युग सन्धि के अगले दस वर्षों में शान्तिकुञ्ज को कई अति महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने हैं। हाथ में लिए गए कार्यों को दु्रतगति से पूरा किया जा रहा है। इस अवधि में एक लाख नए ऐसे नर-नारी लोकसेवी स्तर के विनिर्मित करने हैं, जो पूरा समय न दे सकने की विवशता में, कुछ घण्टे नियमित रूप से अपने क्षेत्र में सृजन प्रयत्नों के लिए लगाते रहें। सन् २००० तक की अवधि में ही इस महा परिवर्तन के एक करोड़ भागीदार बनाए जाने की योजना है, जो युगसन्धि की पूर्णाहुति में सम्मिलित होकर, अगले दिनों के लिए अपने दायित्वों को व्रतशील होकर धारण कर सकें।
अशिक्षित जनता को इस आधार पर शिक्षित बनाया जाना है कि हर वर्तमान शिक्षित व्यक्ति, औसतन दस अशिक्षितों को शिक्षित बनाने का संकल्प लें और विद्या प्राप्ति के ऋण से उऋण हों। यह आन्दोलन शिक्षा संवर्धन का वह कार्य कर सकेगा, जो असंख्य नए स्कूल खोलने और उन पर अपार धनराशि व्यय करने पर भी सम्भव नहीं। कुप्रचलनों में से विवाह विकृति का निवारण करने के लिए बिना धूम-धाम और बिना दहेज-जेवर की शादियाँ कराने की इक्का-दुक्का घटनाएँ ही नहीं घटती रहने देनी है, वरन् उस प्रचलन को सामान्य प्रथा बनाकर रहना है। इसके साथ ही अन्य कुप्रचलन, अन्धविश्वास, अनाचार, घटते और मिटते चले जाएँगे। हर व्यक्ति को नवसृजन प्रयत्नों के लिए कुछ समयदान और अंशदान देते रहने के लिए सहमत कर लिया जाएगा, तो उतने छोटे सहयोग से भी हर क्षेत्र में अनेक सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ भी फलने-फूलने लगेंगी।
अशिक्षा की निद्रा से जब दो तिहाई जन समुदाय जागेगा और चेतन स्थिति में पहुँचेगा, तो निश्चय ही उसकी ज्ञान पिपासा बढ़े-चढ़े स्तर की होगी। बौद्धिक क्षुधा उसे आकुल-व्याकुल कर रही होगी। उसकी पूर्ति यदि उपयुक्त युग साहित्य से न हो सकी, तो परिणाम यह होगा कि लोग अभक्ष्य खाने जैसे विकृत साहित्य को अपनाने लगेंगे और उससे भी अधिक घाटा उठाएँगे, जो कि अशिक्षित रहने पर उठा रहे थे। अस्तु; आने वाले नवयुग के मनुष्य के लिए, अभिनव साहित्य को हर भाषा में प्रस्तुत किए जाने की आवश्यकता है। उसकी व्यवस्था अत्यन्त विकट एवं बोझिल होते हुए भी पूरी की ही जाएगी।
अभी प्रज्ञा परिजन ही प्रमुख रूप से नवसृजन का आन्दोलन जन स्तर पर चला रहे हैं, पर विश्वास किया गया है कि अगले दिनों इस समुद्र मन्थन में उच्चस्तरीय प्रतिभाएँ भी सम्मिलित होंगी। मनीषा के धनी, सम्पत्तिवान, प्रतिभाशाली, कलाकार, उदारचेता महामानव इसी श्रेणी में आते हैं। उनका दिशा परिवर्तन होगा। आज वे जिस संकीर्ण स्वार्थ साधना में लगे हैं, उससे दस कदम आगे बढ़कर उन कार्यों को हाथ में लेंगे, जिन्हें करने के लिए समय की माँग उन्हें पे्ररित और बाधित करेगी। त्याग करना यों सामान्य जनों के लिए कठिन पड़ता है, पर आड़े समय में मानवी अन्तराल में निवास करने वाली अन्त: चेतना भी उभरती है और ऐसे प्रयास कराती है, जिनके करने का उन्हें पूर्व अभ्यास न था। बुद्ध काल में लाखों परिव्राजकों और गाँधी काल में लाखों सत्याग्रहियों का अनायास ही उभर पडऩा यह बताता है कि समय की माँग को गूँगे -बहरे भले ही न सुनें, पर चेतन एवं सही सलामत व्यक्ति युग धर्म के परिपालन से इनकार कैसे कर सकते हैं? ऐसे प्राणवानों को झकझोरने और नींद से विरत होकर तन कर खड़े हो जाने की स्थिति उत्पन्न करने में शान्तिकुञ्ज का तन्त्र अभी से पूरी तैयारी कर रहा है। इक्कीसवीं सदी में उनकी कहीं कोई कमी न रहेगी। उनका उभार तो युग सन्धि वेला में ही दिखने लगेगा।
हिमालय से अधिकांश नदियाँ निकलती हैं। तुलना करने पर शान्तिकुञ्ज को भी ऐसा ही कुछ करते देखा जाएगा, जिसमें कि असंख्यों को दिशा-प्रेरणा के स्रोत उपलब्ध हों। इस जेनरेटर की ऊर्जा से विद्युत-उपकरणों को गतिशील होने की शक्ति मिल सके।