पूरब- पश्चिम उत्तर- दक्षिण
पूरब- पश्चिम उत्तर- दक्षिण, घूमा मन मेरा सन्यासी।
हर मूरत में रूप तुम्हारा, देख रहा यह मन विश्वासी॥
काया में थे पिता सरीखे, हर पल दाएँ- बाएँ दीखे।
जीवन के कण्टक पथ पर हम, तुझसे ही चल पाना सीखे॥
सूक्ष्म और कारण बनकर अब, तुम हो रोम- रोम के वासी॥
इस नश्वर धरती पर प्रतिपल, तुम झर- झर झरते अमृत हो।
देश- देश में अब सन्तों की, वाणी में तुम ही मुखरित हो॥
निराकार होकर गुरुवर! तुम, अब हो अजर- अमर अविनाशी॥
दिशा- दिशा प्रेरित है तुमसे, तुमसे ज्योतित साँझ सकारे।
क्षितिजल पावक, पवन गगन, सब देते हैं संदेश तुम्हारे॥
प्रभु तुम स्रष्टा हो, पालक हो, तुम हो प्रलयंकर कैलाशी॥
एक पिता की सन्तानों में, ऊँच- नीच क्या अन्तर कैसा।
सबको लेकर साथ करेंगे, कार्य मिलेगा हमको जैसा॥
शिथिल न होंगे पाँव तनिक भी, नयनों में होगी न उदासी॥
मनोविकारों के निवारण में संगीत को सफल उपचार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
(डॉ. वाल्टर क्यूग, जर्मनी मनोरोग चिकित्सक)