुति इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में सन् २००१ में होगी। आशा की गई है कि उसमें एक करोड़ साधक भाग लेंगे। अधिक व्यक्तियों का एकनिष्ठ, एक लक्ष्य प्राप्ति हेतु जब एकत्रीकरण होता है तो एक प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है। इस पूर्णाहुति का प्रतिफल भी असाधारण एवं चमत्कृतियाँ पूर्ण होना चाहिए। नवसृजन की अनेक धाराएँ उसमें से फूट पडऩी चाहिए और अनेक क्रिया- कलाप समुचित समर्थ के साथ उभरने चाहिए।


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